भारत के सिनेमा प्रेमियों ने दिया साल का सबसे बड़ा झटका, ट्यूबलाइट फुस्स हुआ

ट्यूबलाइट

‘ऐसा पहली बार हुआ है 17 – 18 सालों में……………….’ – अगर आपने ये गाना सुना है, तो इन शब्दों की भावनाओं को भी समझेंगे। क्योंकि ऐसा पहली बार हुआ, 5-6 सालों में, जब सलमान खान और निर्देशक कबीर खान की करिश्माई जोड़ी के फिल्मी पटाखे न सिर्फ समीक्षकों की दृष्टि में, बल्कि जनता की नज़रों में भी फुस्स साबित हुई है। उनकी नई फिल्म ट्यूबलाइट, जो 1962 के भारत चीन युद्ध के पृष्ठभूमि पर स्थित है, और जिसमें सलमान के भाई, और असफल अभिनेता सोहेल खान की बतौर वापसी भी हुई है, कोई रेकॉर्ड बनाना तो दूर, किसी तरह बस अपने लागत की भरपाई पूरी कर पाती है, और अभी तक खाली 159.19 करोड़ ही कमा पायी है।

पर मैं उसके प्रदर्शन के विषय में क्यों बात कर रहा हूँ। इससे हमें क्या मिलेगा? लल्ला, जिस देश में एक सधी, सुलझी, और उत्कृष्ट कथा से भरपूर फिल्म धूल चाटने को मजबूर हो, और कूड़े समान फिल्म जैसे ‘दिलवाले दुलहनिया ले जाएंगे’, ‘कुछ कुछ होता है’, ‘गुंडे’ और ‘हाउसफुल’ जेबों में कलेक्शन के नोटों की गड्डियाँ भर भर ले जाएँ, तो बंदे का सोचना तो लाज़मी है, अगर भारतीय सिनेमा, विशेषकर हिन्दी सिनेमा, सच्चे कहानियों और कला के लिए नर्क समान है की नहीं?

कथ्यपरक सिनेमा के लिए बॉलीवुड निस्संदेह सबसे खराब जगह साबित होगी। पर जब से ओके जानू, रईस, और अब ट्यूबलाइट बिना कोई कमाल दिखाये बॉक्स ऑफिस पर फुस्स साबित हुई, सो अब कह सकते हैं की नहीं! हमारी सिनेमा के श्रोता अब सुधार रहे हैं, वे और समझदार बनते जा रहे हैं!

2011 तक गोलमाल फिल्म सिरीज़ जैसे ऊटपटाँग फिल्में सफल मानी जाती थी, जबकि ‘लक्ष्य’ जैसी विषय के साथ न्याय करने वाली फिल्में बिना तैरे बॉक्स ऑफिस के सागर में डूब जाती थी, जिससे लोगों को कुछ अच्छा और कुछ सच्चा देखने का स्वर्णिम अवसर देखने को नहीं मिलता था। फिर एक निर्देशक ने इस नीति को चकनाचूर किया। नाम तिगमांशु धूलिया, इनहोने अपना सब कुछ इस एक बायोपिक को दे दिया, जिसे महज 5 करोड़ में बना लिया गया था, और इसे प्रदर्शित किया, बिना ये सोचे की क्या गौरव ये फिल्म उनके लिए लाने वाला था। ये फिल्म थी पान सिंह तोमर, जो रुड़की के बंगाल इंजीनियर्स के प्रसिद्ध स्टीप्लचेज़ स्वर्ण पदकधारी धावक सूबेदार पान सिंह तोमर के ऊपर आधारित थी, जिनहे बाद में सिस्टम के अन्य ने डकैती का रास्ता अपनाने पे मजबूर कर दिया।

कुछ ही दिनों बाद एक और फिल्म रेलीज़ हुई, ‘कहानी’, जिसके निर्देशक सुजौय घोष की पिछली दो फिल्में, ‘होम डेलीवेरी’ और ‘अलादीन’, बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह पिटी थी। इसमें नामचीन हस्तियाँ नहीं थी, तब की कामयाब अदाकारा विद्या बालन को छोडकर, पर फिर भी सिर्फ कोलकाता के एक अनोखे परिदृश्य और एक रोमांचक कथा से सुजौय की ‘कहानी’ ने पूरा पासा पलट दिया, और काफी सफल भी साबित हुई। ये एक ऐसी रोमांचकारी फिल्म थी, जो सच में आपको अपनी सीटों से चिपकने पर मजबूर कर दे।

खुद निर्देशक तिगमांशु ने अपने आपको एक क्रूर, पर आवेग में बहने वाले खलनायक रामाधीर सिंह के तौर पर ‘गैंग्स ऑफ वास्सेपुर’ में अपनी अभिनय कला का लोहा मनवाया। पहली बार लोगों ने ऐसी फिल्मों पर अपने पैसा खर्चा किए, जो अलग भी थी और उनका वाकई में मनोरंजन करती थी, बजाए की वही पुरानी कैंडी फ्लॉस टाइप नौटंकी झेलने के लिए, जो कुलीन बॉलीवुड बिरादरी उन्हे परोसती थी। हालांकि ऐसे कुछ अपवाद छोडकर 2017 तक फूहड़ फिल्मों पर पैसों की बारिश का सिलसिला चलता रहा, जिसमें कुछ प्रमुख नाम है ‘हॅप्पी न्यू इयर’, ‘गुंडे’, ‘प्रेम रत्न धन पायो’, ‘किक’ इत्यादि।

