मोदी जी ने इस कारण से फ़लस्तीन की यात्रा नहीं की, और सच वो नहीं जो आप समझते हैं

इज़राएल फ़लस्तीन मोदी

Image Courtesy: Firstpost

इतिहास पढ़ने से अधिक दिलचस्प है उसकी व्याख्या करना। वाद विवाद में नाम और तारीख याद करना आवश्यक है पर इसमें खो जाता इतिहास को पढ़ने का सार और उसका मुख्य उद्देश्य। इतिहास के एक अहम अध्याय से आज की व्याख्या करना और भी ज़्यादा दिलचस्प बनता है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इज़राएल की यात्रा कर रहे हैं, पर सिर्फ इज़राएल की, न की फ़लस्तीन की

ये भारत के मिडिल ईस्ट के साथ संबंध को एक अहम मोड़ देता है। कुछ साल पहले, ऐसे यात्रा की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। एक भारतीय प्रधानमंत्री इज़राएल की यात्रा कर रहा, ये अविश्वसनीय तो है ही, उससे भी ज़्यादा अविश्वसनीय है इस यात्रा में फ़लस्तीन का नामोनिशान न होना।

भारत के संबंध दूसरे देशों से कैसे संभाले जाते हैं, इसमे पहले के रवैये और नरेंद्र मोदी के रवैये में ज़मीन आसमान का फर्क है। चेहरे भले ही बदलें हो, पर सिक्का तो सदैव नेहरू के नीतियों का चला है। ज़रूरत के हिसाब से इन्दिरा गांधी और पीवी नरसिम्हा राव ने कुछ बदलाव किए। वही दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी ने आवश्यकतानुसार विदेश नीति का निर्माण किया, जिसमें भारत के एक देश के तौर पर पड़ने वाली ज़रूरत को दायरे में रखते हुये किया गया।

नेहरू अपने लिए एक ऐसी छवि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद बनाना चाहते थे, जिसमें वो न तो पूंजीवादियों के प्रति आसक्त दिखें, और न ही साम्यवादियों के प्रति [ये अलग बात है की उनकी रूस के प्रति आसक्ति कुछ और ही बयां करती थी]  जहां ये लड़ाई में दीवार पर बैठने में विश्वास रखते थे, मोदी के पास ऐसा नौटंकी करने की सुविधा न थी, वो भी ऐसे विश्व में जो बहुआयामी है, जहां पर कई समुदाय अपने अपने तरह के पूंजीवाद या साम्यवाद या धार्मिक उन्माद या फिर राष्ट्रवाद की उपासना करते हैं

कहने को साम्यवादी चीन व्यक्तिगत अधिकारों की आहुती देकर एक निहायती पूंजीवादी राज्य की तरह काम करता है। पूंजीवादी अमेरिका उधर न सिर्फ व्यक्तिगत अधिकारों की सुरक्षा करता है, अपितु वैश्वीकरण को भी बाहर फेंकता है, क्योंकि वह राष्ट्रवादी भी बन रहा है। हिटलर के अपराधों के लिए हर वक़्त क्षमा मांगने वाली यूरोप इतनी उदारवादी तो कभी न थी, जबकि रानी के साम्राज्यवादी द्वीप अब अपने ही क्षेत्रीय समुदाय को ठेंगा दिखा रही है। अरब तो एक अलग ही गुट है, और एक ही व्यापारी से एक दूसरे को मारने के लिए  हथियार खरीदेंगे। क्योंकि दुनिया के कई हिस्सों में युद्ध अब एक आम बात बन चुकी है, तो शायद मानव जीवन इतना सस्ता भी कभी न रहा होगा।

स्वतन्त्रता के पश्चात भारत का इज़राएल के प्रति दो बिन्दुओं द्वारा संचालित था। एक था स्थानीय मुस्लिम आबादी का तुर्की अथवा इस्लामी खिलाफत के प्रति वफादारी। दूसरी है कैसे इज़राएल अपने वर्तमान स्वरूप में आया। इज़राएल ने अपने आप को एक राष्ट्रवादी लोकतन्त्र में परिवर्तित किया, उसी कारण को अपनाया जिसकी वजह से करोड़ों यहूदियों को अपना देश छोडना पड़ा। और इनहि दो कारणों ने भारत को इज़राएल से दूर बनाए रखा।

