कोटा देश की आत्महत्या राजधानी क्यूँ बन गयी है?

कोटा

कल शाम को कानपुर की कोचिंग नगरी काकादेव इलाके से गुज़रा और IIT परीक्षा में उत्तीर्ण हुए छात्रो का नाम बड़े बड़े पोस्टर्स और बैनर्स पर देखा। अच्छा लगा। फिर घर आया और किसी टीवी चैनल पर कोटा को देश की आत्महत्या राजधानी के तौर पर संबोधित होता पाया।
कोटा राजस्थान का शहर मात्र नहीं हैं बल्कि IIT और मेडिकल प्रवेश परीक्षाओ का गढ़ माना जाता हैं। पूरे देश से बच्चे IIT में दाखिले के लिए कोटा में अपने घर से दूर रह कर पढ़ाई करते हैं ताकि ज़िन्दगी में कुछ बन सके। पिछले 5 सालो में 72 बच्चों ने आत्महत्या करली जिनमें से 30 ने 2015 में की। हम जल्दीबाज़ी में इसे बच्चों के ऊपर उनके अभिभावको की अपेक्षाओं का भार बता कर अपनी कन्नी काट लेते हैं।
लेकिन क्या यह सब सिर्फ इस अपेक्षा के बोझ के कारण हो रहा हैं? जवाब हैं नहीं बिलकुल नहीं। हर अभिभावक यही चाहता हैं की उसकी औलाद उससे ज़्यादा सुखी जीवन बिताये और अपने जीते जी वह उसे एक स्थापित जीवन देकर जाए।
यह स्थापित जीवन कैसे आये? बच्चे को डॉक्टर या इंजीनियर बनाइये। कहाँ बनाइये और कैसे बनाइये? कोटा में बनाइये और कोचिंग में बनाइये।
पर क्या स्थापित जीवन सिर्फ डॉक्टर या इंजीनियर ही व्यतीत करते हैं या कर सकते हैं? क्या वकील, कलाकार,गायक, खिलाड़ी आदि इत्यादि स्थापित और सम्मानित जीवन नहीं जी सकते?
यही हमारी साम्यवादी सोच धोखा दे जाती हैं। 69 वर्ष में हमने इतने उद्योग लगाये ही नहीं की डॉक्टर और इंजीनियर के अलावा किसी और पेशे को विकसित कर सके।
न इतना प्रयोज्य धन की डॉक्टर के सिवा किसी और पेशेवर की सेवा ले सके। तो भला 1 आर्किटेक्ट, 1 वकील, 1 चित्रकार अपनी सेवा देगा भी तो किसे देगा? जब आपके पास इतना पैसे ही नही की आप 1आर्किटेक्ट को पैसे देकर घर का नक्शा बनवाये तो भला कोई आर्किटेक्ट क्यों बने?
69 वर्षो के कम्युनिस्ट शासन ने यह तामील कर दिया की कोई भी इंसान किराने की दूकान से आगे बढ़ न सके अगर उसका मन खुद का उद्योग खोलने का हैं। कानून पे कानून, ट्रेड यूनियन, गैर ज़रूरी लाइसेंस, इंस्पेक्टर राज,प्रदूषण नियंत्रण, पर्यावरण आदि इत्यादि ने सुनिश्चित किया की देश में कुछ 25-30 बड़े घरानो से ज़्यादा व्यवस्थित उत्पादन के क्षेत्र में अपना एकाधिकार बनाये रखे। जब आगे बढे के निजी उद्यम को इतना जटिल बना देंगे तो आगे बढ़ने के लिए क्या बचेगा? मेडिकल या इंजीनियरिंग।
अकेले कोटा में पढ़ने वाले बच्चों की गिनती सभी IIT, NIT,IISC और मेडिकल कॉलेज में उपलब्ध सीट की गिनती से कही ज़्यादा हैं। 1 अनार, हजार बीमार। नतीजा अगर आप अर्श पे नहीं तो सीधे फर्श पे।

बच्चे अपने कंधो पे आई इस ज़िम्मेदारी को बखूबी समझते हैं, की उनको कोटा भेजने के लिए उनके माँ-बाप कितनी कठिन तपस्या कर रहे हैं।

IIT से नीचे इंजीनियरिंग भी बेमानी मानी जाती हैं। वजह यह की जो नौकरी मिलती हैं वो सुरक्षा नहीं दिला सकती। इतने इंजीनियर हैं बाजार में की इंजीनियर अपने तनखा को लेकर अधिक मोल भाव भी नहीं कर सकता।
वही दूसरी ओर कॉल सेंटर क्रांति के उपरांत इंजीनियर और कॉमर्स ग्रेजुएट के बीच का अंतर और कम हो गया।
अब आते हैं कोचिंग पर, 69 सालो के समाजवाद ने हमारी शिक्षा प्रणाली को शत प्रतिशत लकवा ग्रस्त कर दिया। इस कदर की आज बच्चे इतिहास के भी ट्यूशन लेते हैं। ट्यूशन पहली कक्षा से शुरू हो जाता हैं और मरते दम तक चलता हैं।आठवी से NTSE, प्री IIT फाउंडेशन कोर्स के नाम पर पैसे ऐठने चालू हो जाते हैं।
हमारे नेतागण भी बहुत कुछ सोच नहीं पाते। IIT से निवेदन करते हैं की पेपर सरल बनाये। अरे भाई यह कठिन प्रश्न पत्र की बात नहीं बल्कि कठिन प्रतिस्पर्धा की बात हैं जो बच्चों को लील रही हैं या कोचिंग को बढ़ावा दे रही हैं।आप इस प्रतिस्पर्धा को कम करिये। भिन्न पेशो को बढ़ावा दीजिये।
निजी उद्यम और उपक्रमों को बढाइये। IIT-मेडिकल के बाहर की दुनिया दिखाइए और इस संकीर्ण समाजवादी सोच को किनारे लगाइये। यह आज का युवा हैं जो कल का भविष्य हैं, उसे उसका भविष्य देखने दीजिये , एक ऐसा भविष्य जिसमें वो अपने पसंद का पेशा चुने ना की मजबूरी का।

http://www.bbc.com/hindi/india/2015/06/150619_kota_coaching_problem_tk

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