जब भी हॉलीवुड ‘ए ब्यूटीफूल माइंड’, या ‘द मैन हू न्यु इन्फ़िनिटि” जैसे यादगार फिल्म बनाते हैं, हमारे मन में एक सवाल आता है:- भारतीय सिनेमा बायोपिक्स बनाने में इतना धीमा क्यूँ है? प्रेम रस की सुंदरता बखान करने से आगे कभी हमारा भारतीय सिनेमा क्यों नहीं बढ़ पाया है?
भारतीय सिनेमा, खासकर हिन्दी सिनेमा, अपने देश के वीरों की गाथाएँ सुनाने का एक उचित माध्यम बनने में काफी असफल रहा है।
जो उद्योग दुनिया में सबसे ज़्यादा फिल्में बनाता हो, वो एक भी ऐसा सिनेमा नहीं बना पाये, जो दुनिया को अपने देश के उच्च विचार और संस्कारों से नतमस्तक करने पे मजबूर कर दे, तो ये तो चुल्लू भर पानी में डूब मरने के बराबर है।
और अगर ऐसी कोई फिल्म है, जिसने अपने नायकों के जीवन को पर्दे पे उतारने की कोशिश की हो, तो उनके उपलब्धियों की पोटली बना कर एक विकिपीडिया पेज के बराबर का ही मसाला परोसा जाता है, उससे आगे कुछ नहीं, जैसा अभी सचिन तेंदुलकर की कथित बायोपिक में हुआ था। इस कथित फिल्म [डौक्यूड्रामा ज़्यादा लग रही थी] में कुछ भी दूर दूर तक विवादास्पद नहीं था। हो सकता है ऐसे किसी भी तथ्य को सामने ला कर निर्देशक और निर्माता उनके कट्टर समर्थकों का क्रोध भी झेल सकते थे, जिसका अंत हमारी सोच से भी परे है।
महान हस्तियों का जीवन हो या इतिहास की एक झलकी हो, ये एक विडम्बना है की क्षेत्रीय सिनेमा को अगर हटा दिया जाये, तो बॉलीवुड ऐसी फिल्मों में प्रेम कथा का जमाल गोटा हमारे दिमाग में मसालेदार तड़के के नाम पर ठूँसना चाहते हैं। चाहे मराठवाडा की शान में चार चंद लगाने वाले वीर पेशवा बाजीराव बालाजी बल्लाड़ को एक नशे में धुत आशिक के तौर पर दिखाना हो, या एक निश्छल ब्राह्मण और स्वतन्त्रता संग्राम के वीर योद्धा, सिपाही मंगल पांडे का एक कथित वेश्या के साथ प्रेम प्रसंग, या फिर आने वाली फिल्म पद्मावती में चित्तौड़ की रानी पद्मिनी और आततायी सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के बीच एक काल्पनिक, पर अश्लील दृश्य दर्शाना हो, ऐसा कोई पाप नहीं, जो बॉलीवुड ने इतिहास दिखाने के नाम पर न किया हो।
इससे ज़्यादा दुखदायी तो यह है, की जिसने भी सच्चे इतिहास को दिखाने का प्रयास मात्र भी किया, उसे सिरे, और बदकिस्मती से हमारी जनता ने नकार दिया। जो हश्र राजकुमार संतोषी के ‘दि लेजेंड ऑफ भगत सिंह’, और नवोदित निर्देशक बेदाब्रता पाइन के 1930 के महान चटोग्राम क्रांति को समर्पित ‘चटगाँव’ के साथ हुआ है, वो किसी से नहीं छुपा है। शायद इसीलिए हमारे फिल्म निर्माता और निर्देशक ऐसे विषयों पर जोखिम लेने से बचते हैं [ये अलग बात है की 1971 युद्ध पर ‘द ग़ाज़ी अटैक’ और पूर्व एथ्लीट और बागी, सूबेदार “पान सिंह तोमर” पर बनी उनकी जीवनी इसके अपवाद भी रहे हैं]
ऐसे नौटंकियों से न सिर्फ फिल्म की अंदरूनी ताकत छूमंतर हो जाती है, बल्कि फिल्म के मूल उद्देश्य को ही मिटा देती है, क्योंकि जो अलाउद्दीन खिलजी अपने लालच में अपने खुद के सगे मामा का सत्ता के लिए कत्ल कर सकता था, जो इतना चालाक था की रानी पद्मिनी के पति, राणा रावल रत्न सिंह को खुले मैदान में लड़ कर नहीं, बल्कि छल से किले के बाहर ले जा कर बंदी बनाया, वो और कुछ भी हो जाए, एक प्रेम में डूबा आशिक नहीं हो सकता।
