अब त्यौहार नहीं आते बस छुट्टियां आती हैं।

वक़्त के साथ-साथ अगर कुछ सबसे तेजी से बदला है तो वो है हमारी त्योहारों की परिभाषा।  आज की महानगरों की भाग-दौड़ भरी दुनिया में अब त्यौहार नहीं आते, बस आती हैं तो केवल छुट्टियाँ।  फ़ेसबुक के स्टेटस अपडेट और ट्विटर के ट्रेंड्स ना हों तो हमे पता भी ना चले की रक्षाबन्धन और दशहरा कब आ के निकल गए।

भला हो उस वक़्त का जब हम कोहनी तक हाथ भरी राखी ले कर शाम साइकिल पर बैठ क्रिकेट खेलने जाते थे और बड़ी उमंग के साथ उस दिन बैटिंग-बौलिंग से पहले किसकी राखी ज्यादा है इसका फैसला करते थे।  अलग ही क्रेज था तब किसी की लाइट वाली तो किसी की म्यूजिक वाली राखी का।

माँ सुबह से चौके में लग के खीर-पूड़ी और आलू-मटर की सब्जी बनाती थी  और फिर शाम तक उसे खिलाने के लिए पीछे दौड़ती थी।  आज तो घर से सैकड़ों किलोमीटर दूर बैठ कर फ़ोन पर सिर्फ सुन ही पाते  हैं की घर पर क्या पका है। इन ऊँचे-ऊँचे अपार्टमेन्ट्स में रहते हुऐ आज भी जब किसी त्यौहार के दिन नीचे कहीं से खीर-पूड़ी की खुश्बू आती है तो सूंघ कर ही ख़ुश हो जाते हैं की घर पर भी ऐसी ही महक होगी।

रिमोट से लेकर स्कूटी की चाभी तक  के लिए बहन से न जाने  कितना झगड़ा हुआ पर आज जब  सिरहाने रखी गाडी की चाभी और पैर के बगल रखा रिमोट कोई लेने वाला नहीं है तो न टीवी देखने का मन होता है न बाहर घूम के आने का।  एक अलग ही मज़ा  था उस मस्ती भरे रिश्ते का।  कभी स्कूल से आने के बाद वो मेरी लड़ाई में लगी चोट को बस में गिरना बता के बचा लेती थी तो  कभी मैं उसकी दोस्तों के साथ आउटिंग को एक्सट्रा क्लॉस बता दिया करता था।

ना जाने मेरे वीडियो गेम के कितने रिमोट ख़राब किये होंगे उसने पर फिर जब नयी ‘कॉण्ट्रा’ गेम की कैसेट लाने के पैसे दे देती थी तो सारे गीले-शिकवे दूर हो जाते थे।  वैसे तो स्कूल में मेरी गर्लफ्रेंड को नकचढ़ी बोलती थी पर जब उसके बर्थडे पर बस ग्रीटिंग ले कर आया था तो वही थी जिसने अपना नया हैंडबैग दे कर कहा था ‘चलो ये दे दो मैं दूसरा ले लुंगी’।  दोस्तों के साथ बाहर  कॉफ़ी पीने के पैसे भी तो रोज  वही देती थी। और उसके बाद भी घर वापिस आ कर मैं  फ्रिज की  बोतल भरने के लिए उससे लड़ता था।

खैर पहले पढाई फिर नौकरी ने उस घर और उन रिश्तों से रोज का नाता बड़ा दूर सा कर दिया। त्यौहार 

अब तो राखी का मतलब है सुबह उठ कर अलमारी से लिफ़ाफ़ा निकाल कर फाड़ना और उसमे से राखी निकाल कर खुद बांध लेना ।  सुबह-सुबह माँ का भी फ़ोन आ जाएगा कि कुछ मीठा बाजार से ला कर खा लेना।  कैसे बताऊँ जब तक वो लड़ कर नहीं  खिलाती आज मन नहीं होता खाने का। त्यौहार

खैर ये राहें भी अपनी ही  चुनी हुई हैं और वो वक़्त भी खुद ही जिया था।  फर्क बस इतना है की तब की बन्दिशें आज जरुरत सी लगती हैं और आज की बे-रोकटोक ज़िन्दगी एक खामखाँ सा सफ़र।  आज समझ आया की डोर कटने के बाद पतंगें वापिस ज़मीन पर क्यों गिर जाती हैं। त्यौहार 

और आज समझ आया की मेरे हाथ में बंधी उसके प्यार की ये डोर कैसे मुझे रोज़ फिर से उड़ना सिखाती है। त्यौहार 

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