हाल ही में राजस्थान माध्यमिक शिक्षा परिषद ने अपने इतिहास विषय के वर्तमान पाठ्यक्रम में संशोधन कराया है, और मैं गर्व से यह कहना चाहूँगा, की स्वतन्त्रता के सालों बाद, आखिरकार सच्चा भारतीय इतिहास राजस्थान में ही सही, पर हमारे सामने तो आया है। अब भाई बात तो साफ है, जब सच्चा इतिहास लिखा जाएगा, और काँग्रेस के नेतृत्व वाली सेकुलर ब्रिगेड को मिर्ची न लगे, ऐसा हो सकता है क्या? वर्षों से इतिहास लिखने के नाम पे जो काँग्रेस ने अपने निष्क्रिय और असफल नेताओं का महिमामंडन किया है, वो किसी से नहीं छुपा है। पाठ्यक्रम पर काँग्रेस ने मानो जन्मसिद्ध कब्जा जमाया था, और छोटे नन्हें कोपलों जैसे मस्तिष्कों में स्वतन्त्रता की वो कथाएँ काँग्रेस सरकारें बैठाती थी, जो उन्हे सही लगती थी?
आपको यकीन नहीं होता? याद कीजिये ज़रा, आपकी इतिहास की किताब में काँग्रेस के नरम दल पर सैकड़ों लेख अगर न लिखें गए हों तो, चाहे उनके तौर तरीके जितने फिसड्डी रहे हों। चाहे नेहरू और उनके अति काल्पनिक गुट निरपेक्ष आंदोलन हों, या महात्मा गांधी का ज़रूरत से ज़्यादा महिमा मंडन [हमारे खुद के इतिहास वाले किताबों में उन्हे 5 से ज़्यादा अध्याय समर्पित थे] हो, यहाँ तक की इतिहास के नाम पर इन्दिरा गांधी और राजीव गांधी की गाथाएँ भी पोटली बना कर हमारे दिमागों में ठूँसी गयी थी।
अंग्रेज़ी फिल्म ‘ब्रेवहार्ट’ में सही ही कहा गया था, ‘इतिहास वो लिखते है, जो वीरों को सूली पर चढ़ाते हैं!’ और यहाँ सूली पर चढ़ाने वाले सिर्फ अंग्रेज़ ही नहीं, उनके अघोषित चाटुकार काँग्रेस पार्टी के कार्यकर्ता भी है। कोई भी नेता, जो इनकी विचारधारा के विरुद्ध जाता था, उसे दो चार पन्नों में ही समेत दिया जाता था। कुछ विभूति, जो इनके प्रकोप से बच गए किसी तरह, वो थे नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, सरदार भगत सिंह संधू और उनके हिंदुस्तान क्रांतिकारी संघ [जिनको आज भी आतंकवादी कहकर संबोधित किया जाता है] , पंजाब केसरी लाला लाजपत राय और स्वातंत्रयावीर सावरकर इत्यादि।
सड़क, चौक और योजनाओं की तरह हमारे स्वर्णिम इतिहास को भी नेहरू गांधी नाम के कीचड़ से नहलाया जाता था। पर अब और नहीं। अब पासा पलट गया है। समय आ गया की अपने इतिहास को केसरिया रंग से रंगा जाये। केसरिया माने विश्वास, बलिदान और गौरव का प्रतीक रंग। मैं गांधीजी की क्षमताओं या उनके योगदानों को नज़रअंदाज़ नहीं कर रहा हूँ, मैं तो खुद चाहता हूँ की दुनिया में हिंसा न हो। पर भारत के इतिहास की किताबें हमें मानो ये कहना चाहती हैं की गांधीजी ही हमें स्वतन्त्रता दिला पाये थे, जो सरासर सफ़ेद झूठ है।
बहुत सुन लिए हमने अर्धसत्य। स्वतन्त्रता संग्राम के एक गहन और करीबी अध्ययन के पश्चात हमें यह ज्ञात होता है की कुछ लोगों के योगदान को जानबूझकर अनदेखा किया गया है। नहीं तो क्या वजह है की चट्टोग्राम में अंग्रेजों की नाक में दम करने वाले एक आम स्कूलमास्टर ‘मास्टर दा’ सुर्ज्य कुमार सेन को एक पंक्ति भी नहीं समर्पित है? यह तो भला है बीजेपी वाली राजस्थान सरकार का, जिसने ऐसे अंजान गाथाओं को फिर से जोड़ने का बीड़ा उठाया है। पर वो क्या है न, की बचपन से ठूँसा गया अर्धज्ञान हटाने में मेहनत कोई नहीं करना चाहता। हम बदलाव का स्वागत ही नहीं करना चाहते, हमें उससे नफरत होती है। पता नहीं क्यूँ हमें अर्धसत्य से ही आसक्ति होती है, शायद सच सुनने की अब ताकत नहीं बची है।
