नीतीश बाबु को डेढ़ साल बाद ही सही, पर अकल आ ही गयी

नीतीश कुमार बीजेपी

हम कभी न कभी अपने जीवन में वाहियाद निर्णय लेते ही हैं। आखिर इंसान जो ठहरे, भगवान तो है नहीं। जो अनोखे को भीड़ से अलग करता है, वो यह की उन गलतियों को वो आम लोगों से पहले सुधार लेता है। डेढ़ साल पहले, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी एक ऐसी एक भयानक भूल की थी, जब उन्होने एक 17 साल पुराने गठबंधन से टूटने का निर्णय लिया था, जो गठबंधन आपसी विश्वास और समान लक्ष्यों की नींव पर निर्मित था। ठीक है, विचारधारा में बीजेपी और जदयू थोड़ी अलग थी, पर दोनों का लक्ष्य एक ही था, बिहार को उठाना और विकास के पथ पर लाना।

अब अगर ऐसे विषय पर लेख लिख रहे हों, तब गोल गोल घूमना तो बहुत बचकानी हरकत होगी। क्या ये दोषी है? निस्संदेह। क्या ये क्षमा मांगेंगे? कतई नहीं। इसके आस पास मैं फटकना भी नहीं चाहता, पर राजद का मायाजाल ही कुछ ऐसा है, की बिना इसमें अंदर तक घुसे आप इसके बारे में लिख ही नहीं सकते।

मैं तो यह भी नहीं बताऊँगा की कैसे भारतीय मीडिया लालू यादव और उनके परिवार को दूध का धुला साबित करने में लगी हुई है, मानो इन्हे माँ गंगा ने निर्दोष सिद्ध किया हो। पूरे भारत की तरह बिहार भी गंगा की माँ समान पूजा करता है, इस हद तक की शुद्धिकरण के लिए गंगाजल का ही इस्तेमाल होता है। पर मुझे तो संदेह है की गंगा मैया इनके सारे पाप धोने में सफल हो पाये।

नीतीश बाबू इस बात को जानते हैं। उन्हे हमेशा से पता था। पर अपने अहंकार में उन्होने बिहार के वर्षों बाद बढ़ते विकास पथ [जो अपना खोया ज़मीर वापस हासिल करने में लगा था, जिसे प्रशंसा और निवेश दोनों ही मिल रहा था] को ही लात मार दी।

यह वहाँ की जनता को भी पता है, क्योंकि बिहार के राजनैतिक पटल पर जो बदलाव आया है वो रातभर में नहीं आया है, बल्कि इसकी सुगबुगाहट कई महीनों से महसूस की जा रही थी।

जो भाजपा के विजयी रथ को धराशायी कर सके, वैसी विचारधारा की खोज करेने में विपक्ष वाले औंधे मुंह गिरे हैं। कन्हैय्या कुमार आए और चल लिए, और ऐसा ही हश्र हुआ अवार्ड वापसी गैंग का, और मेरा मुंह अभी और मत खुलवाइए। सुगठित नेतृत्व में भाजपा को शुरुआती झटके लगे ज़रूर, पर इसका कोई खास इनपे नहीं पड़ा, और साथ ही साथ इनहोने किसी भी अपराध की आंच अपने ऊपर नहीं आने दी। हमारे देश में इस तरह अपनी साफ सुथरी छवि बनाकर बरकरार रखना कोई हंसी मज़ाक थोड़ी है। ऊपर से नीचे तक, कई परतें होती हैं, और अगर कोई कमी होती, तो हमारी परम पूज्य मीडिया की कृपा से दिख भी जाती। फिलहाल तो खुशकिस्मती से ऐसा कुछ भी नहीं दिखा है।