पर जिस तरह संजय लीला भंसाली इस खलनायक का महिमामंडन करना चाहते है [और शायद कथा लीक होने पर इसके लिए पिटे भी], शायद वही वजह थी की क्यों नवोदित निर्देशक ओमंग कुमार ने बजाए पूर्वोत्तर क्षेत्र के किसी नामी अभिनेत्री [जो इस फिल्म में सच्चाई ला सकती थी] के बजाए प्रसिद्ध मुक्केबाज़ एम सी मेरीकॉम पर बायोपिक के लिए प्रियंका चोपड़ा को चुना। उन्हे पूर्वोत्तर की छोरी दिखाने के लिए लगाया गया घटिया मेकअप भी दर्शकों को रिझाने में नाकाम रहा। अब इन कंजरों को कौन समझाये की जैसे एक श्वेत नेल्सन मंडेला, या एक हृष्ट पुष्ट विंस्टन चर्चिल नहीं हो सकता, पूर्वोत्तर से आई विश्व चैम्पियन बॉक्सर मेरीकॉम का पर्दे पर चित्रण करने के लिए आप किसी चमकते दमकते पंजाबी मूल के सितारे को नहीं ले सकते। सौ की सीधी एक बात।
अरे भाई, ये तो कुछ भी नहीं है। हमारे देश के गद्दारों और अपराधियों का जो महिमामंडन बॉलीवुड करता है, उसका सानी तो दुनिया में सबका बाप हॉलीवुड भी नहीं है। अपूर्व लाखिया की ही फिल्मों को देख लीजिये, दिखाते तो ऐसे हैं जैसे माया डोलास, मानया सुरवे, और दाऊद इब्रहीम तो मानो सद्भावना की मूर्ति थे, जिन्हे क्रूर शासन ने हथियार उठा कर तांडव करने पे मजबूर कर दिया । चाहे वो अब्दुल लतीफ़ की वीर गाथा ‘रईस’ हो, या यासीन मालिक और बाकी कश्मीरी पंडितों के कातिलों का गुणगान करती ‘लम्हा’, या फिर कभी मुंबई को आतंकित करने वाली बीआरए गैंग के मुखिया, अरुण गवली, बॉलीवुड ने इन लोगों को तो सिर पर चढ़ा के रखा हुआ है। ऐसे ही चलता रहा, तो आश्चर्य नहीं, अगर कल बुरहान वानी की भी वीर गाथा आपको देखने को मिले।
पर इतना ज्ञान बांटने का सार क्या? खबर है की प्रसिद्ध निर्देशक मधुर भंडारकर की आने वाली फिल्म ‘इन्दु सरकार’ आपातकाल के काले दिनों के दबे इतिहास को पर्दे पर जीवित करना चाहती है, जिसकी पुष्टि काफी हद तक उनकी फिल्म के ट्रेलर ने ही कर दी है। प्रोमो में दिखाया गया है की कैसे संजय गांधी, जिसका सफल रूपान्तरण अभिनेता नील नितिन मुकेश ने किया है, अपने पार्टी के कैडरों और चापलूसों को नसबंदी और झुग्गी झोपड़ियों के विध्वंस के नए लक्ष्य उन्हे सौंप रहे हैं। भाई, अभी तो पूरी फिल्म भी नहीं आई है, पर अभी से काँग्रेस के खेमे में खलबली मची हुई है। नहीं तो क्या वजह हो सकती है की काँग्रेस के अहम नेता, ज्योतिरादित्य सिंधिया, इससे संघियों की चाल बताए और इससे डर कर थर थर काँपने लगे?
इसके अलावा तो यह भी चर्चा गरम है, की अनुपम खेर संजय बारू की विवादास्पद किताब ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ के फिल्मी रूपान्तरण में विवादास्पद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का अभिनय करने जा रहे हैं। अगर फिल्म की पटकथा किताब के अनुसार रही, तो कई लोगों को हमारे देश में सत्ता का गलत बंटवारा और पीएम के पद का घोर अपमान अपनी आँखों के सामने चलता हुआ दिखेगा, जो कभी सत्ता में रह चुकी देशद्रोही काँग्रेस और उनके चाटुकारों की टोली कभी नहीं चाहेगी की हो। समझे बाबू?