पर 2017 में नहीं। ये साल तो जैसे बॉलीवुड के एलीट क्लब को उनकी मीठी नींद से झकझोरने के लिए बना था। इस साल की शुरुआत हुई ओके जानू से, जिसे नए युग के प्रेम प्रसंग की एक अद्भुत झलकी के तौर पर दिखाया जा रहा था, पर बॉक्स ऑफिस पर ये औंधे मुंह गिरी। फिर आई एक और असफल फिल्म, जो आश्चर्यजनक रूप से द्वितीय विश्व युद्ध में स्थित, इंडियन नेशनल आर्मी से जुड़ी एक संघर्ष की कहानी बताती मशहूर फ़िल्मकार विशाल भारद्वाज की फिल्म ‘रंगून’ थी। इतना ही नहीं, नारिवाद का कथित चोला ओढ़ बलात्कार की भयावहता को सही ठहराने की बचकानी कोशिश ने ‘बेगम जान’ मूवी के सफलता के पर भी काट दिये। अब्बास मस्तान के नयी मूवी ‘मशीन’ की त्रासदी की बात न ही करें, तो अच्छा।

2017 के ‘हौल ऑफ कूड़ा’ के कुछ सम्मानित सदस्य है ‘मेरी प्यारी बिन्दु’, ‘सरकार 3’, ‘नूर’, ‘बैंक चोर’, ‘राबता’ इत्यादि, जहां पुरानी शराब को नई बोतल में परोसने की शैली फुस्स साबित हुआ। यहाँ तक की शाहरुख खान की बहुप्रतीक्षित ‘रईस’ भी किसी तरह महज़ 200 करोड़ से ऊपर ही कमा पायी बॉक्स ऑफिस से, और अपने समकालीन प्रदर्शित फिल्म, ऋतिक रोशन अभिनीत ‘काबिल’ की चमक किसी भी सूरत में कम नहीं कर पायी।

इनके मुक़ाबले कई कथा परक फिल्में, जैसे ‘हिन्दी मीडियम’, ‘द ग़ाज़ी अटैक’ इत्यादि ने सबको चौंकाते हुये बॉक्स ऑफिस पर शानदार प्रदर्शन किया। फिल्लौरी और जॉली एलएलबी 2 ने भी कथा सामग्री से अपनी प्रतिबद्धता और अपने चटक कहानी से दर्शकों का मन मोहने में कामयाब रही।

अगर जनता इससे प्रसन्न हो सकती है, तो ध्यान रहे, हर बार वही पुराना फॉर्मूला अब आपकी बॉक्स ऑफिस पर रक्षा नहीं कर पाएगा। यही राज़ है ट्यूबलाइट की असफलता के पीछे, जहां खोने और पाने के बरसों पुराने टैक्नीक को एक बार फिर पर्दे पर जीवंत किया गया, जिसने फिल्म की लुटिया ही डूबा दी।

इसके अलावा तो कबीर जी पहले से ही घाटे में चल रहे द, पिछले साल की सफलतम फिल्म ‘ऐयरलिफ्ट’ पर अपने विवादास्पद बोल के चक्कर में। और पता नहीं इनहोने ये क्यूँ बोला की एयरलिफ्ट में कुछ खास नहीं, जबकि उनकी खुद की फिल्म् ट्यूबलाइट, परत दर परत 2015 में आई लिटल बॉय की अनाधारिक प्रति थी?

सच बोलूँ तो मैं अंधविश्वासों में यकीन नहीं रखता। पर पता नहीं क्यों मैं देखता हूँ की जब भी सोहेल खान अभिनेता बन सलमान खान की फिल्मों में आते हैं, तब उनके किस्मत में भूचाल ज़रूर आता है, लिख के ले लीजिये आप। मैं और मिसेज खन्ना के समय से लेकर, अभी तक, जब भी किसी भी मूवी में सलमान खान के साथ सोहेल खान ने अभिनय किया है, तब तब वो फिल्म कुछ भी रही हो, ब्लॉकबस्टर तो नहीं रही, जैसे सलमान भाई से उम्मीद रखी जाती है। अभी तीन ही साल पहले जब कई वर्षों के बाद सोहेल खान ने निर्देशक की कुर्सी संभाली और ‘जय हो’ प्रदर्शित की, तो करोड़ों कमाने के बाद भी सलमान भाई जैसा ब्लॉकबस्टर चाहते थे, वैसे नहीं हो पायी, और ट्यूबलाइट भी लुपलुपा के फुस्स हो गयी, माने समीक्षकों और जनता दोनों ने इसे तबीयत से धोया।

तो क्या समझे? क्या जनता बदल रही है? एक हद तक हाँ, क्योंकि और कोई वजह नहीं बाहुबली 2 के डब्ड कड़ी के भारी सफलता की, पर क्योंकि अभी भी कुछ विभूति ऐसे हैं जो हाफ़ गर्लफ्रेंड पर अपना पैसा बर्बाद करने के लिए तैयार हैं, तो मेरे अपने संदेह भी व्याप्त हैं। बस यही आशा रखता हूँ की जनता इस शक को भी उतनी तबीयत से धोये जैसे इनहोने ट्यूबलाइट को अभी धोया था?

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