ऐसे ही एक वीर, जिन्हें हमारे कथित इतिहासकारों ने जानबूझकर अनदेखा किया, वो थे श्री विनायक दामोदर सावरकर ।
स्वातंत्र्यवीर सावरकर के नाम से प्रसिद्ध विनायक दामोदर सावरकर ने ही हिन्दुत्व शब्द की संज्ञा दी थी, पर वे वहाँ ही नहीं रुके। वे एक अमर शिरोमणि, उच्च कोटी के क्रांतिकारी पहले थे। आज़ाद भारत समाज [फ्री इंडिया सोसाइटी] की स्थापना इन्होने की, ‘भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास’ नाम से इन्होने एक पुस्तक की रचना की, अपने लेखों और भाषणों से क्रांतिकारी भावनाओं का संचार भी करते थे। इन्ही के आदर्शों और विचारों से प्रेरित हो मदन लाल ढींगरा, पंडित राम प्रसाद ‘बिस्मिल’, चन्द्र शेखर आज़ाद, भगत सिंह जैसे अनगिनत क्रांतिकारियों ने भारत माता की स्वतन्त्रता के लिए अपने प्राणों की आहुति दी। नरम दल के विचारों से गहन मतभेद रखने वाले सावरकर जी गुरिल्ला युद्धनीति से पूर्ण स्वराज के स्वप्न देखा करते थे।
बदकिस्मती से उनके सपनों के पर अंग्रेजों ने काट दिये, जब उन्हे पकड़ कर दो बार आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गयी, और उनका दुनिया से संपर्क का एकमात्र साधन वर्ष में एक बार भेजी जाने वाली एक चिट्ठी हुआ करती थी। ऐसे घुट घुट कर जीने से अच्छा उन्हे स्वच्छंद हो कर अपने विचारों को फैलाना श्रेयस्कर लगा। काँग्रेस भले ही उनकी इस चाल को गद्दारी कहती हो, पर उनका ये संयम कुछ ही समय के लिए था, क्योंकि अपने देश से प्यारा उनके लिए और कुछ भी नहीं था। पर उस वक़्त गांधीजी ने स्वतन्त्रता की कमान संभाल ली थी, और उनके केसरिया ध्वज में लहराते अखंड भारत के स्वप्न को किनारे फेंक दिया गया।
सावरकर ने एक बार जिन्ना के संदर्भ में काँग्रेस को बँटवारे की चेतावनी भी दी थी, पर काँग्रेस का जवाब उस मुक़ाबले फीका ही रहा। ऐसा लग रहा था, मानो उन्हे जिन्ना से ज़्यादा बंटवारा करने की उत्सुकता थी, और हुआ भी वही। 1940 में, जब संग्राम का सारा नेतृत्व गांधी और नेहरू के हाथ में था, तो एक भावुक भाषण में सावरकर ने कहा था , “मैं देशभक्तों की आखरी पंक्ति में खड़ा होऊंगा बजाए की विश्वासघातियों की पहली पंक्ति में।“ जब बहुत देर हो चुकी थी, तब गांधी ने कहा था की पाकिस्तान उनकी लाश पे बनेगा। सावरकर ने भारत चीन युद्ध की भविष्यवाणी भी की थी। उन्होने ये भी कहा था, की “ जब तक धार्मिक कट्टरता पर आधारित मुल्क भारत के साथ रहेंगे, भारत कभी शांति से नहीं रह पाएगा।“ गांधीजी और सावरकर के विचार, पाठ, यहाँ तक की उनके लक्ष्य भी एकदम अलग थे। तो गांधीजी के योगदानों को हम कैसे सफल मान ले, जब भारत का नक्शा पहले जैसा ही नहीं रहा ?
