बाधाओं के एक सागर को लांघने के बाद आखिरकार प्रसिद्ध फ़िल्मकार मधुर भंडारकर की भारतीय आपातकाल पर बनी फिल्म इन्दु सरकार कुछ ही दिन पहले सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई। तानाशाही काँग्रेस पार्टी, जिनके लिए इस फिल्म के बारे में सोचना तक तौहीन था, से लेकर अति सक्रिय सेंसर बोर्ड, जिनहोने इस फिल्म में फर्जी के 12 कट सुझाए, के प्रकोप झेलते हुये इन्हे सूप्रीम कोर्ट से अप्रत्याशित सहायता मिली, जिनहोने प्रीति सिंह कौल, जो कथित रूप से संजय गांधी की पुत्री हैं, की याचिका को ठुकराते हुये इस फिल्म के प्रदर्शन को हरी झंडी दी।
पर वो एक चीज़, जो मधुर भंडारकर अपने ध्यान में रखना भूल गए, वो थी कथित फिल्म समीक्षकों की कुदृष्टि, जिनमें से कई तो उदरवादी, और वामपंथी मानसिकता के बुद्धिजीवियों के रहमोकरम पर पलते हैं, और जो इसे जनता तक न पहुँचने देने के लिए किसी भी हद तक गिरा सकते हैं। आपको यकीन नहीं होता न? तो खुद ही देखिये:-
मधुर भंडारकर की फिल्म एक नीरस, राजनैतिक नौटंकी है – NDTV समीक्षा
आपातकाल पर मधुर भंडारकर की यह फिल्म आपातकाल से भी बुरी है– India Today समीक्षा
आपातकाल का ठंडा, रक्तहीन संस्कारण – The Indian Express समीक्षा
हाँ, ये ऐसे ही समीक्षकों के बोल हैं, जो ये सुनिश्चित करना चाहते हैं की भारत के काले अध्यायों में से एक, आपातकाल पर बनी एक ईमानदार कोशिश, और ‘फ़ैशन’ के बाद मधुर भंडारकर की बेहतरीन फिल्मों में से एक अपनी गुमनाम मौत मरे, और जनता के सामने ना आ सके। मज़े की बात तो देखो, दो समीक्षक, विशेषकर रेडिफ और इंडिया टूड़े वाले, वही लोग हैं, जिनहोने विवेक अग्निहोत्री की ‘बुद्धा इन अ ट्रेफिक जैम’ को बिना देखे ही इनकी नकारात्मक समीक्षा देने लगे थे ।
ये तो कुछ भी नहीं है। मैं वैसे तो लोगों पर सीधी उंगली नहीं उठाता, पर ऐसे समीक्षकों के दलदल से एक समीक्षक को ज़रूर बाहर लाना चाहूँगा, जिनका नाम है शुभ्र गुप्ता, और ये बदकिस्मती से कभी राष्ट्रवादी रही द इंडियन एक्सप्रेस में अपने लेख छपवाती है। किसी आम दिन पर कोई भी मूवी चाहे जितनी ही मज़ेदार और रोचक क्यों न हो, उसकी चीर फाड़ करने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी, पर इनके एजेंडा के मुताबिक फिल्म आ जाये, जैसे नारिवाद के नाम पर भौण्ड्पना और अश्लीलता परोसती ‘लिपस्टिक अंडर माइ बुर्का’, तो देखिएगा कैसे पालक पावड़े बिछाकर ऐसी फिल्मों का स्वागत करती है। ‘इन्दु सरकार’ भी इनकी कुदृष्टि से नहीं बच पायी है, तो इसलिए हमारा ये जानना बहुत ज़रूरी है की ‘इन्दु सरकार’ वाकई में एक देखने लायक कहानी है या फिर बस एक और सिनेमाई करिश्मे के नाम पर परोसा जाने वाला उपदेश है। तो चलिये, और देखिये इसे:-
इन्दु सरकार की पृष्ठभूमि भारत में लागू आपातकाल है, जिसे एक अनाथ कवियत्री इन्दु [कीर्ति कुलहरी], अपने आँखों से देखती है। इन्दु को हकलाने की बीमारी है, जिसे न तो उसे माँ बाप मिल पाते हैं, और न ही एक अच्छा पति। फिर इनकी मुलाकात होती है नवीन सरकार [तोता रॉय चौधरी], जो एक आकांक्षी नौकरशाह है, और जिसे इन्दु के हकलाने से कोई दिक्कत नहीं है। वो किसी भी तरीके से ऊपर पहुँचना चाहता है, और इसी पसोपेश में आती है 1975 का वो भयानक दौर, जब पूरे भारत में आपातकाल लागू हुआ था , और यही डरी सहमी सी इन्दु और उग्र नवीन में एक दरार सी खींच देता है, और नवीन इसके विरुद्ध एक शब्द नहीं सुनना चाहता है, क्योंकि वो वाणिज्य मंत्री ओम नाथ राय के चापलूस भी हैं, जो नवीन को इस वक़्त में प्रगति करते देखना चाहते हैं, ताकि वो अपने चीफ़, और कुख्यात तानाशाह संजय गांधी [नील नितिन मुकेश] के खास बन सके, जो अपनी तानाशाह का डंका पूरे भारत में बजवाना चाहते हैं।