इसे नीतीश बाबू बखूबी जानते है। मोदी और उनकी पार्टी ने इनकी विकास पुरुष की छवि को धूमिल कर दिया है। इनहोने धर्मनिरपेक्षता का वर्षों पुराना तरीका भी अपनाया, पर डेढ़ साल की बेइज्जती के बाद इन्हे समझ में आ रहा है, की भ्रष्ट नेताओं से बनी एक पार्टी के साथ इनका जाना कितनी भारी भूल थी। हुआ भी वही। अभी नीतीश बाबू ने उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव का लगभग इस्तीफा ही मांग लिया है, जो भ्रष्टाचार से जुड़े कुछ मामलों में नामजद हैं, यह दोहराते हुये की अगर यादव जी निर्दोष हैं तो तथ्यों से उसे सिद्ध करें।

इस गठबंधन के दिन अब लद गये हैं। बीजेपी ने भी अपना दांव चल दिया है। उन्हे नीतीश से चिढ़ नहीं है, उन्हे तो सिर्फ राजद से चिढ़ मचती है, और अभी भी है।

ये तो भाई विकास बाबू ही थे जो कथित तौर पर एक गुजरात के सांप्रदायिक मुख्यमंत्री से जुडने में शर्म महसूस करते थे। इसके बावजूद भाजपा सबके भले के लिए उसे बाहर से समर्थन देने को आतुर है, ताकि सबका विकास हो सके। मुझे याद है की कैसे नीतीश बाबू ने एक बार गुजरात से मिली बाढ़ के लिए सहायता लौटा दी थी। तब कारण जो दिया गया था, वो तार्किक बिलकुल नहीं थे पर आने वाली घटनाओं का एक सूचक था।

क्या क्या करना पड़ता है सत्ता की भूख में……

छोड़िए, अभी भटकने का वक़्त नहीं है।

नीतीश अब विकास का चेहरा बिलकुल नहीं है। मीडिया इसे मानने से भले ही इंकार करे, मोदी के प्रति अपनी नफरत के पीछे, पर राजद के साथ जाने से इनका बजाए फायदे के नुकसान ही हुआ है। इनहोने शायद लालू की डूबती नैया को पार लगाने का बीड़ा उठाने की सोची, पर हुआ ठीक उल्टा।

पर चलो, देर आए, दुरुस्त आए। नीतीश के हालिया बयान से लगता है और थोड़ी अकल वापस आई है जदयू के खेमे में। भाजपा के राष्ट्रपति उम्मीदवार को समर्थन देकर इनहोने सार्वजनिक तौर पर स्वीकार भी किया की यह प्रधानमंत्री पद के लिए 2019 में योग्य कतई नहीं है, जिससे महागठबंधन का 2019 फतेह करने का सपना बनने से पहले ही बिखर गया।

ये साफ ज़ाहिर करता है की की बिहार की राजनीति का वर्तमान दौर नीतीश कुमार के लिए आखरी कड़ी है, क्योंकि वो हार मानते नहीं दिख रहे। क्योंकि सच पूछें तो अब उन्हे अपनी छवि बनानी, या कहें तो दोबारा बनानी है। ऊपरी जातियों वैसे ही इनके विरुद्ध लामबंद हैं, और जिनहोने इन्हे सत्ता तक पहुंचाया, उनका समर्थन भी बरकरार रखने में नाकाम रहे हैं। जब एक ऐसे जहाज़ के कप्तान हों, जिसका मन सच्चा है परन्तु जहाज में बुराइयां ठूस ठूस के भरी हो, ऐसे डूबते जहाज़ से कूद जाना ही श्रेयस्कर होगा।

खैर! आभास तो इन्हे हो हो चुका है, पर भाजपा का दामन थम ये अपना घमंड कब तोड़ते हैं, और समझते हैं की बिहार का मूड देश के मूड से भिन्न नहीं है। जो राज्य इतना विचित्र और भिन्न हो, वो वर्षों तक एक परिवार द्वारा किए गए कुशासन से तो ज़्यादा बेहतर की उम्मीद रख सकता है, और उसके योग्य भी है।

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