भगवाकरण के विरोध के नाम पर, आम आदमी पार्टी ने मूर्खता की सारी हदें लांघी

इतिहास उदारवादी

आम आदमी पार्टी ने भगवाकरण के विरोध में इस विरोध से बेवकूफी की सारी सीमाएं लांघ दी

हाल ही में सोमवार को आम आदमी पार्टी भाजपा के खिलाफ विरोध प्रदर्शन पे उतर आई और उनपर देश में शिक्षा के भगवाकरण का आरोप लगाया। आप नेता अतिशी मार्लेना ने कहा, ‘हमारे देश के संप्रभु, सर्वसंस्कृति पर संघ परिवार निरंतर हमला कर रही है, और वे शिक्षा में हस्तक्षेप  करते हुये समाज को एक ही साँचे में ढालना चाहती है।“

ये आरोप इसलिए लगाए गए क्योंकि दीनानाथ बत्रा के नेतृत्व में शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास्थे ने एनसीईआरटी को एक पत्र लिखते हुए पाठ्यपुस्तकों के सामाग्री में बदलाव की मांग की। सुश्री मार्लेना, जो शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया की सलहकार भी हैं, ने कहा:- ‘आरएसएस और भाजपा का शिक्षण क्षेत्र में हस्तक्षेप घूम फिरकर धर्म पर आ कर खत्म होता है। उनके शैक्षणिक सुधारों की सोच सिर्फ अपने सहूलियत के हिसाब से भारत के इतिहास के पाठ्यपुस्तकों को बदलने तक ही सीमित है।“

संगठन द्वारा दिये गए सुझावों की जमकर उदारवादियों और बुद्धिजीवियों ने जमके धुलाई की है और ये लोग अब इस बात को साबित करने की जुगत में है की कैसे तानाशाही भाजपा भारत की संप्रभु संस्कृति को विद्यालय की पाठ्यपुस्तकें बदलकर ‘भगवाकरण’ के विष से कलंकित करने चली है।

अगर एक सधी सोच के साथ इन लोगों ने विचार विर्मश किया होता, तो उदारवादियों ने उचित गलतियाँ ढूंढकर उन्हे ठीक करने के उचित समाधान ढूंढती, है न? अरे नहीं, इतनी भी उम्मीदें मत पालिए, क्योंकि इन लोगों के पास व्यक्तिगत हमले और गली गलौज पर उतारने के अलावा इन्हे उचित विचार विर्मश का दूसरा तरीका समझ ही में नहीं आता।

न्यास के सचिव और वरिष्ठ आरएसएस प्रचारक अतुल कोठारी के द इंडियन एक्सप्रेस को दिये गए साक्षात्कार के अनुसार, “इन पुस्तकों में कई बातें निराधार है और पक्षपाती हैं। इसमें एक वर्ग विशेष को अपमानित करने की मंशा रहती है। यहाँ तुष्टीकरण भी व्याप्त है, आप बच्चों को दंगों के बारे में बताकर प्रेरित कैसे कर सकते हैं। उच्च व्यक्तित्व के प्रतिबिंब जैसे शिवाजी महाराज, महाराणा प्रताप, विवेकानन्द और सुभाष चन्द्र बोस के लिए कोई जगह ही नहीं है।” अतुल इस बात की उम्मीद रखते हैं की सुझावों को तुरंत अमल में लाया जाये।

