आज से ठीक एक सौ साठ साल पहले, हमारे देश ने ना बोलना सीखा था

मंगल पाण्डेय

मंगल पाण्डेय एक महान देशभक्त की कहानी

हम कब आज़ाद हुये?
15 अगस्त 1947
हमारी आज़ादी कि जंग कब शुरू हुयी?
थोड़ा सोचते हुये, हम्म…..1857
ये जंग किसने शुरू की?

शायद इसका कोई ठोस और त्वरित उत्तर न मिले, क्योंकि कारण भी बहुत थे, और आज़ादी के जंग कि नींव डालने वाले सिपाही भी। पर जिस आदमी ने 1857 के तेजस्वी क्रांति की चिंगारी को दियासलाई लगाने का कार्य किया, 160 वर्ष बाद भी आज उनका महत्व वही है, जो उस समय के क्रांतिकारियों के मन में इस ओजस्वी मनुष्य के प्रति होता था। किसे पता था कि बलिया जिले के नागवा गाँव का एक छोटा सा सिपाही क्रांति कि वो अलख जगाएगा, जो कभी न अस्त होने वाले ब्रिटिश साम्राज्य के सूर्य का सूर्यास्त सिद्ध करने में कारगर होगा। किसे पता था कि भारत की आज़ादी कि जोत जलाने वालों में सबसे पहले बंगाल नेटिव इंफेंटरी के सिपाही, मंगल पाण्डेय का नाम लिया जाएगा?

मंगल पाण्डेय की हमारे इतिहास में क्या अहमियत है?

बृहस्पतिवार, 19 जुलाई 1827, को उत्तर प्रदेश [तब अवध] राज्य के बलिया जिले के नागवा गाँव में मंगल पाण्डेय का जन्म हुआ। इनके बचपन के बारे में ज़्यादा सूचना उपलब्ध नहीं है, पर इतना ज़रूर पता है की 1849 में, महज 22 साल की उम्र में इनकी भर्ती तत्कालीन ईस्ट इंडिया कंपनी में बंगाल नेटिव इंफेंटरी में बतौर सिपाही हुयी थी। तब आधे से ज़्यादा भारत ईस्ट इंडिया कंपनी के दबदबे में जकड़ा जा चुका था, और धीरे धीरे ही सही, पर गोरों के खिलाफ बगावत की हवा बहने लगी थी।

हालांकि तब तक ईस्ट इंडिया कंपनी के छल और प्रपंच का कोई ठोस जवाब नहीं था भारतीय राजाओं और उनके प्रजाओं के पास। गोरों से लड़ने के कारण तो बहुत थे, पर उन्हे एकत्रित कर एक ठोस आधार देने वाला कोई नायक नहीं था। अंग्रेजों के पाप का घड़ा भर ज़रूर रहा था, पर उसे तोड़ने लायक कोई घटना उत्पन्न नहीं हो रही थी, की अचानक 1857 का साल वो दियासलाई ले आया, जिसने 1857 के क्रांति की चिंगारी को आग में परिवर्तित कर दिया, और जिसमें मंगल पाण्डेय की मुख्य भूमिका भी रही थी।

दरअसल वो दियासलाई कुछ और नहीं, एक ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा उतारा गया नया शस्त्र, एनफ़ील्ड मैचलॉक मस्केट राइफल थी। इसे 1856 के मध्य में कंपनी की फौज में परिचित कराया गया। इस शस्त्र में कागज़ युक्त कारतूस लगता था, जिसे दाँत से काटकर बंदूक की गोली और उसका बारूद मस्केट में डालना होता था। उसे फिर सरिया से अंदर ठूंस कर, निशाना साध कर गोली चलनी पड़ती थी। जिस कागज़ के टुकड़े को दाँत से काट कर फेंकना होता था, ताकि कारतूस की गोली और बारूद राइफल में जा सके, उसे  अफवाहों के अनुसार गाय और सूअर की चर्बी का लेप लगाया जाता था।

अब गाय हिन्दू सैनिकों और अन्य हिन्दू संप्रदाय के लिए माता समान थी, जब की सूअर को खाना तो छोड़िए, छूना तक मुसलमानों के लिए हराम था। ऐसे में गोरे अफसरों का इनकी आस्था के साथ किया गया खिलवाड़ वो कैसे बर्दाश्त करते? कई जगह इसका पुरजोर विरोध हुआ, पर या तो महज़ दिलासा देकर, या फिर दंडात्मक कारवाई कर के इस विरोध को दबा दिया गया। पर एक दिन सब्र का ये अथाह बांध आखिरकार टूट पड़ा।

