क्रांति की अपनी एक अलग परिभाषा थी भगत सिंह की

इंक़लाब भगत सिंह

लिख रहा हूँ मैं अंजाम जिसका कल आग़ाज आयेगा, मेरे लहू का हर एक कतरा इंक़लाब लायेगा।
मैं रहूँ या न रहूँ पर यह वादा हैं तुमसे मेरा, कि मेरे बाद वतन पे मरने वालों का सैलाब आयेगा।।
भगत सिंह

इंक़लाब ज़िंदाबाद। बिल्कुल यहीं नारा था जब 22 वर्ष के एक क्रांतिकारी नौजवान ने ब्रिटिश असेम्बली में बम फेंकने के बाद लगाया था। ‘इंक़लाब ज़िंदाबाद- साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’ के नारे के साथ बम फेंकने बाद भी वह कहीं भागा नहीं, अपनी जगह पर अडिग खड़ा रहा। वह चाहता तो भीड़ की अफरा-तफरी में भाग जाता, लेकिन वह भगौड़ा नहीं क्रन्तिकारी था, वह ‘सरदार भगत सिंह’ था। वह मात्र एक आवाज़ी बम था, जिससे किसी की भी जान की हानि नहीं हुई थी। वह बम मात्र एक आव्हान था, एक गुस्सा था, एक इंक़लाब था। आवाज़ वाले बम फेंकने की वजह बताते हुये उन्होंने कहा था –

“यदि बहरों को सुनाना है तो आवाज़ को बहुत जोरदार करना होगा। जब हमने बम गिराया तो हमारा ध्येय किसी को मारना नहीं था। हमने अंग्रेजी हुकूमत पर बम गिराया था। अंग्रेजों को भारत छोड़ना चाहिए और उसे आज़ाद करना चहिये।”

इंक़लाब जिसका अर्थ होता हैं ‘क्रांति’ और इंक़लाब ज़िंदाबाद का अर्थ होता हैं ‘क्रांति की जय’। लेकिन भगत सिंह ने कहा था –
‘किसी को “क्रांति” या “इंक़लाब” शब्द की व्याख्या शाब्दिक अर्थ में नहीं करनी चाहिए। जो लोग इस शब्द का उपयोग या दुरूपयोग करते हैं, उनके फायदे के हिसाब से इसे अलग अलग अर्थ और अभिप्राय दिए जाते है।” यह बात तब भी शाश्वत सत्य थी और आज भी यथार्थ हैं।’ जो क़ि भगत सिंह के कथन ” मैं यथार्थवादी हूँ” का भी परिचायक हैं।

भगत सिंह का जन्म लायलपुर, पंजाब प्रान्त (अब पाकिस्तान) में 28 सितम्बर 1907 में हुआ था। भगत सिंह के पिता ‘सरदार किशन सिंह’ एवं उनके दो चाचा ‘अजीतसिंह’ तथा ‘स्वर्णसिंह’ अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ होने के कारण जेल में बन्द थे। जिस दिन भगत सिंह पैदा हुए उनके पिता एवं चाचा को जेल से रिहा किया गया था। घर में देशभक्ति के माहौल ने उन्हें खासा प्रभावित किया था। लेकिन इसी बीच जलियांवाला बाग़ की पुरे देश को झकझोर कर देने वाली अंग्रेजों का क्रूर कृत्य जिसने भगत सिंह के अंदर इंक़लाब की भावना ला दी। इसी घटना के बाद से उन्होंने अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करने का निश्चय किया था। लाल लाजपत राय द्वारा स्थापित लाहौर नेशनल कॉलेज में दाखिला लेने के बाद उनका संपर्क सुखदेव तथा अन्य क्रांतिकारियों से हुआ। बाद में लाला साहब की हत्या का बदला सुखदेव, राजगुरु और भगत सिंह ने अंग्रेजी हुकूमत के सांडर्स को मार कर पूरा किया।

भगत सिंह के साथ सदैव 2 अन्य क्रांतिकारियों का भी नाम जुड़ता हैं। असेम्बली में बम फेंकने की वजह से चले केस के बीच में सांडर्स हत्या का केस भी शुरू हुआ था। जिसमें भगत सिंह के अलावा दो अन्य अभियुक्त भी थे, ‘सुखदेव’ थापर और शिवराम हरी ‘राजगुरु’।

सुखदेव गांधी जी से प्रभावित थे लेकिन बाद में अंग्रेजी शासन द्वारा भारतियों पर हो रहे क्रूरता पूर्वक रवैये के बाद भी उनके अत्यधिक अहिंसात्मक और क्रांतिकारियों के प्रति द्वेष की भावना के चलते उन्होंने गांधी जी की आलोचना करते हुये उन्हें एक पत्र लिखा था –

“आपने अपने समझौते के बाद अपना सविनय अवज्ञा आन्दोलन वापस ले लिया है और फलस्वरूप आपके सभी बंदियों को रिहा कर दिया गया है, पर क्रांतिकारी बंदियों का क्या हुआ ? 1915 से जेलों में बंद गदर पार्टी के दर्जनों क्रांतिकारी अब तक वहीं सड़ रहे हैं। बावजूद इस बात के कि वे अपनी सजा पूरी कर चुके हैं। मार्शल लॉ के तहत बन्दी बनाए गए अनेक लोग अब तक जीवित दफनाए गए से पड़े हैं। बब्बर अकालियों का भी यही हाल है। देवगढ़, काकोरी, महुआ बाज़ार और लाहौर षड्यंत्र केस के बंदी भी अन्य बंदियों के साथ जेलों में बंद है। एक दर्जन से अधिक बन्दी सचमुच फांसी के फंदों के इन्तजार में हैं। इन सबके बारे में क्या हुआ ? भावुकता के आधार पर ऐसी अपीलें करना, जिनसे उनमें पस्त-हिम्मती फैले, नितांत अविवेकपूर्ण और क्रांति विरोधी काम है। यह तो क्रांतिकारियों को कुचलने में सीधे सरकार की सहायता करना होगा।”

सुखदेव यह पत्र अपने कारावास के काल में लिखा। गांधी जी ने इस पत्र को उनके बलिदान के एक मास बाद 23 अप्रैल, 1931 को ‘यंग इंडिया’ में छापा।

इंक़लाब ज़िंदाबाद के नारों के साथ इनकी क्रांति शुरू हुई थी जो क़ि एक साथ 23 मार्च 1931 को ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ गाते हुए आज़ादी के इन दीवानों को अंग्रेजी हुकुमत ने फाँसी का दंड देते हुये ‘शहीद’ कर दिया।

अपनी शहादत से पहले भगत सिंह ने अपने इंक़लाब के स्वर में कहा था – ‘आप व्यक्ति को मार सकते हैं, सोच को नहीं।’

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