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हजारों वर्ष पहले, महानदी के तट पर शिकार करते हुये केसरी वंश के एक राजकुमार अपने साथियों से काफी दूर चले गए। घंटों तक भटकने के बाद ये नदी पार कर एक दलदली द्वीप पर पहुंचे, जहां शास्त्रों के अनुसार इनहोने एक कबूतर को एक चील का माता चंडी के मंदिर के सामने वध करते देखा।
उस राजकुमार को आभास हुआ की उसने एक ऐसे स्थान की खोज की है, जहां कलियुग का अभी तक प्रकोप नहीं पड़ा है, जहां धर्म के योद्धा अधर्म के विरुद्ध अभी भी डटे रह सकते हैं। माँ चंडी के इस दैवीय आशीर्वाद से अभिभूत होकर इस राजकुमार ने उक्त मंदिर के इदगिर्द एक किले का निर्माण किया।
दो सौ साल से ज़्यादा समय के बाद, इनकी इसी विरासत की परीक्षा ली गयी।
चार सौ वर्षों से चले आ रहे भारत के दुर्गों की रक्षा कर रहे काबुल के राजाओं और अरब प्रान्तों से उमड़ उमड़ कर आ रही असंख्य भीड़ के बीच हो रहे युद्ध पर पूर्णविराम तब लगा, जब राजा त्रिलोचन की छलपूर्वक हत्या की गयी, और यही हश्र उनके उत्तराधिकारी के साथ हुआ। फिर क्या था, ये भीड़ आगे बढ़ी, जहां इनका मुकाबला दिल्ली के वीर, राजपूत राजाओं से हुआ, जिनहोने इन आतताइयों को दो शताब्दियों तक रोक के रखा। पर एक दिन, सब कुछ बिखर गया।
आतताइयों की भीड़ ने सिंधु – गंगा घाटियों, और उसके बाद जो खून की नदियां बही, उसे समाने के लिए कोई भी इतिहास की किताब काफी नहीं पड़ेगी। मूर्ति की मूर्ति तोड़ी गयी, मंदिर ढहाए गए, नगर के नगर स्वाहा हुये, हजारों बेगुनाहों को धार्मिक उन्माद की बलि चढ़ाई गयी। कई महिलाओं की इज्ज़त लूटी, उन्हे सरेआम ग़ुलाम बना बाज़ारों में बेचा गया। कभी दुनिया के सबसे समृद्ध और विशाल नगर माने जाने वाले नगर – मथुरा, काशी या बनारस, पाटलीपुत्र और कन्याकुंभ जैसे नगर रातों रात भुतहा प्रतीत होने लगे। अपने चरम पर इन इस्लामिक आतताइयों का कोई तोड़ नहीं था, बंगाल तो इतने आराम से इनकी झोली में आ गया, की सदियों तक ये मिथ्या गूँजती रही की सिर्फ अट्ठारह घुड़सवारों ने मिलकर इस राज्य पर अपना कब्जा जमाया।
1191 सी.ई. से पहले एक भी क्षेत्र की कमान अपने हाथ में न ले पाने वाले सल्तनत के आततायी महज 15 सालों में गंगा के मुख तक अपना कब्जा जमाने में सफल रहे।
इस वक़्त तक सबने मान लिया था की अब भारत को कोई नहीं बचा सकता। विश्व की सबसे उर्वरक भूमि – सिंधु और गंगा घाटियों, दोनों पर दिल्ली सल्तनत का कब्जा जमा हुआ था। लूट और गुलामों से इनके सैनिक लदे हुये थे। हर दिन हजारों की भीड़ में तुर्क, अरब या अन्य कबालियों की हिंसक भीड़ आती और भारतीय शहरों में जो कुछ भी बचा था, उसे उठा ले जाती। विंध्याचल के पहाड़ी राजाओं को किसी प्रकार की दिक्कत नहीं थी, पर देवगिरि के यादवों को छोडकर बड़े कम राजा थे, जो ऐसे आतताइयों से लड़ने का दमखम रखते थे। पूरब की भूमि एक सपाट सड़क समान थी, जो इस्लामी बंगाल की राजधानी गौड़ा से शुरू होकर कन्याकुमारी में खत्म होती थी। 1200 सी.ई. में रचित दभोई पाण्डुलिपि में इन अत्याचारों का बखूबी बखान किया गया है :- “इस पृथ्वी पर कई दैवीय राजा उपस्थित हैं, पर तुर्की शासक का नाम लेते ही सब बेचैन होने लगते हैं”
और फिर भी, इस विध्वंस को सफलतापूर्वक रोका गया। कैसे? ऐसे……….
