105 वर्ष पूर्व जर्मनी के एक समाजवादी द्वारा प्रारंभ किया गया पर्व ‘नारी दिवस’ लगभग 40 वर्षों से पुरे विश्व में महिलाओं को बराबरी का हक दिलवाने के लिए मनाया जाता है। आज महिला सशक्तिकरण के ‘जुमले’ के इस युग में, क्या ये पर्व अपना धैय्य पूरा कर चुका है? या ये कैलेंडर का एक और पाश्चात्य त्यौहार बन कर रह गया है जिसका प्रयोग सिर्फ बाजारीकरण को बढ़ावा देने के लिए हुआ है।
साल में बस एक दिन सुनिश्चित कर देना, ये दर्शाने के लिए की नारी का हमारे जीवन में कितना महत्व है इस दिन के होने के ध्येय को ही नकार देता है। यदि आज के युग में भी हमें नारी की महत्ता को याद करने के लिए एक विशेष दिन की आवश्यकता है तो ये नारी सश्क्तिकरण के विफल होने का प्रमाण है। समाज का 50% हिस्सा होने के बाद भी यदि नारी को धन्यवाद बोलने के लिए हमें किसी एक दिन का इंतज़ार करना पड़े तो समझो समाज की सोच में ही कुछ गड़बड़ है।
महिला सशक्तिकरण के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा तथाकथित नारीवादी महिलाएं ही हैं।
उग्रनारीवाद ने समाज में व्याप्त पितृसत्ता को अपना सबसे बड़ा दुश्मन मान लिया। उग्रनारीवाद ने पुरुष के साथ बीते अप्रिय संबंधो को इतना चिन्हांकित किया की पुरुष के साथ साँझा किये मधुर संबंधो को वो भूल ही गये। एक ओर जहाँ नारीवादियों ने पुरुषो को अपना दुश्मन मान लिया वहीं दूसरी ओर उन्होंने पुरुषों जैसा बनने का अपना संघर्ष जारी रखा। वो ये भूल गयी की अगर नारी को अपने अधिकारों के लिए पुरषों के जैसा बनने की आवश्यकता महसूस हो रही है तो नारीवाद एक बार फिर से विफल हो गया।
नारी सशक्तिकरण तब तक संभव नहीं है जब तक:-
–>वैश्यावृति को नारी सशक्तिकरण की परिभाषा में शामिल किया जाता रहेगा,
–>जब तक नारीवादी ये तर्क देते रहेंगे के शादी से बहार शारीरिक सम्बन्ध बनाना नारी का अधिकार है,
–>जब तक एक धर्म विशेष में पुरुष को क़ानूनी रूप से 3 शादियाँ करने का अधिकार रहेगा, और उस शादी को निरस्त करने का अधिकार भी पुरुष के पास रहेगा,
–>जब तक हर मंदिर में औरोतों को जाने का अधिकार नहीं मिल जाता,
–>जब तक “बेटे द्वारा मुखाग्नि दिए बिना पिता की सद्गति नहीं होती” वाला संस्कार खत्म नहीं हो जाता,
–>जब तक सास बहु में दुश्मनी रहेगी,
–>जब तक एक माँ स्वयं कन्या भ्रूण हत्या में भागीदार रहेगी,
–>जब तक सक्षम महिलाऐं बस या रेलगाड़ियों में किसी बीमार/प्रोढ़ पुरुष से भी सीट छोड़ने के लिए कहना अपना अधिकार समझती रहेंगी,
–>जब तक पुरुष अपने जीवन साथी का चुनाव केवल उसकी सुन्दरता को देख कर करते रहेंगे,
–>जब तक लड़कियां अपने जीवन साथी का चुनाव उसकी आमदनी देख कर करती रहेंगी,
–>जब तक माँ बनने के अपने दैवीय आशीर्वाद को महिलाऐं अपने पाँव की बेड़िया समझती रहेंगी,
–>जब तक महिलाये पुरुष में एक मित्र/साथी की बजाय एक पालनहारा या सुरक्षा गार्ड देखती रहेंगी तब तक….
तब तक महिला सशक्तिकरण नहीं हो सकता।
भारतीय सोच की नारीवादी लेखिका मधु किश्वर ने कहा है की पाश्चात्य नारीवाद भारत में कामयाब नहीं हो सकता। पाश्चात्य नारीवादी महिलाएँ जहाँ माँ बनने को अपने करियर की बाधा मानती हैं वहीँ भारतीय महिलाएँ इसे अपनी शक्ति का साधन मानती हैं। पाश्चात्य नारीवाद का तर्क कि महिला पुरषों के बराबर है का अर्थ है की 1 + 1 = 2, यानि के एक पुरुष और एक महिला मिलकर दो व्यक्ति होते हैं। जबकि हिन्दू दर्शनशास्त्र कहता है की जब एक पुरुष और एक महिला मिल जाते हैं तब जाकर समाज की एक इकाई पूर्ण होती है। शिव का अर्धनारीश्वर रूप इसी सनातन सोच को दर्शाता है।
आज महिला दिवस पर अपनी माँ, बेटी, बहन को ये ना बताएं के वो आपके जीवन में कितना महत्व रखती हैं बल्कि बताएं की वो और आप परस्पर अनन्य (mutually exclusive) हैं।
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