सौ की सीधी एक बात, ये दोनों फिल्म बॉलीवुड में स्थापित परम्पराओं के विरुद्ध जा ऐसे हस्तियों के अनछुए पहलू दिखाएगी, जिसके बारे में बोलना भी कुछ लोगों के लिए पाप है।
कुछ हद तक बॉलीवुड ने जवाहरलाल नेहरू और महात्मा गांधी का ज़रूरत से ज़्यादा महिमामंडन किया है, मानो हमें आज़ादी इन्ही दोनों ने दिलाई थी। हमने कभी अपने स्वतन्त्रता सेनानियों पर बायोपिक्स बनाने की नहीं सोची, जबकि उनमें कुछ ऐसे भी थे, जिनके ऊपर बॉलीवुड की ही शब्दावली में, कई पैसा वसूल फिल्में बन सकती थी, मसलन चन्द्र शेखर आज़ाद पे ही एक बना के देख लेते। अपने स्वतन्त्रता संग्राम के बाहुबली जो ठहरे, या 1942 में गया जेल तोड़के भागने वाले क्रांतिकारियों पर ही एक फिल्म बना लेते, जिसमें योगेंद्र शुक्ल, जय प्रकाश नारायण जैसे कई नामचीन हस्ती शामिल थे। अरे भाई, अगर 100-200 करोड़ पानी में बहके गलत और भौंडा इतिहास दिखा सकते हो, तो क्या तिग्मांशु धूलिया की तरह सिर्फ 5 करोड़ में काफी हद तक सटीक इतिहास नहीं दिखा सकते? पर उतनी मेहनत कौन करे?
यह हैरानी की बात है आखरी गोली तक लड़ने वाले सारागढ़ी के 21 सरदार सैनिक या 1962 में खुद प्राणो की आहुति देकर हजारों चीनी सैनिकों को अपनी धरती के रेजांग ला क्षेत्र में न घुसने देने का साहस दिखाने वाले 13 कुमाओं रेजीमेंट के चार्ली कंपनी के 120 वीर सैनिकों को अभी तक पर्दे पर क्यूँ नहीं दिखाया गया? रानी गाइडिंलिउ, प्रीतिलता वद्देदार या अहिल्या बाई होल्कर, यहाँ तक की विवादास्पद मराठवाड़े की वीरांगना एवं पूर्व शासक ताराबाई पे ही फिल्म बना लो, करोड़ों कमाएगी, पर दुख की बात यह है, की ऐसे कोई निर्माता या निर्देशक नहीं है, जो इसमें दिलचस्पी रखे। अगर होती, तो 1948 के लंदन ओलिंपिक्स में स्वतंत्र भारत का पहला ओलिम्पिक स्वर्ण पदक जीतने की कहानी दिखाने में हिन्दी सिनेमा को 70 साल न लगते।
ये जोखिम न लेना और फूहड़ कॉमेडी दिखाना तो मानो बॉलीवुड में परंपरा बन गयी है, जिसमें अलग सोच रखने वाले तीसरे लिंग के मनुष्य हों, या समलैंगिक, उन्हे कभी इज्ज़त से नहीं दिखाया गया, और उन्हे ही सबसे द्वियार्थी संवाद पकड़ा दिये जाते। हमारे यहाँ तो बायोपिक को ऑफबीट सिनेमा में फेंकने का रिवाज भी काफी प्रचलित है। 1993 में प्रदर्शित सरदार पटेल की जीवनी, जिसे प्रसिद्ध कलाकार परेश रावल ने अपने अभिनय से अमर कर दिया था, उसे भी कलात्मक फिल्म के नाम से जनता की नज़रों से दूर कर दिया गया, जबकि इस फिल्म का कोई सानी नहीं था उस वक़्त।
भारत में वीरों की कोई कमी नहीं है। ये तो हमारी विडम्बना है की इनकी कहानियां कभी रूपहले पर्दे पर नहीं दिखाई गयी, जिसके पीछे उन्हे घटिया तरीके से प्रदर्शित करना, और ऐसे मौके गँवाने की कुल्लत भी हमारे निर्माताओं और निर्देशकों ने पाल रखी हैं। इससे हॉलीवुड को अपने सहूलियत से फिल्में बनाने का मौका मिल जाता है, जैसे रिचर्ड अटेंबोरो ने गांधी के मसले में किया। अब वक़्त आ गया है की हमारी जनता भी असली इतिहास से भरपूर सिनेमा की प्रशंसा करना शुरू करे, जैसा उन्होने द ग़ाज़ी अटैक और पान सिंह तोमर के साथ किया, क्योंकि अर्थशास्त्र का एक शाश्वत नियम है, की बिन आपूर्ति मांग पूरी नहीं हो सकती, वरना हम हमेशा इस मुद्दे पर टसुएँ बहाते रहेंगे, और हॉलीवुड उन विभूतियों पर फिल्म बनाएगा, जिन्हे हमने अनदेखा किया, जैसे श्रीनवास रामनुजन के साथ हुआ।