आखिर क्यों किया सेना ने तुर्की में तख्ता-पलट का प्रयास?

तुर्की

आज सुबह जब भारत उठा तो पहली खबर मिली कि एक लोकतांत्रिक देश तुर्की वहां की सेना के कब्जे में चल गया है। तुर्की के प्रधानमंत्री श्री बिनाली यिल्दिरिम ने भी तख्ता पलट की कौशिश की पुष्टि की है। संभवतः अभी तख्ता पलट पूर्णतया सफल नहीं हो पाया है क्योंकि तुर्की के मौजूदा राष्ट्रपति ‘रेसेप तय्यिप एरडोगन’ और सेना दोनों देश पर अपनी सत्ता होने का दम भर रहे हैं।

परन्तु जब से सेना ने तख्ता पलट की घोषणा की है देश में चारों ओर डर और दहशत का माहौल बना हुआ है। CNN के तुर्की स्टूडियो में भी सेना घुस आई और वहां के स्टाफ को बन्दुक की नौक पर बाहर जाने का आदेश दिया गया। इस्तांबुल हवाई अड्डे के बाहर सेना के टैंक तैनात हो गए हैं और जेट हवाई जाहज राजधानी में नीची उड़न भर आम जनता को आर्मी के ताकत का अहसास दिला रहे हैं।

शहर में कर्फ्यू लगा दिया गया है और सैन्य कानून (Martial law) लागू कर दिया गया है। इन्टरनेट को भी ब्लाक कर दिया गया है। सरकारी समाचार तंत्र पर अभी रोक लगा दी गई है इसीलिए खबरे पुख्ता रूप से बाहर नहीं आ रही हैं। परन्तु कुछ दृश्य जो निजी चैनल्स से आ रहे हैं उनके मुताबिक सड़कों पर सेना और तख्ता पलट का वोरोध कर रही जनता के बीच टकराव हो रहा है। लोग “Army get out” और “no for the coup” के नारे लगा रहे हैं। अंकारा से पार्लियामेंट में बम फटने की खबर भी आ रही हैं।

यह तख्ता पलट की कोशिश कामयाब नहीं हो पायी परंतु इस खबर ने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में तुर्की के प्रति एक अविश्वास पैदा कर दिया है। लम्बे समय से यूरोपियन सदस्यता की इच्छा रखने वाले तुर्की को इस हरकत से एक बड़ा झटका लगेगा। 1924 में उस्समान खलिफत (Ottoman Caliphate) की समाप्ति के बाद ‘मुस्तफा कमल अतातुर्क’ ने अपने लिबरल और धर्मनिरपेक्ष विचारों के दम पर एक इस्लामिक राष्ट्र तुर्की को सांस्कृतिक व राजनीतिक रूप से पश्चिमी देशों के समकक्ष ला कर खड़ा कर दिया। वर्तमान में सत्ता में स्थापित Justice and Development उर्फ़ AK पार्टी पर सिद्धान्तिक रूप से इस्लामीयत की और झुके होने का आरोप लगता आया है।

2013 में जब एरडोगन प्रधानमंत्री थे तब US निवासी इस्लामी उलेमा ‘फेथुल्लाह गुलेन’ के नेतृत्व में जनता ने सरकार के खिलाफ एक जोरदार विरोध प्रदर्शन किया था। तब एरडोगन ने इसका जवाब बड़ी सख्ती से दिया था। उसके बाद मार्च 2015 में भी एक तख्ता पलट की कोशिश हुई थी जो की नाकामयाब हुई। वर्तमान राष्ट्रपति एरडोगन को वहां की कुछ जनता पश्चिमी देशों के हाथों का कठपुतली मानती हैं क्योंकि पश्चिमी देशों द्वारा उन्हें एक मजबूत समर्थन हांसिल है।

हालाँकि तुर्की सेना की छवि एक सेक्युलर और लिबरल सेना के रूप में है और उसके इस कदम को देश में कट्टरवादी इस्लाम के बढ़ते प्रभाव के विरोध के रूप में भी देखा जा सकता है परंतु ऐतिहासिक रूप से एक आधुनिक व तरक्की पसंद देश के लिए ऐसा घटना क्रम एक बड़ा झटका है।

केंद्र सरकार दावा कर रही है कि पहले की ही तरह इस बार भी तख्ता-पलट का यह प्रयास विफल हो गया है। फिर भी ‘अरब स्प्रिंग’ की शुरुवात करने वाले तुर्की से आई यह खबर आश्चर्यचकित करने वाली है।

एक बार पुनः अंतराष्ट्रीय समुदाय में इस्लाम बाहुल्य देशों की लोकतांत्रिक विश्वश्नियता पर संदेह गहरा गया है। क्योंकि समस्त इस्लामिक देशों में तुर्की ही था जो एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक सरकार को लम्बे समय से सफलतापूर्वक चला पा रहा था। तुर्की की आम जनता के मन में लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति गहरा सम्मान है। उम्मीद है कि एरडोगन से नफरत करने वाले लोग भी सेना के इस कदम का साथ नहीं देंगे।

आशा करते हैं कि इस राजनितिक उठा-पटक का जल्दी से निवारण होगा। यूरोप और एशिया महाद्वीप के बीच की इस महत्वपूर्ण कड़ी का राजनीतिक रूप से स्थिर होना अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के लिए बड़ा आवश्यक है।

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