वहीं दूसरी तरफ इन्दु दिल्ली की सड़कों पर हो रहे हजारों निर्दोषों के साथ अत्याचारों को बर्दाश्त नहीं करती और अपने पति के हाथों धोखा खाने के बाद एक भूमिगत क्रांतिकारियों की टोली, हिम्मत इंडिया संगठन का हिस्सा बनती है, जिसका नेतृत्व भेस बदलने में माहिर एक गांधीवादी क्रांतिकारी, नानाजी [अनुपम खेर] करते हैं। फिर जो होता है, वो एक अहम बदलाव है, एक हकलाती कवियत्री से एक निडर क्रांतिकारी की ओर, जो तब तक नहीं रुकेगी जब तक वो देश को गांधी परिवार के अत्याचारों से मुक्त नहीं कराती।
इन्दु सरकार में क्या अच्छा है:-
‘हीरोइन’ और ‘कलेंडर गर्ल्स’ जैसी आपदा झेलने के बाद, निर्देशक मधुर भंडारकर ने इस मूवी से अपनी वापसी दर्ज कराई है। इनहोने उस काल की तरफ एक विशेष ध्यान दिया है, और इस बात पर विशेष ध्यान है की कुछ भी पीछे नहीं छूते। दिल्ली की आबोहवा में चाहे पॉश इलाके हों, या तुर्कमान गेट के पास की झुग्गियाँ हो, मधुर भंडारकर ने उस काल की सफल रचना की है। जब इन्दु और नवीन के बीच प्रेम दृश्य दिखाये जा रहे हो, तब पीछे से बजती ‘ये समां’ की मधुर धुन आपको एक अलग ही दुनिया में ले जाती है।
वैसे भी, जिस तरह से पुलिस वालों ने गरीब और पिछड़े लोगों के साथ बर्ताव किया था, चाहे वो तुर्कमान गेट पे हो, या जबरन परिवार नियोजन योजना को लागू करना हो, मधुर भंडारकर ने आपको इन्दिरा सरकार द्वारा जनता की तरफ दिखाई गयी बेरुखी से आपको शर्मिंदगी से लाल पीला होने पर विवश कर देगा, जहां मंत्री और नौकरशाह सिर्फ ‘माँ बेटे’ की जोड़ी की खुशामद करने में लगे रहते थे। जब एक वयोवृद्ध आदमी और एक छोटे से बच्चे पुलिस से ये पूछते हैं की उनकी ज़बरदस्ती नसबंदी क्यों कराई जा रही है, तब आप किसी तरह नहीं मुस्कुरा सकते।
यहाँ तक की जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को गरियाया जाता है धर्मनिरपेक्षता के नाम पर, उसे भी उचित समय और ध्यान दिया गया है, और स्वयंसेवकों को जिस तरह बिना वजह पकड़ कर आंतरिक सुरक्षा के नाम पर अंदर डाला गया, उसका भी सटीक चित्रण किया गया है। इनके सबके बावजूद, अगर इन आतताइयों की राष्ट्रकुल सांसदीय सम्मेलन कराने की हिमाकत होती है, जहां ये भारत को एक खुशहाल और समृद्ध देश दिखाना चाहते हैं, तो इसे देख आप भी निस्संदेह उल्टी करने को मजबूर हो जाओगे। आखिर कोई इतनी बेशर्मी से झूठ कैसे बोल सकता है? यहाँ पर एक ऐसा दृश्य भी है, जहां हम देखते हैं की कैसे किशोर कुमार का संजय गांधी के परिवार नियोजन के गुणगान करने के संजय गांधी के फरमान को मना करने पर उनके सारे गाने ऑल इंडिया रेडियो पर प्रतिबंधित कर दिये गए थे।
शायद भारतीय आपातकाल के यही दृश्य आपकी नज़रों से समीक्षक दूर रखना चाहते हैं। सबसे अहम बात, वो हमें ये जानने देना नहीं चाहते हैं की उस वक़्त में लोग कैसे अपने हक के लिए लड़ते थे और फिर यही लोग एक चुनी हुई, राष्ट्रवादी सरकार को फासीवादी बताते हैं! हाय रे दोगलापन…..