भारत स्वतंत्र तो बना, पर कई नेताओं के सामूहिक योगदान से, जिसमे आम जनमानस और क्रांतिकारी भी शामिल थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था के परखचछे उड़ गए थे, पर भारत छोडने का उनका कोई इरादा नहीं था। पर वित्तीय कोष कम था, और पैर जमाये रखना और मुश्किल। जब नेताजी सुभाष बोस की आईएनए पर मुकदमा चल रहा था, तो अंग्रेज़ समझ गए थे की अब भारतीय सेना पर विश्वास रखना मुश्किल है। बिना सेना के सरकार कब तक चलेगी? यही ब्रिटिश राज के ताबूत पर आखरी कील थी। गांधीजी ने हालांकि नेहरू की भरपूर सहायता की, और सरदार पटेल को अन्तरिम प्रधानमंत्री की कुर्सी से हटने को भी कह दिया था। ऐसे बहुत तथ्य हैं, जो साबित करते हैं, की गांधीजी को अपने प्रभुत्व की बड़ी चिंता थी, और क्रांतिकारियों से सख्त नफरत। उनकी वजह से ही नेताजी सुभाष बोस को अपनी काँग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी छोडनी पड़ी, और आईएनए की स्थापना करनी पड़ी।
सावरकर के क्रांतिकारी योगदानों को अनदेखा बिलकुल नहीं किया जा सकता, पर ऐसा 50 वर्षों से भी ज़्यादा समय से किया गया है। स्वतंत्रता संग्राम के अलावा सावरकर जाती प्रणाली की घोर निंदा करते थे। वे सनातन धर्म को एक रखने के लिए अनेक लड़ाइयाँ लड़े थे। राजनीति से लेकर धार्मिक रीति रिवाजों पर उन्होने कई लेख छपवाए, जो तब के युवा वर्ग में भी उतने ही प्रसिद्ध थे, जितने आज है। उन्होने देश के हर वासी को हिन्दू समझा, क्योंकि आप माने या न माने, यहाँ रहने वाला हर भारतीय इस प्राचीन केसरिया सभ्यता का एक अभिन्न अंग बन जाता है, जिस पर मैं इस लेख में विस्तार से चर्चा करूंगा।
सावरकर जी का दर्शन तर्कसंगत, व्यावहारिकता, मानवता, यथार्थ एवं उपयोगिता से परिपूर्ण था। आश्चर्यजनक रूप से वे नास्तिक भी थे, जिनहे अलौकिक शक्तियों में कतई विश्वास नहीं था। वे एक लोकप्रिय यथार्थवादी थे, जो हिन्दू समाज में व्याप्त रूढ़ियों और कुरीतियों का अंत करने के लिए जोरदार प्रचार प्रसार करते थे। आज के आधुनिक वामपंथी लेखक चाहे जो बके, पर उनके एक हिन्दू राष्ट्र का वास्तविक अर्थ एकता और सर्व धर्म संभव से परिपूर्ण एक अखंड भारत से संबंध रखता था। सावरकर शायद आज की इस लेखक मंडली के लिए इसलिए नासूर है, क्योंकि इनके हिन्दू राष्ट्र में कट्टरपंथी मुसलमानों के लिए कोई स्थान नहीं था।
पर याद रखिए, सावरकर के हिन्दू राष्ट्र का विचार इस बात से मतलब नहीं रखता था, की आप पूजा किसकी करते हैं, पर एक एक फलते फूलते सभ्यता का निर्माण की चाह थी, जहां केसरिया सभ्यता का अनुसरण सब भारतीय श्रद्धापूर्वक करे, चाहे किसी छद्मवादी पंथ को पसंद आए या नहीं। इस हिन्दू राष्ट्र में हर पंथ के लिए स्थान था, चाहे वो जैन हो, सिख हों, ईसाई हों, या मुसलमान। गौर करें की भारत के मुसलमान अरबी मुसलमानों से काफी भिन्न है, ठीक उसी तरह जैसे झारखंड के ईसाई पश्चिमी एवं केरल के इसाइयों से।
यहाँ धार्मिक पंथ से कोई लेना देना नहीं है, पर अगर कोई देश से ऊपर मजहब को रखे, तो उसका इस भारत में कोई स्थान नहीं, क्योंकि इस समाज में सद्भाव और सहनशीलता अनंत काल से चली आ रही है, और ऐसा अनंत काल तक चलेगा, जब तक यहाँ के वासी इस सभ्यता को अपने मजहब से ऊपर रखेंगे। क्या ऐसी सोच रखना अपराध है?