अब दूसरे कारण पर प्रकाश डालें। अपने आप को पीड़ित कहते हुये यहूदी जर्मनी से भागे और कई अन्य यहूदियों के साथ अपने मातृभूमि वापस आए, किसी रीति को पूर्ण करने। पर यहाँ एक समस्या थी, यहाँ दो हज़ार वर्षों से व्याप्त अरबियों को हटाना। अरबों को उनके घर से हटाना निंदनीय है, क्योंकि यहूदी जिस भी देश में थे, वहाँ पर शरणार्थी के अलावा कुछ नहीं थे। अपने दोगलेपन के लिए कुख्यात अरबी सहयोगियों ने इनकी प्रार्थनाएँ अनसुनी कर दी। भारत चूंकि तटस्थ था, या उसका नाटक कर रहा था, इस मसले पर फ़लस्तीन के साथ खड़े होने की शपथ ली। क्योंकि विभाजन का दर्द भारत ने भी झेला था, इसलिए वो इज़राएलियों के अरबों को उनके घर से खदेड़ने के कारण इज़राएल के पक्ष में नहीं खड़ा होना चाहता  थी – ऐसे इसे वर्षों तक समझाया गया।

इसके साथ भारतीय मुसलमानों का प्रभुत्व देखिये, इनके साथ समस्या ये हैं की यह सीमापार के उपदेशों को शाश्वत सत्य समझने की भूल करते हैं। यहूदियों द्वारा कथित रूप से भगाये गए अरबों में ईसाई और मुस्लिम दोनों थे, पर सब समझते हैं की सारे अरबी मुसलमान है, और इनके लिए ईसाई अरब की सोच का कोई स्थान न था। जब तक फर्क समझा, अरब में ईसाई ही न बचे। विशाल मुस्लिम आबादी को मनाने और अंदरूनी अशांति को रोकने के लिए भारत ने फ़लस्तीन के प्रति हमदर्दी बढ़ानी शुरू की। निस्संदेह फ़लस्तीन को उसके साथ हुए अन्याय के लिए सहानुभूति मिलना अवश्यंभावी थी, पर भारतीय मुसलमानों का प्रभुत्व ही मुख्य कारण था की क्यों भारत ने इज़राएल को ठेंगा दिखाया।

पर इसके पश्चात भी इज़राएल एक ताकतवर मुल्क के तौर पर खड़ा हुआ, और भारत ने राव के वक़्त गर्मजोशी भी दिखाई, हालांकि वो ज़्यादा नहीं थी। पर इस पृष्ठभूमि में मोदी की यात्रा इस रीति के सर्वथा विरुद्ध लगती है।

कई महान आलोचक हैं असदुद्दीन ओवैसी की तरह , जो मोदी को फ़लस्तीन में भी देखना चाहते थे। उनके अनुसार ‘फ़लस्तीन के मक़सद का क्या?’ उन्होने यह नहीं बताया की कैसे ये कथित इस्लामिक मुल्क वक़्त बेवक्त भारत के साथ विश्वासघात करते आए हैं और फ़लस्तीन का कभी साथ नहीं दिया? चर्चा भी गरम थी ये कैसे इज़राएल और सऊदी को एकत्रित कर ईरान के खिलाफ युद्ध करना चाहते हैं। और तो और, सद्दाम हुसैन वाले इराक को छोडकर किसी ने भी हमारा कश्मीर मुद्दे पर कभी समर्थन नहीं किया, बल्कि पाकिस्तान को बेहिसाब मदद दी।

जो बेइज्जती अरब भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमानों की करते हैं, उससे अभी कुलीन भारतीय मुसलमानों की आँखें नहीं खुली है, जो अपने आप को हिंदुओं से अरब के नजदीक समझते हैं।

अब ये सब राजनैतिक कारण है और मोदी के विदेश नीति का एक छोटा सा हिस्सा है। पर जो इस विदेश नीति का मूल आधार है, वो है व्यापार। खुद एक ‘चतुर बनिया’ होते हुये मोदी सिर्फ उनही चीजों पर उस देश से संधि करते  हैं, जो वो चाहते है। भारत के कश्मीर राज्य पर ईरान के कडवे बोल के बाद भी वे अरबों डॉलर के एक तेल क्षेत्र का निर्माण करने पर मुहर लगा रहे हैं। फ़लस्तीन भारत को क्या दे सकता है? कुछ नहीं।

ये सही समय है भारत के लिए आगे बढ़कर समय के साथ नीतियाँ बदलने का। कोई भी नीति, यहाँ तक की वर्तमान नीति भी हर वक़्त नहीं टिक सकती। समय के साथ चीज़ें भी बदलती हैं और रिश्ते भी।

शायद फ़लस्तीन की यात्रा न करने का अर्थ अरब देशों के लिए ये संकेत है की अब वे भारत के अंदरूनी मामलों में टांग अड़ाना बंद करे। इज़राएल यात्रा भारत की आवश्यकता है। शायद बुरा लगे, पर विदेश नीतियाँ भी आज एक गला काट व्यापार है।

Exit mobile version