वो दिन था रविवार, 29 मार्च 1857,आज से ठीक एक सौ साठ साल पहले, जब हमारे देश ने ना बोलना सीखा था। कलकत्ता शहर के बैरकपुर जिले में 34वें बंगाल नेटिव इंफेंटरी के मुख्य कार्यालय के आस पास सरगर्मी बढ्ने लगी। तत्कालीन सार्जेंट मेजर हेव्सोन [भारत में पूर्व उपाधि कंपनी हवलदार मेजर के समान ब्रिटिश उपाधि सेना के लिए] को कुछ चाटुकारों ने आगाह किया की मंगल पाण्डेय कई अन्य साथियों को गार्ड रूम के समक्ष परेड ग्राउंड में संबोधित कर रहा है। घटनास्थल पर पहुँचने पर हेव्सोन का सामना हुआ मंगल पाण्डेय से, जिसने एनफ़ील्ड राइफल में प्रयुक्त कारतूस का इस्तेमाल करने का पुरजोर विरोध किया। हालांकि जब सार्जेंट मेजर हेव्सोन ने उसकी बात अनसुनी कर उसकी वर्दी और हथियार छीनने को आगे बढ़ा, तो मंगल पाण्डेय ने बगावत का ऐलान करते हुये उनपर कातिलाना हमला कर दिया।

हालांकि सार्जेंट मेजर हेव्सोन मरे नहीं, पर गंभीर रूप से घायल ज़रूर हुये। अपने एड्जुटंट, लेफ्टिनेंट बौ को आगाह करते हुये हेव्सोन किसी तरह बच निकालने में कामयाब हुये। लेकिन लेफ्टिनेंट बौ ने बजाए समझदारी से काम लेने के अकड़ दिखनी ज़्यादा उचित समझी। पलटन के जमादार [आज के संदर्भ में नाइब सूबेदार] ईश्वरी प्रसाद को मंगल पाण्डेय को रोकने का हुक्म दिया, जिसे ईश्वरी ने सिरे से ठुकरा कर अपनी देशभक्ति का अटूट उदाहरण दिया। वे चाहते तो मंगल पाण्डेय और उनके बागी साथियों को रोक सकते थे, पर उन्होने अपने अंतरात्मा की आवाज़ सुनी, और गुलामी के इस कलंक को अपने स्तर पे मिटाने की कोशिश की।

और पढ़े : देशभक्त बटुकेश्वर दत्त: शहीद भगत सिंह के साथ आज़ादी की लड़ाई लड़ी, फिर भी इन्हें भुला दिया गया

भीषण युद्ध के बाद लेफ्टिनेंट बौ को तलवार की धार से मंगल पाण्डेय ने मार गिराया। एक चाटुकार सिपाही, शेख पालतू ने मंगल को रोकने की काफी कोशिश की, परंतु मंगल के साथियों का जोशीला व्यवहार शेख पालतू के ऊपर भारी पड़ गया। इतने में जनरल हेयरसे सहित बाकी की रेजीमेन्ट भी घटनास्थल पे पहुँच चुकी थी। हालांकि मंगल पाण्डेय ने तब भी एक और ब्रिटिश अफसर को मार गिराया, पर अकेला चना कब तक भाड़ फोड़ता? अपने आप को घिरता देख कर मंगल पाण्डेय ने अपनी राइफल से अपने छाती पर गोली चला कर वीरगति को प्राप्त करने की कोशिश की, पर गोली उन्हे मार नहीं पायी।

उपचार के बाद मंगल पांडे पर कंपनी ने कोर्ट मार्शल किया, जिसके तहत वो दोषी पाये गए, और उन्हे और जमादार ईश्वरी प्रसाद को फांसी पर चढ़ाने का फैसला सुना दिया गया। साथ ही साथ पूरी 34वीं बंगाल नेटिव इंफेंटरी भी निरस्त कर दी गयी।

मंगल पांडे को बैरकपुर में ही बुधवार, 8 अप्रैल 1857 को फांसी पर लटका दिया गया, और ईश्वरी प्रसाद को 21 अप्रैल को भी इसी प्रकार वीरगति प्राप्त हुयी। लेकिन जिस आंदोलन की आग को ईस्ट इंडिया कंपनी बुझाना चाहती थी, उसे मंगल पांडे की वीरगति ने और बढ़ा दिया, और जिसका परिणाम 10 मई 1857 को, जैसे महान क्रांतिकारी और राष्ट्रवादी श्री विनायक दामोदर सावरकर ने उचित रूप से कहा था, स्वतन्त्रता के प्रथम संग्राम की शुरुआत हो चुकी थी, जिसका गवाह मेरठ की सुदूर भूमि है।

और पढ़े : क्रांति की अपनी एक अलग परिभाषा थी भगत सिंह की

आज, 160 वर्ष बाद, मंगल पाण्डेय की हमारे इतिहास में क्या अहमियत है? यूं तो भारत को आज़ाद कराने में कई योद्धाओं और वीरांगनाओं ने कुर्बानियाँ दी है, पर अगर किसी ने उन्हे प्रेरित किया, अगर किसी ने सबसे पहले भारत के स्वतन्त्रता के संग्राम का बिगुल फूंका, तो वो सिर्फ एक मनुष्य है, और वो है, मंगल पाण्डेय। अगर इनहोने अपने जान की बाज़ी लगा कर, स्वतन्त्रता की अलख न जगाई होती, तो पता नहीं क्या होता।

 

Exit mobile version