पंथ चाहे जो भी हो, पर कई गैर सनातनियों ने भारत के केसरिया सभ्यता की आन बान और शान को बढ़ाया है, और एपीजे अब्दुल कलाम से बढ़िया उदाहरण क्या हो सकता है? घर से केवल 10 किलोमीटर दूर रामेश्वरम मंदिर में दर्शन करने कलाम साहब जाते थे। इनके अब्बा और मंदिर के पुरोहित में घनिष्ठ मित्रता भी थी। एक सच्चे मुसलमान होने के नाते कलाम हिन्दू भी थे, क्योंकि वे अपने आप को इस सभ्यता का अभिन्न हिस्सा मानते थे। सच पूछो तो हिन्दू की पहचान भारतीय होने की पहचान से ज़रा भी भिन्न नहीं है, और यही विचार वीर सावरकर जी बताते थे। इससे पहले की आप धर्मनिरपेक्ष मुझ पर असहिष्णुता के छींटे फेंके, मैं आप को बताता हूँ की सावरकर क्यों हिन्दू राष्ट्र की कामना करते थे, और क्यूँ भारत का हर वासी हिन्दू कहा जाएगा।
विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यताओं में से एक ही भूमि भारत, जिसकी सभ्यता इतनी धनवान और प्राचीन है, की इसके असली जड़ें खोजना भी काफी कठिन प्रतीत होता है। सिंधु सभ्यता जैसी प्रथम नागरिक सभ्यता की जन्मस्थली है यह भूमि, विश्व की सबसे प्रथम भाषाओं में से एक संस्कृत, वैदिक सभ्यता, दर्शन और अध्यात्म से परिपूर्ण है यह भूमि।
नाम चाहे ही हिन्दू धर्म या हिन्दुत्व, पर विश्व का सबसे प्राचीन धार्मिक पंथ आज भी श्रद्धा सहित आम मनुष्य को कठिनाइयों में राह देता है, चाहे परंपरा से, या संस्कृति या आध्यात्मिक रूप में ही सही, पर सनातन धर्म का आज भी हमारे देश में वंदन और अभिनन्दन होता है। ईरान से आए आक्रमणकारियों ने सिंधु नदी से प्रेरित जो हमें नाम दिया, वही हमारी आधुनिक दुनिया में पहचान बन गया, हिंदुस्तान। इस महान देश की एक ही पहचान है : हिन्दुत्व। न हम इस्से मुकर सकते हैं और न ही इस्से मुंह मोड सकते हैं। सनातन धर्म की जड़ों से अलग होना चाहे भी, तो भी आप इस देश के गौरवशाली इतिहास को नहीं झुठला सकते।
हिन्दू धर्म एकमात्र बुतपरस्त धर्म है [यह अपमानजनक उपाधि अंग्रेजों ने हमें दी थी], जिसने इब्राहिमी ताकतों से न सिर्फ सीधे मुंह लड़ाई लड़ी, बल्कि शान से जीवित भी रहा। जब पूरे विश्व में इब्राहिमी पंथों का प्रचार प्रसार हुआ, तो विश्व के समस्त देशों में उनके सारे संस्कृति, परंपरा, भाषा, विश्वास, यहाँ तक की स्थानीय समाज के खानपान तक को नष्ट कर दिया। एक जीता जागता अपवाद है सनातन धर्म। मैं तो समझता हूँ की इसके पीछे सिर्फ एक कारण दिखाई देता है, वह है हिंदुओं की सहिष्णुता। हर पंथ के लोगों का खुले दिल से स्वागत किया है हिंदुओं ने, उनके सांस्कृतिक तौर तरीकों को माना भी है हमने और अपनाया भी। सिर्फ दूसरी सदी में ही हमने ईसाइयों का स्वागत किया, जो संत थॉमस के ईसाई के नाम से प्रसिद्ध हुये। जब केरला में पुर्तगाली आए, तो उन्होंने अपने कैथॉलिक पंथ से काफी भिन्न ईसाई धर्म के अनुयायी देखे। असशीष्णु पुर्तगाली ईसाइयों ने उन्हे जलाकर नष्ट ही कर डाला।