अगर थोड़ी नज़र दौड़ाई जाये, तो कुछ सुझाव थोड़े अटपटे ज़रूर लगते हैं। हालांकि कई सुझाव उचित भी हैं और इनपर ध्यान देना आवश्यक है। उदाहरण के लिए राजनैतिक विज्ञान के कक्षा XII की पुस्तक में एक वाक्य कहता है की ‘बाबरी मस्जिद को मिर बाक़ी ने बनाया था….. कुछ हिंदुओं का मानना है की इसे श्रीराम की जन्मभूमि पे राम मंदिर को बर्बाद कर के बनाया था।” ये वाक्य इतिहास को तोड़ मरोड़ के पेश करने की एक नापाक कोशिश है, क्योंकि भारत के पुरातात्विक सर्वेक्षण के उत्तरी क्षेत्र के निदेशक, केके मुहम्मद ने खुद इस बात की पुष्टि की है की बाबरी मस्जिद की जगह पे एक मंदिर के अवशेष मिले हैं, जब पुरातत्वविदों ने 1976-77 में एएसआई के डाइरेक्टर जनरल बीबी लाल ने नेतृत्व में वहाँ पर खुदाई की थी।

वापस आते है संगठन के सुझावों पर, जिसमें इनहोने हिन्दी पाठ्यपुस्तकों में से अंग्रेज़ी और उर्दू शब्दों का इस्तेमाल रोकने के लिए कहा गया है। जिसके पास भी थोड़ा सा दिमाग हो, उसे ये पता होगा की किसी भी भाषा की पाठ्यपुस्तक में दूसरी भाषा का उपयोग होना भी नहीं चाहिए। ये कोई भगवाकरण नहीं है अगर हम हिन्दी पाठ्यपुस्तकों में सिर्फ हिन्दी शब्दों की मांग करे।

संगठन ने ग़ालिब की एक नज़्म को भी किताबों से हटाने की मांग की, जो शुद्ध उर्दू लहजे में लिखी गयी थी, ‘हम को मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन दिल को खुश रखने को ग़ालिब, ये ख्याल अच्छा है” जो एक और उचित सुझाव है।

इतिहास की किताबों में मुग़लों पर अध्याय कहता है, “शासक अपनी प्रजा की तरफ काफी उदार थे। सारे मुग़ल राजा इबादत खानों के निर्माण और रखरखाव के लिए कोष निर्धारित करते थे। जब युद्ध में मंदिर उजाड़े जाते थे, तब उनके पुनर्निर्माण के लिए फिर से कोष निर्धारित किया जाता था।“

इससे सफ़ेद झूठ तो शायद ही आपको सुनने को मिले। कई ऐसे दस्तावेज़ मिले हैं जिनमें हिंदुओं के इस्लामिक आतताइयों द्वारा नरसंहार को न सिर्फ़् दर्ज़ किया है, बल्कि कई जगह उनका गुणगान भी किया गया है, तो ऐसे में मुग़लों को उदारवादी बनाना किसी मज़ाक से कम नहीं होगा।

संगठन ने मांग की है की ऐसे वाक्यों को हटाया, और इसमें कोई दो राय नहीं की ऐसी मांगें किसलिए जायज़ हैं, क्योंकि कुछ भी हो, आप बच्चों को इतिहास के नाम पर अपना विषैला प्रोपगैंडा नहीं परोस सकते।

पर जैसा सर्वविदित है, तो संगठन के सुझावों पर ध्यान देने के बजाए उदारवादियों ने तो चरित्र पर सवाल उठाने शुरू कर दिये हैं, और वाद विवाद, उचित चर्चा के बजाए गली गलौज को तरजीह देते हैं। उदारवादियों ने इस तरह शिक्षा और बच्चों को बरगलाने के धंधे पर अपना कब्जा जमाया है, इसके खिलाफ अगर एक तिनका भी उठ खड़े हो जाये, तो उसी को कटाक्ष और गालियां के बाणों से धराशायी कर दे!

ठीक है, कुछ सुझाव बेसिर पैर के ज़रूर यहाँ दिखते हैं, पर इन्हे आपसी बातचीत और विचार विर्मश से सुलझाया जा सकता है, न की गरिया कर। किसी शिक्षित प्रतिक्रिया के लिए अपमान उचित जवाब या तर्क नहीं होता, और अब तो इन उदारवादियों ने ‘भगवाकरण’ पे इतना विधवा विलाप मचाया है, अब इनपर चाहकर भी कोई भरोसा नहीं कर सकता।

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