हाल ही में हफिंगटन पोस्ट नाम के एक विख्यात मीडिया हॉउस द्वारा औरंगजेब जैसे क्रूर शासक की छवि सुधरने का प्रयास ये कहते हुये देखने को मिला क़ि “औरंगजेब कोई धर्मांध राजा नहीं बल्कि उसके विरोधियो ने औरंगजेब की छवि वैसी बनायीं है”। कमाल का उदारवाद फैला है आज कल देश में, लोग आज कल औरंगजेब को तक नही छोड़ रहे। अरे भाई अपनी खुद की छवि सुधरने का प्रयास तो खुद औरंगजेब ने भी नहीं किया। पर आज के तथाकथित बुद्धिजीवियो को चिंता हो पड़ी है।
अगर औरंगजेब धर्मांध नही था तो वो कौन था जिसने हजारो मन्दिरो को तहस नहस कर दिया, अगर औरंगजेब धर्मांध नही था तो वो कौन था जिसने लाखो हिन्दुओ को जबरन मुसलमान बनाया, अगर औरंगजेब धर्मांध नही था तो वो कौन था जिसने शूरवीर छत्रपति संभाजी माहाराज को मारा था, अगर औरंगजेब धर्मांध नही था तो वो कौन था जिसने सत्ता की लालच में आकर सूफी मत में विश्वास रखने वाले दारा शिकोह का सर कलम करवाया था, अगर औरंगजेब धर्मांध नही था तो चार मासूम लेकिन उतने ही वीर शहजादों की हत्या किसने करवाई ? क्या इन सब के उत्तर है इन बुद्धिजीवियो के पास ?
छत्रपति शिवाजी महाराज और छत्रपति संभाजी महाराज ने अपना पूरा जीवन औरंगजेब और उसके जैसे धर्मांधों से लड़ते हुये बिताया, तो क्या आप औरंगजेब का गुणगान कर शिवाजी माहाराज और संभाजी माहाराज जैसे वीर योद्धाओ पे प्रश्नचिन्ह उपस्थित कर रहे है?
वैसे देखा जाये तो हालिया कुछ सालो में साहित्य और कला का मकसद ही क्रूर लोगो का महिमामंडन कर असल नायको का मजाक बनाना रहे गया है। फिर चाहे वो उपन्यास हो या फिल्में। बाजीराव मस्तानी नाम से पिछले साल एक फ़िल्म प्रदर्शित हुई, उसमे निर्देशक द्वारा पेशवा बाजीराव जैसे वीर योद्धा को जो साल के आठ महीने घोड़े पे बिताता हो उसे प्रेम विरह में पागल हो के तड़प तड़प के मरते हुये दिखाया गया। जबकी उनकी मृत्यु ऊष्माघात से हुई थी।
क्या ये पेशवा बाजीराव का अपमान नही था, कला के नाम पर इतिहास के साथ कैसे खेला जा सकता है?
अभी वही निर्देशक साहब महारानी पद्मिनी पे फ़िल्म बना रहे है। पता नही उसमे क्या दिखाएंगे। कुछ दिन पहले एक और फ़िल्म आई थी “रईस” जो के गुजरात के एक कुख्यात तस्कर और गैंगस्टर “अब्दुल लतीफ” के जीवन पे आधारित है (हलाकि निर्माताओ ने इस बात का खण्डन ये कहते हुये कर दिया था के “इस फ़िल्म के सभी पात्र काल्पनिक है, और इनका किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति से कोई सम्बन्ध नही है, अगर कोई सम्बंध आता है तो वो मात्र एक संयोग होगा”) पर भाई साहब ये पब्लिक है ये सब जानती है। जिसे तत्कालीन सरकार का वरदहस्त प्राप्त था और जिसे वाघेला सरकार आने के बाद एक पुलिस एनकाउंटर में मरना पड़ा था।
छोटा राजन की गैंगस्टर बनने की मजबूरिया दिखाने के लिए कंपनी जैसी फ़िल्म बनायीं गयी, अब तो दाऊद की बहन का महिमामण्डन करने के लिए हसीना नाम की भी फ़िल्म आ रही है, अरुण गवली जैसे कुख्यात गैंगस्टर का महिमामण्डन करने डैडी जैसी फ़िल्म आ रही है। न जाने ऐसी कितनी फिल्म बन चुकी है जिनमे आतंकियों और नक्सलियों की मजबूरिया दिखायी गयी की उन्हें क्यों बन्दुक उठानी पड़ी, पर क्या कोई कश्मीरी पंडितो जितना पीड़ित और मजबूर हो सकता है पर मैंने तो कभी नही सुना के किसी कश्मीरी पंडित ने कभी बंदूक उठाई हो उल्टा हर अच्छे क्षेत्र में उन्होंने अपनी पहचान बनाई है। क्या ये सब नकारात्मक लोग सच में फिल्म बनाने लायक है? क्या इनपे सच मे फिल्म बनानी चाहिए ?