बाद में हमने पार्सि धर्म का स्वागत भी किया, जो फारस देश में अग्नि देव की उपासना करते थे। जब ईरान का इस्लामिकरण हो रहा था, तब ये पारसी या तो धर्म परिवर्तन कर रहे थे, या फिर मारे जा रहे थे। अगर हिंदुओं ने उन्हे न अपनाया होता, तो इस्लाम ने उनका सर्वनाश कर दिया होता। आज उनकी संस्कृति और सभ्यता हमारे ही सभ्यता में घुल मिल सी गयी है। ये तो सिर्फ कुछ उदाहरण है, हमने तो इस्लाम की ताकतों का भी डट कर सामना किया। 1000 वर्षों तक लगभग उन्होने हमपर राज किया, पर हमारे पंथ को नहीं मिटा पाये। हमने इस्लाम के कुछ अच्छे हिस्सों को भी अपनाया, और उसे पहचान दी। भाई बिरयानी किसे पसंद नहीं है, बता दो? इस खिचड़ी से मिश्रण को हिंदुस्तानी संस्कृति भी कहते हैं।
केसरिया संस्कृति की सफलता का स्त्रोत उसकी आत्मा है, जिसमें सर्वव्यापी सहिष्णुता और स्वीकार्यता के रस मिले हुये हैं। जो भी यहाँ रहता है, अपनी इच्छा से रहता है, और इसीलिए हिन्दू है। पूजा चाहे राम की करो या मोहम्मद की, वाहेगुरु की अरदास करो या जीसस की, इस्से कोई वास्ता नहीं। इसी स्वप्न को देखने का साहस किया था वीर सावरकर ने, एक हिन्दू राष्ट्र, जो अपने प्राचीन हिन्दू सभ्यता का मान रखता है, और जो भी इस संस्कृति का हिस्सा बनना चाहे, उसे अपनाता भी है, और साथ तर्क सहित विज्ञान और उन्नति की तरफ अग्रसर भी होता है। जैसे की सावरकर जी ने गाय का वध रोकने और उसकी सेवा करने पे ज़ोर दिया, पर उसकी पूजा नहीं करते थे।
आपसी सहमति से लगभग 1000 वर्षों तक इस्लाम और सनातन धर्म साथ रहा, बावजूद इसके की दोनों ने एक दूसरे के धर्मस्थल और सभ्यता पर अनगिनत आक्रमण किए। हालांकि इसका दुखद अंत हुआ 1947 में, जब सत्ता का लालच जवाहर लाल नेहरू के लिए राजधर्म, यानि देश पे शासन की नीति से ज़्यादा महत्वपूर्ण हो गया। हम तो सिर्फ अपना धर्म यानि कर्तव्य जानते थे, सत्ता के लालच में मजहब के नाम पर नेहरू और जिन्ना ने हमें बाँट दिया। पंथ चाहे जो भी था, हम सब हिन्दू ही थे। पर हो गए न तीन टुकड़े हमारे अखंड भारत के। अगर अब भी नहीं चेते, तो अखंड भारत का स्वप्न जो वीर सावरकर ने देखा था, वो हमेशा स्वप्न ही रहेगा।
जिसने हिन्दुत्व का अर्थ विश्व को बताया, और हिन्दू राष्ट्र जैसे उच्च आदर्श की कल्पना की, मैं उसी सावरकर की बात करता हूँ। अब राजस्थान के विद्यालयों में उनके किस्से बताए जाएंगे, और उनके तर्कसंगति की भी प्रशंसा की जाएगी। जिस स्वप्न को वर्षों तक पाप कहा जाएगा, अब उस स्वप्न को उनकी तरह देखने और सार्थक करने की इच्छा मैं भी रखता हूँ!
जय हिन्द! जय भारत!