इंदु सरकार के साथ के और मूवी आ रही है, देखिएगा बुद्धिजीवियों को वही पसंद आएगी

इंदु सरकार हसीना

” इंदु सरकार ” और ” हसीना द क्वीन ऑफ़ मुंबई ” दो फिल्में, दोनों ही महिलाप्रधान, दोनों फिल्मो के ट्रेलर से ये प्रतीत होता है की  दोनों में ही दर्जेदार अभिनय हुआ है, और दोनों ही फिल्मो को दो अलग अलग वर्गो से विरोध भी झेलना पड़ सकता है।

आईये इन दोनों फिल्मो का सतही रूप देखते है।

” इंदु सरकार ” ये फ़िल्म मधुर भंडारकर द्वारा निर्देशित की जा रही है, इस फ़िल्म के ट्रेलर को देखकर पता चलता है के इसमें भारतीय इतिहास के एक अनछुवे व काले पन्ने को यानी की  1975 के इमरजेंसी के दौर को उजागर करने का प्रयास किया गया है।

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और दूसरी फ़िल्म है “हसीना” जो की आंतरराष्ट्रीय आतंकी दाऊद इब्राहिम की बहन हसीना पारकर पे आधारित है। जो खुद भी लेडी डॉन के नाम से कुख्यात थी और जिनके नाम पे फिरौती और हवाला जैसे कई आपराधिक मामले दर्ज हैं । इस फ़िल्म को निर्देशित किया है अपूर्व लखिया ने, जो पहले भी अंडरवर्ल्ड से जुडी फिल्म बना चुके है।

जहाँ एक तरफ मधुर भंडारकर की तारीफ होनी चाहिए एक ऐसे विषय को छुने के लिए जो बेहद ही संवेदनशील है और जिसे छूने की सजा भूतकाल में लोग भुगत चुके है, क्योंके इससे पहले भी “किस्सा कुर्सी का” से इमरजेंसी पे आधारित एक फ़िल्म आई थी जिसे कांग्रेस सरकार ने प्रदर्शित होने से रोका ही नहीं बल्कि कांग्रेस के कार्यकर्ताओ ने उसकी ओरिजिनल प्रिंट तक जला डाली थी। बाद में वो फ़िल्म पुनः दिग्दर्शित कर जनता सरकार के समय रिलीज करवाई गयी थी। मधुर भंडारकर की छवि  हमेशा से ही कुछ मुख्य धारा से हटकर फिल्म बनाने वाले दिग्दर्शकों की रही है। पर इस बार उन्होंने जो कदम उठाया है मै समझता हूँ  उसमे कला से ज्यादा हिम्मत की जरूरत थी। क्योकि इमरजेंसी एक ऐसा विषय है जिसकी सच्चाई कभी सही ढंग से और सत्यता के साथ किसी भी मंच से लोगो तक और मुख्यतः आज की पीढ़ी तक नही पहुंचाई गयी।

” हसीना ” जैसा की पहले हम बता चुके हैं  की  ये फ़िल्म आतंकी दाऊद इब्राहिम की बहन हसीना के जीवन पे आधारित है जो खुद भी एक महिला माफिया थी।

इस फ़िल्म को अपूर्व लखिया दिग्दर्शित कर रहे है जो पहले भी “शूटआउट एट लोखंडवाला” जैसी अंडरवर्ल्ड पे आधारित फिल्म कर चुके है। 2014 में हसीना पारकर के पास कुल 5000 करोड़ की संपत्ति थी, अब इतना पैसा एक गैंगस्टर के पास कहाँ  से आया ये बताने की अलग से शायद अवश्यक्ता नहीं है। इसमें कोई शक नही है के ये फ़िल्म भी टिकिट खिड़कियों पे अच्छा व्यापार करेगी। और देश का एक विशेष वर्ग इस तरह की फ़िल्म की तारीफ भी करेगा। पर विचारणीय बात ये है के क्या सच में हमें ऐसी फिल्मो की जरूरत है। क्या जरूरत है ऐसे लोगो की कहानी परदे पर और परिणाम स्वरुप समाज के सामने रखने की जो सभ्य समाज के लिए दीमक से ज्यादा कुछ नही। क्या “हसीना पारकर” सच में इस काबिल है के उसका महिमामंडन किया जाये। क्या फिल्में सिर्फ पैसा कमाने के लिए बनाई जाती है? क्या फ़िल्म जगत का कोई सामाजिक दाइत्व नहीं होता? और फिर जब ऐसी चीजो का विरोध होता है तो कहते है के असहिष्णुता का माहोल हो गया है।

कहते है फिल्में समाज का आईना होती है, पर हमें किस तरह का आईना उपयोग में लाना है क्या ये हमारी जिम्मेदारी नहीं है। आज के फ़िल्म जगत में अकबर को धर्मनिरपेक्ष दिखाने के लिए जितना प्रयास होता है उतना ही प्रयास होता है पेशवा बाजीराव को एक वीर योद्धा न दिखाते हुये  प्यार में पागल आशिक दिखाने  के लिए । दूरदर्शन धारावाहिको में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, सम्राट अशोक, सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य, दानवीर कर्ण और ऐसे कई माहान विभूतियो का पूरा इतिहास ही बदल दिया जाता है। मन्या सुर्वे, माया डोलस, अरुण गवली, अब्दुल लतीफ़, छोटा राजन इन जैसे कुख्यात गुंडों को हीरो जैसी छवि  में पेश किया जाता है। क्या ऐसा समाज देखना चाहते है, क्या हम  ये सब बताना चाहते हैं हमारे बच्चो को ?

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