इस बीमारी के लक्षण स्पष्ट हैं, लेकिन बीमारी का नाम लेना कोई नहीं चाहता

इस्लामिक आतंकवाद

अर्थशास्त्र में मांग (Demand) का नियम पढ़ाया जाता है जो कहता है जब आपकी इच्छा किसी वस्तु को खरीदने की हो और उसे खरीदने की आपकी क्षमता (औकात) हो तभी ‘माँग’ उत्पन्न हुई मानी जाती है। खाली इच्छा होने से बात नहीं बनती। उदहारण के तौर पर हम सब ऑडी की गाड़ी खरीदने की इच्छा रखते हैं लेकिन उसे खरीदनी की औकात नहीं है। इसीलिए ऑडी गाडी की डिमांड उत्पन्न नहीं होती। इसी प्रकार क्षमता तो है पर इच्छा नहीं है तब भी डिमांड क्रिएट नहीं होती। जैसे अम्बनी की क्षमता ऑल्टो गाडी लेने की है पर उनकी इच्छा नहीं है।

बिलकुल इसी प्रकार से अंतरराष्ट्रीय मंच पे सम्मान का नियम है। यदि आपके पास सामरिक (सैन्य) ताकत है और आप उसे इस्तेमाल करने का जिगर रखते हैं तभी आप का सम्मान विश्व भर में होगा अन्यथा आप बस हंसी के पात्र बनेंगे। अमेरिका, इज़रायल आदि देशों का बड़ा सम्मान है क्योंकि इनके पास मारक क्षमता भी है और मारक इच्छाशक्ति भी।

यहाँ अमेरिका की इच्छाशक्ति का एक उदहारण देना चाहूंगा। क्लिंटन बहुत ही नर्म व शांतिप्रिय नेता माने गए हैं। उन्होंने अपना चुनाव भी युद्ध की खिलाफत में लड़ा था। लेकिन उन्होंने भी मौका आने पर अपनी मारक क्षमता और इच्छाशक्ति का परिचय दिया। सन 1998, नैरोबी, केन्या में अमेरिकी दूतावास पर एक आतंकी हमला हुआ। दूतावास के सामने श्रृंखलाबद्ध तरीके से कई बम विस्फोट हुए। ठीक उसी समय तंजानिया के शहर ‘दर-ऐ-सलाम’ के अमरीकी दूतावास के बाहर भी वैसे ही बम विस्फोट हुए। अब यह साफ़ था कि लक्ष्य अमेरिका ही था। जांच करने पर पता चला कि इन हमलों के पीछे इस्लामिक कट्टरपंथी आतंकी संगठन ‘अल-कायदा’ का हाथ है। क्लिंटन जो युद्ध विरोधी माने जाते थे ने 2 दिन बाद ही ‘Operation Infinite Reach’ को अपनी स्वीकृति दे दी। जिसके अंतर्गत अमरीकी क्रूज मिसाइलों ने सूडान और अफगानिस्तान के अल-कायदा ठिकानों को ध्वस्त कर दिया। किसी दूसरे स्वतंत्र राष्ट्र पर हमला करने से पहले अमरीका ने संयुक्त राष्ट्रों (यूनाइटेड नेशन्स) से पूछना भी मुनासिब नही समझा। बिना UN की स्वीकृति के यह हमला जारी रहा जिसमे बहुत से निर्दोष आम नागरिक भी मारे गए। लेकिन अमरीका ने विश्व को बता दिया था कि उन्हें एक लोकतान्त्रिक देश मान कर हल्के में न लिया जाए।

यहाँ एक छोटे से देश इजराइल की इच्छाशक्ति का जिक्र भी जरूरी हो जाता है। सन 1972 के ओलंपिक खेल जर्मनी के म्युनिक शहर में हो रहे थे जिसमें इसराइल भी भाग ले रहा था। वहाँ फिलिस्तीन के एक आतंकी संगठन ‘ब्लैक अक्टूबर’ ने हमला कर 11 इसराइली खिलाडियों को मार दिया। यह घटना इजराइल की सामरिक ताकत को खुली चुनौती थी। इसराइल की ख़ुफ़िया एजेंसी ‘मोसाद’ ने इस हमले में किसी भी रूप में शामिल लोगों की एक लिस्ट तैयार की। तब इसराइल की पहली व एकमात्र महिला प्रधानमंत्री ‘गोल्डा मियर’ ने ‘Operation Wrath of God’ को स्वीकृति दी। जिसके अंतर्गत मोसाद ने अगले 20 सालों में चुन चुन कर हर एक आदमी को मारा जो उस लिस्ट में थे। उनमें कई आदमी ऐसे भी थे जो दो-चार दिन में उम्रदराज होने की वजह से वैसे भी मरने वाले थे। लेकिन इसराइल ने अपने प्रतिशोध में किसी भी प्रकार की संवेदनाओं को आने नहीं दिया। आजतक इस ऑपरेशन की चर्चाएं होती हैं। दुनिया आज तक इजराइल की इच्छाशक्ति का लोहा मानती है।

इसी सन्दर्भ में भारत की स्थिति देखते हैं। भारत विश्व की चौथे नंबर की सामरिक ताकत है। हथियार खरीदने में नंबर एक है। लेकिन भारत इन हथियारों का प्रयोग करने का साहस नहीं दिखा पाता क्योंकि इस विशाल सामरिक ताकत का साथ राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं दे पाती। यहाँ हो रही वोट बैंक की राजनीति सरकार को किसी भी प्रकार का ठोस कदम उठाने से रोकती है। गृह मंत्री श्री राजनाथ सिंह का अमरनाथ हमले के सन्दर्भ में दिया गया ‘कश्मीरियत’ वाला बयान इस कमजोरी को दिखाता है।

70 सालों से इस्लामिक आतंकवाद से त्रस्त होने बावजूद आज तक हमने नहीं स्वीकारा कि हमारी समस्या इस्लामिक आतंकवाद है। अमरीका व इजराइल खुल कर इस्लामिक आतंकवाद शब्द का प्रयोग करते हैं।

हाल ही में ब्रिटेन ने भी इस्लामिक आतंकवाद को स्वीकार लिया है। लेकिन भारत अभी भी ‘आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता’ का झूठा राग आलाप रहा है। इस्लामिक आतंकवाद नाम की इस बीमारी का इलाज़ तब शुरू होगा जब बीमारी पहचान ली जाएगी। बीमारी की लक्षण स्पष्ट हैं लेकिन बीमारी का नाम लेना कोई नहीं चाह रहा।

यहाँ यह बात समझ लेनी जरूरी है कि कायर को अहिँसा का पाठ पढ़ाने का हक़ नहीं होता। शांति और सुरक्षा का एकमात्र उपाय अपने आप को हमेशा युद्धोद्यत (War Ready) रखना है।

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