आखिर क्यों बृहन्मुंबई नगरपालिका नें सौ साल पुराने क्रॉस को ढहा दिया?

छद्म धर्मनिरपेक्षता अल्पसंख्यक क्रॉस

धर्मनिरपेक्षता के नाम पर हो रहे अल्पसंख्यक मनौती के पीड़ादायक फैसले ने भारत की जनता का सालों से मानसिक उत्पीड़न किया है। अल्पसंख्यक समुदाय को उनका हक़ देने की मन में ठानकर हमारे संविधान निर्माताओं ने उनके लिए कुछ प्रावधान तय किए थे, पर आज उसी का दुरुपयोग कर हर नेता अपना उल्लू सीधा करने में लगा पड़ा है। प्रांत या देश का विकास गया तेल लेने, छद्म धर्मनिरपेक्षता की आड़ में वोट बैंक को किसी प्रकार की कमी नहीं होनी चाहिए।

पर 2014 से सही, इस घिसी पिटी भारतीय दिनचर्या में सार्थक बदलाव आने लगा। जबसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुर्सी संभाली है, तबसे मानो अल्पसंख्यक तुष्टीकरण पूर्ण राजनीति को ग्रहण लग गया है। विपक्ष और उनके मीडिया में बैठे कुछ लोग चाहे कुछ भी कह ले, अल्पसंख्यक जनसंख्या को दी जाने वाली अनुचित सुविधाओं और बहुसंख्यकों की घोर अनदेखी का ही परिणाम है, कि काफी बड़ी संख्या में भारतीय जनता पार्टी ने देश के महत्वपूर्ण प्रान्तों, विशेषकर उत्तर प्रदेश और पूर्वोत्तर में मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश जैसे राज्यों में भयंकर बहुमत के साथ विजय प्राप्त की है।

हालांकि उनके विजय रथ पर अभी सुकमा, कृष्ण घाटी और पुलवामा के करना आतंकवादी हमलों का धर्मसंकट ज़रूर आ पड़ा है, पर इसका अर्थ ये बिलकुल भी नहीं कि हमारे प्रधानमन्त्री की सरकार इससे निपटने में बिलकुल भी सक्षम नहीं (ये अलग बात है कि इन हमलों से गृह मंत्री राजनाथ सिंह और कार्यवाहक रक्षा मंत्री अरुण जेटली कि कार्यशैली पर बट्टा ज़रूर लगा है।)

केंद्र सरकार द्वारा छद्म धर्मनिरपेक्षता पर तीखे प्रहार कि एक बानगी अभी कुछ ही दिनों पहले महाराष्ट्र कि राजधानी, सपनों कि नगरी मुम्बई में देखने को मिली।

मशहूर इलाके बांद्रा में स्थापित ईसाइयों का कथित रूप से पवित्र क्रॉस, जो बृहन्नमुंबई नगर महापालिका (बीएमसी) के अनुसार जनभूमि (माने पब्लिक लैंड) पर गैरकानूनी तरीके से स्थापित किया गया था, को पिछले शनिवार को ही ध्वस्त कर दिया गया। चौंकाने वाली बात यह है, कि यह विध्वंस करते वक़्त किसी भी अल्पसंख्यक समुदाय का विरोध नहीं दिखा, और न ही बीएमसी के कार्यकर्ताओं ने किसी कि विनती पर ध्यान दिया।

पर विध्वंस तो क्रॉस यानि सूली का हुआ हैं न, मंदिर या गुरुद्वारे का तो हुआ नहीं, कि हमारे छद्म धर्मनिरपेक्षता के प्रवर्तक मौन व्रत धारण कर लेंगे। मौका मिलते ही टूट पड़े। हालांकि पिछली नाकामियों को ध्यान में रखते हुये वे मुखर रूप से कुछ नहीं बोले, पर छिटपुट प्रदर्शनों को अपने लेखों से आग देने में पूरी सहायता की। प्रदर्शनकर्ताओं में से कुछ लोगों, विशेषकर कैथॉलिक ईसाई सभा की सदस्य रीता डीसूज़ा ने ये कहकर विरोध जताया, की वह पवित्र क्रॉस 1895 में स्थापित हुयी थी, और वह निजी भूमि पर स्थापित थी।

हालांकि बीएमसी का तो कुछ और ही कहना था। उनके अनुसार, 2009 में बॉम्बे हाइ कोर्ट के निर्देशानुसार, धर्म के नाम पर बनाई गयी अवैध इमारतों और निर्माणों को ध्वस्त करने का आदेश दिया गया था, जिसके तहत बाज़ार रोड पर स्थित इस क्रॉस को भी अवैध निर्माण की श्रेणी में दाखिल किया गया। चूंकि यह क्रॉस अवैध निर्माणों के तहत 2017 तक लंबित की गयी समयसीमा के पार निकाल चुका था, इसलिए इसका विध्वंस निश्चित था।

हालांकि ऐसा साहसी कार्य बीएमसी ने ही नहीं किया है। यूं तो छद्म धर्मनिरपेक्षता पर इस तरीके के प्रहार की फेहरिस्त तो बड़ी लंबी है, पर ऐसे ठोस कदम अप्रैल 2017 में ज़्यादा साफ रूप से दिखाई पड़े। और इसकी शुरुआत भी हुई तो केरल प्रांत से, जहां ऐसा सोचना भी पाप माना जाता है।

कभी ईश्वर की धरती कहलाई जाने वाली केरल आज वामपंथी सरकार की देखरेख में कैथॉलिक और इस्लामी कट्टरपंथियों के चंगुल में इतनी बुरी तरह फंस चुकी हैं, की वहाँ पर ऐसे गुंडों की गुंडई को खुले आम चुनौती देना हास्यास्पद ही माना जाएगा। पर मुन्नार के जिला कलेक्टर, श्री राम वेंकटरामन ने अवैध कब्जे पर बने विशालकाय धातु के क्रॉस को न सिर्फ नष्ट किया, बल्कि इसका विरोध करने वाले सरकारी मुलाजिमों को खुले आम चुनौती भी दी।

कभी भूमाफिया, तो कभी धर्म के नाम पर आडंबरों में लिप्त हो इन छद्म धर्मनिरपेक्षता और उदारवादियों के ठेकेदारों ने जितना भारत का शोषण किया है, उसके लिए हर अपशब्द और सज़ा कम पड़ेगी। पर इन विध्वंस के फैसलों से धार्मिक ठेकेदारी पर अंकुश लगाने की उम्मीद अब सार्थक होती दिख रही है, और यही आने वाले सुदृढ़ भारत की नींव में स्थापित होगी।

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