इन्दु सरकार में क्या उत्कृष्ट है:-
इन्दु सरकार में अभिनेताओं ने जितनी मेहनत की है, वो निस्संदेह अद्भुत है। तारीफ़ों की सबसे बड़ी हकदार निस्संदेह इस फिल्म की मुख्य अभिनेत्री कीर्ति कुलहरी है, पर बाकी अभिनेताओं ने भी कोई कम योगदान नहीं दिया है। एक विशेष स्थान दिया जाने जाना चाहिए अनुपम खेर को, जिनहोने थोड़े से समय में ही अपनी गहरी छाप छोड़ दी। नील नितिन मुकेश ने इस फिल्म से धमाकेदार वापसी की है, और उनके किरदार को फिल्म में नाम न दिये जाने के बावजूद उन्होने बिगड़ैल अमीरज़ादे संजय गांधी का सटीक चित्रण किया है। यहाँ तक की तोता रॉय चौधरी भी नवीन सरकार के किरदार में किसी प्रकार से नाटकीय नहीं लग रहे थे।
सहायक मंडली भी कमाल की थी। चाहे वो एक अधीर क्रांतिकारी शिवम रेड्डी का किरदार निभा रहे अंकुर विकल हों, या वो लड़की, जो कई लोगों को संजय गांधी की खास, रुख़साना सुल्ताना की याद दिलाती थी, इन सभी ने इस मूवी में अपनी अमित छाप छोड़ी है।
इन्दु सरकार में क्या और बेहतर हो सकता था:-
शायद मधुर भंडारकर अपनी फिल्म को उचत्तम बनाने में एक जगह चूक गए, और वो था ध्वनि नियंत्रण, जिसके कारण जिन दृश्यों में संवाद की महत्ता ज़्यादा थी, उसमें कुछ नाटकीय ध्वनियों ने पूरा का पूरा माहौल ही बिगाड़ दिया। इसी गलती ने अग्निपथ मूवी [1990 में मुकुल आनंद द्वारा निर्देशित] को उसकी उचित कामयाबी नहीं दी थी।
अगर यह एक गलती न होती, और इन्दु सरकार फिल्म थोड़ी और कड़क लगती, तो इन्दु सरकार जैसी फिल्म ‘सदियों में एक’ की उपाधि से अवश्य नवाज़ी जाती।
निस्संदेह ये मधुर भंडारकर की सर्वश्रेष्ठ कृति नहीं है, पर जिस समय कोई भी सच बोलने से दर्ता हो अपने भारत में, मधुर भंडारकर ने उस सच को पर्दे पर दिखाने की हिम्मत तो की, और काफी अच्छी कोशिश की।
मैं तो खुद इस फिल्म को 10 में 7.5 अंक दूँगा। अगर ध्वनि की तीव्रता को हटाएँ, तो इन्दु सरकार ज़रूर एक अच्छी, और देखने लायक मूवी है।