उसने नालन्दा विश्वविद्यालय जलाया, हमने उसके सम्मान में एक शहर का नाम बदल दिया

नालन्दा

पूरा उपमहाद्वीप इस आगोश में घिरा हुआ है की कैसे स्वर्णिम युग में इस्लाम का परचम फहराया है। जहां सम्पूर्ण शांति और समृद्धि थी और समाज के हर समुदाय में सद्भवाना और प्रेम की हिलोरें उमड़ रही थी। गैर मुसलमानों के खिलाफ किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाता था, और एक कदम आगे जाते हुये स्मारक और ऐतिहासिक स्थलों को आतताइयों के नाम पर रखा जाने लगा। ये स्टॉकहोम सिंड्रोम का क्लासिक केस है, जहां आतताइयों और आतंकियों को परमार्थी शासकों के तौर पर चित्रित किया जाता है, और उन्हे सिर आँखों पर चढ़कर लोग उनके सारे पाप तहे दिल से माफ कर देते हैं।

बिहार में बख्तियारपुर एक ऐसी ही जगह है, जो कुत्बुद्दीन ऐबाक के विश्वसनीय सेनापति और तुर्की बदमाश बख्तियार खिलजी के नाम पर बना है। ये वही बख्तियार खिलजी है जिनहोने हमारे नालन्दा विश्वविद्यालय को धार्मिक उन्माद में भस्म कर दिया था अपने बिहार और बंगाल के अभियान के दौरान।

जो नालन्दा जापान, चीन, नेपाल और इंडोनेशिया जैसे देशों से पर्यटक और विद्यार्थियों को अपनी ओर आकर्षित करता था, वो एक मजहब के हुक्म की तामील न कर सका, और इसलिए एक आक्रमण कारी ने इस पवित्र शिक्षा के मंदिर को मिट्टी में मिला दिया।

कहा जाता है की बख्तियार खिलजी ने जब नालन्दा जलायी थी, तो पूरा पुस्तकालय 3 महीने तक धू धू कर जलता रहा। इस विध्वंस को काफी बखूबी से मिनहज-उस-सिराज ने अपनी पुस्तक ‘तबाक़त-ए-नासिरी’ में उकेरा है।

यहाँ के निवासियों ने आतताइयों से याचना की कि पुस्तकालय को बख्शा जाये, जिस्पर बख्तियार ने पूछा कि यहाँ पवित्र कुरान कि प्रति है? जब जवाब न में आया, तो पूरे पुस्तकालय को जला दिया। पर ये हमारे बुद्धिजीवियों के लिए असहिष्णुता नहीं है, है न?.

यहाँ के गुरुओं और भिक्षुओं को ज़िंदा जला दिया गया और जिसने भी विरोध करने का प्रयास किया, उसका सिर धड़ से अलग कर दिया।

काफिरों कि किताबों को जलाने कि यह घटना अमर-इब्न-अल—आस के अलेक्सन्द्रिया के पुस्तकालयों पर आक्रमण और क्टेसीफोन में स्थित पारसी पुस्तकालयों पर हमले से काफी मेल खाता था।

समय का फेर देखिये, इस्लाम के आधुनिक करताधरता आईएसआईएस भी जिस शहर पर कब्जा करती है, वहाँ पड़े प्राचीन पाण्डुलिपियों और पुस्तकों को जलाकर ही दम लेती है। हाल ही में इराक के मोसुल में सार्वजनिक पुस्तकालयों को बॉम्ब से उड़ाया गया, जिसमें 8000 किताबें रख हो गयी। यहाँ तक कि मोसुल के इन पुस्तकालयों कि ऑनलाइन साइट भी आईएसआईएस ने कम्प्युटर से हटा दी।.

नालन्दा के असामयिक विध्वंस से भारत में गणित, विज्ञान, काला, साहित्य जैसी विधाओं का भारत में ह्रास हुआ। विज्ञान और काला में व्याप्त भारतीय ज्ञान और बुद्धि को इस्लामिकरण ने कई शताब्दी पीछे धकेल दिया, जो आज भी हमारे रोंगटे खड़े कर देता हैं। जब इतने हमले होने के बाद भी हम आयुर्वेद, योग, शास्त्रीय संगीत, नाट्यशास्त्र जैसी विधाएँ दे सकते हैं, तो सोचिए उस समय हम कितने आगे चलते थे सम्पूर्ण विश्व से?

इसी भी दुखदायी ये बात है कि उपमहाद्वीप के वासी बख्तियार खिलजी को इस तरह महिमामंडित करते हैं। बख्तियायर घोरा नमक कविता में बांग्लादेश के सफलतम कवि अल महमूद ने उन्हे एक नायक के तौर पर महिमामंडित किया है, जिनहोने इस्लाम का परचम लहराया, और कई लोगों का धर्म परिवर्तन किया।

यहाँ कि इस्लामी प्रभावित बुद्धिजीवी वर्ग ये मानने से इंकार करता है कि यह उन्ही लोगों कि सन्तानें हैं, जिनहे ज़बरदस्ती धर्म परिवर्तन करने पे मजबूर करा जाता था, वरना दूसरा विकल्प तो सदैव मृत्यु का होता था।

ये राजनैतिक मिठास ने एक औसत भारतीय के दिमाग का दही बनाके रखा हुआ है, जिसे हटाना अवश्यंभावी है, क्योंकि जो इतिहास को नज़रअंदाज़ करते हैं, इतिहास उन्हे नज़रअंदाज़ करता है।

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