‘आइन क्या है? एक पुस्तिका है दस बारह पन्नों की। मैं उन्हे फाड़ कर कल कह सकता हूँ की कल से हम एक नए प्रणाली में रहेंगे। फिर यही लोग मेरे एक इशारे पर मेरे पीछे चलेंगे और कभी ताकतवर रहे कुछ नेता फिर मेरे पीछे पीछे अपनी दुम हिलाते हुये आएंगे’ ऐसा कहना था पाकिस्तान के पूर्व तानाशाह, जनरल मुहम्मद ज़िया उल हक़ का।
इतिहास के कुछ पन्ने पलटें तो ज्ञात होगा की यह वही ज़िया उल हक़ है, जिनहोने 1977 में पाकिस्तान में भुट्टो सरकार को अपदस्थ कर पूरे देश को मार्शल लॉं की बेड़ियों में जकड़ा था, ठीक उसी साल, जब पड़ोसी भारत ने एक बार फिर अपने आप को ग़ुलामी की जंजीरों से छुड़ाया था। जालंधर में पैदा हुये ज़िया उल हक़ के सोच की नींव उनके जीवन की त्रासदियों ने रखी, जिनमें प्रमुख था भारत का 1947 में हिंसक विभाजन, और 1965 और 1971 के युद्धों में भारत के हाथों मिली पाकिस्तान को करारी हार। जालंधर में इन्हे अपना मकान छोडके पाकिस्तान जाना पड़ा था।
विभाजन के बाद, ज़िया उल हक़ पाकिस्तान थलसेना में भर्ती हुये। कश्मीर में सक्रिय मोर्चे पर ये 1965 के भारत पाक युद्ध में लड़ने गए थे।
इनकी भक्ति, व्यवसिकता और कथित रूप से गैर राजनैतिक विचारों ने तथाकथित प्रधानमंत्री ज़ुल्फिकार अली भुट्टो का मन मोह लिया, जिनहोने ज़िया को चुनौती न समझते हुये कई महत्वाकांक्षी और वरिष्ठ अफसरों को दरकिनार कर इनकी पदोन्नति की और इन्हे सेना का मुखिया बनाया। पर एक साल के अंदर अंदर ज़िया उल हक़ ने भुट्टो का ही पत्ता काटते हुये, मार्शल कानून की घोषणा की, और 1979 में भुट्टो को फांसी पर लटकवा दिया।
1979 में ज़िया उल हक़ ने कथित रूप से पाकिस्तानी आइन का रंग रूप बदलने की जोरदार पैरवी की। एक इस्लामी राज्य के तौर पर ज़िया ने इस्लामिकरण की ताकत को पहचाना, जो कथित रूप से भारत जैसे शक्तिशाली पड़ोसियों को वश में रख सकता था।
ज़िया उल हक़ ने इस्लामिक कानून पारित करवाए, शैक्षणिक पद्दतियों का इस्लामिकरण करवाया, कई धार्मिक मदरसे देश भर में खुलवाए, न्यायपालिका, नौकरशाही, यहाँ तक की जमीनी तौर पर भी इनहोने इसलामियों की भर्ती करवायी। इतना ही नहीं, इनहोने ऐसे संस्थानों की स्थापना की, जहां पर इस्लामिक मौलवी सरकार की गतिविधियों पर नज़र रखे। यानि पाकिस्तान अब एक इस्लामिक गणराज्य, मजहबी मुल्क बन चुका था।
सच्चाई को दरकिरनार करते हुये इतिहास को तोड़ मरोड़ के पेश किया गया, जिसमें पाकिस्तान के जन्म में इस्लामिक नींव की छाया रखी गयी 1979 में वहाबी इस्लाम को पाकिस्तान में प्रचारित किया गया, जिसे गल्फ प्रांत के राजतंत्रों से खूब पैसे मिले, खासकर सऊदी अरब से। इन्ही के सानिध्य में धार्मिक उन्मादी देश की नींव बन गयी, और ऐसी नीतियों का निर्माण किया जिसमें इनकी और सेना की बोली खूब चलती है, जिससे आज का सिरदर्द पाकिस्तान बना हुआ है।
अफ़ग़ानिस्तान में सोविएत के खिलाफ युद्ध में विद्यार्थियों को जिहाद के लिए उकसाया जाने लगा, जिससे तालिबान और बाकी आतंकी संगठनों की स्थापना भी हुयी। इन्ही नमूनों में से कईयों को भारत के विरुद्ध एक छद्म युद्ध लड़ने भेजा गया था।
इसी युद्ध में सेना को पाकिस्तानी मुल्क और इस्लाम के रक्षकों के तौर पर महिमामंडित किया गया था। जब तक ज़िया उल हक़ सत्ता पर आसीन नहीं हुये, तब तक सेना का काम था सिर्फ देश के सीमाओं की और अंदरूनी सुरक्षा की देखरेख करना, पर ज़िया उल हक़ के अंदर, पाकिस्तान इस्लाम का रक्षक ही नहीं, मानवता का भक्षक बन गया।
ऑफिसर कॉर्प्स में इस्लामिक दर्शन अब एक अहम हिस्सा बन चुका था। शिक्षा के तौर पर मस्जिद में इबादत एक अहमियत बन चुकी थी। यहाँ तक की पदोन्नति भी अब मजहब के नाम पर होती थी। इसी से इस्लामिक मुल्लों और पाकिस्तानी सेना में एक जहरीला और खतरनाक गठजोड़ बना, जिनके मंसूबों का खामियाजा आज भी भारत और उसके नागरिकों को भुगतना पड़ता है। पाकिस्तानी सेना को काफी भरी मात्रा में अभी तक अमेरिकी सहायता मिलती आई है – 9/11 से $11 बिल्लियन डॉलर्स मिल चुके हैं इन्हे, जिसका अधिकांश इस्तेमाल इनहोने भारत के खिलाफ अपनी सेना मजबूत करने में खर्चा किया है।
याद कीजिएगा। 1981 में नवाज़ शरीफ ने ज़िया उल हक़ के सानिध्य में ही पंजाब सालहकार बोर्ड में प्रवेश किया था, और जल्दी ही 1980 के दशक में इनकी दिशा और दिशा, दोनों ने एक नया मोड लिया। 1988 में अपने ही प्रधानमंत्री मुहम्मद खान जुनेजों को हटकर इनहोने नए चुनाव करवाए, पर जहां बाकी सारी विधानसभाये और राष्ट्रीय सभाएं भंग हो चुकी थी, वहीं पर ज़िया उल हक़ ने शरीफ साहब को न सिर्फ बरकरार रखा, बल्कि उन्हे पल्लवित पोषित भी किया अपनी मौत तक अपने पूरे राजनैतिक दौर में मियां नवाज़ शरीफ ने अपने मुल्क के आइन के लिए कोई विशेष हमदर्दी नहीं दिखाई है, और जम्हूरियत [लोकतन्त्र] को ठेंगा दिखने में ये हमेशा अव्वल रहे हैं। इन्ही गुणों के कारण पाकिस्तान ने हमेशा इन्हे जनरल साहिब के सच्चे उत्तराधिकारी के तौर पर माना है।
जो बुरा करता है, उसकी बुराई उनके बाद भी जीवित रहती है। एक बुरे पेड़ की स्थापना जनरल साहिब ने की और उसकी जड़ें आज काफी मजबूत हुई हैं। हालांकि इसका असर हम हिंदुस्तानियों को झेलना पड़ता है।