सन 1206 में बंगाल ने ‘18 घुड़सवारों’ [और उनके पीछे आ रही लाखों की सेनाओं] के सामने घुटने टेक दिये।
सन 1207 में गजपति अनंगभीमदेव तृतीय छोड़गंगा ने उड़ीशा की राजगद्दी संभाली, और उसे तुरंत छोड़ भी दी।
अनंगभीमदेव ये जानते थे की वीरता और शौर्य से परिपूर्ण होने के बावजूद भारत के आर्य शासक इस्लामी आतताइयों से कैसे शिकस्त खा गए। भारत के राजा एक होना तो छोड़िए, इनके खुद के राज्यों तक में एकता नहीं व्याप्त थी। चूंकि भारत वसुधैव कुटुंबकम में विश्वास रखता था, और हर विचारधारा के लिए सहिष्णु था, इसलिए वह घोरी या घजनी के काफिरों के नरसनहार और उनकी महिलाओं को गुलाम बनाने की मानसिकता कभी समझ ही नहीं आई। ताराइन के युद्ध के दौरान मिनहजू ए सिर्ज लिखते है की घोरी के पास 12000 की भारी अशवरोही सेना थी और 40000 से ज़्यादा की हल्की अश्वारोही सेना तो सिर्फ अग्रिम दल में थी, और इनकी पैदल सेना की तो बात ही मत कीजिये। ये तुर्की सेनाएँ 120000 से भी ज़्यादा संख्या में रहती थी, और चाहे इनके इतिहासकार जितना बढ़ा चढ़ा के बता दें, चौहान वंश, जिनका सिर्फ दो शहरों पर शासन था, 50000 से ज़्यादा की सेना मैदान पर ला ही नहीं सकते थे। जितने भी हिन्दू राजा या मंत्री थे, सब बंटे हुये थे, और एक एक कर इस्लामी आतताइयों के हाथों कटते गए।
अनंगभीमदेव ये बात अच्छी तरह से जानते थे। उन्हे ये भी पता था की एक सच्चा चक्रवर्ती ही आपस में लड़ते हुये भारतियों को ऐसे आतताइयों के विरुद्ध एकत्रित कर सकता है । इन्हे तो यह भी पता था की अंतिम चक्रवर्ती गुप्त वंश के ‘महाराजाधिराज’ समुद्रगुप्त थे, और तबसे सदियाँ बीत गयी, पर उनके जैसा दूजा कोई न पैदा हुआ। साथ ही साथ ये युवा गंगई राजकुमार ये भी जानते थे की एक चक्रवर्ती थे, जिनकी धमक अभी भी भारतवर्ष में सर्वभौम थी। वे मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचंद्र थे, जिनके विरुद्ध किसी आर्य की हिम्मत नहीं होगी विद्रोह करने की।
इसीलिए उड़ीशा की राजगद्दी ब्रह्मांड के देवता और श्री रामचंद्र के दैवीय प्रतिबिंब, भगवान जगन्नाथ को सौंपी गयी, जो पुरी में अपने भव्य मंदिर में विराजते हैं।
सभी उड़िया शासकों ने निर्विरोध भगवान जगन्नाथ को उड़ीशा का राजा माना और उन्हे इस सम्पूर्ण विश्व के उचित शासक के रूप में पहचाना। राजा अनंगभीमदेव को दोबारा गद्दी पर बिठाया गया, पर इस बार, भगवान जगन्नाथ के प्रथम अथवा ‘प्रधान सेवक’ के तौर पर। इन्हे जगन्नाथ की सेनाओं का प्रथम सेनापति, पुरी के सिंहासन का रक्षक, और जगन्नाथ के समस्त सेवकों का प्रधान अथवा राजा नियुक्त किया गया। ये शायद गणतन्त्र और धर्मतंत्र का प्रथम मिश्रण होगा किसी भी देश अथवा प्रांत के लिए। क्योंकि काशी तो हाथ से निकल गयी थी, इसलिए अनंगभीमदेव ने पुरानी केशरी किले को एक किला नगर – अभिनब बिदनासी काटक में परिवर्तित किया, और उसे इलाके में स्थित उसी माँ चंडी के मंदिर को समर्पित किया।
सुबर्णरेखा नदी के आसपास के उड़ीशा राज्य के उत्तरी क्षेत्र [जो 1206 में हम हार गए थे] हमें वापस मिले। जब इस्लामिक बंगाल ने उड़ीशा पर 1215 में आक्रमण किया, तो उन्हे उड़िया सेना ने करारी शिकस्त दी। आम शब्दों में कहा जाये, तो इस्लामिक आतताइयों को अनंगभीमदेव की देखरेख में उड़ीशा प्रांत ने बड़ी तबीयत से धुलाई की!
16वीं सदी में कवितायें रचने वाले ‘कवि अर्जुनदेव’ के अनुसार, अनंगभीमदेव ने दामोदर नदी तक चढ़ाई की, और जो भी म्लेच्छ सामने आया, उसका वध करते हुये पराजित सेन वंश के राजाओं को अपने साथ जोड़ा। पर सीमाओं पर युद्ध कभी नहीं रुका, क्योंकि दिल्ली सल्तनत इस हार की बौखलाहट में सेना पे सेना भेजी जा रही थी, इसीलिए 1230 सी.ई. में गजपति नरसिंहदेव प्रथम ने आक्रामक रूख अपनाया – न सिर्फ बंगाल के शासकों को हराना था, अपितु काशी और मथुरा में धर्म की पुनर्स्थापना भी करनी थी, जैसा की मुकुन्द राय बताते हैं।
गंगई तुग़लक युद्ध करीब तीन दशक तक खिंचे, पर हर बार उड़िया सेना ने तुग़लक सेनाओं की धज्जियां उड़ा दी, और उनके राज्यों पर कब्जा जमाते चले गए। उत्तर भारत से हजारों, लाखों की भीड़ उड़िया सेना को उखाड़ फेंकने के लिए आगे बढ़ती, पर हर बार उन्हे मुंह की खानी पड़ती। इन जवाबी हमलों की तीव्रता का अंदाज़ा आप इसी बात से लगा सकते है की जब घियासुद्दीन बलबान ने एक बागी बंगाली राज्यपाल को कुचलना चाहा, तो उन्होने लगभग 3 लाख की सेना के साथ उस राज्य पर हमला किया। और फिर भी, पूरे तीन दशक तक, उड़िया सेना न सिर्फ टिकी रही, बल्कि ऐसे हमलों का मुंहतोड़ जवाब भी देती रही। अगर सुल्तान बलबान अपना सिजदाह और पाईबोस न करा पाये, तो वो ये प्रांत थे। पुरानी राजधानी गौड़ा को ढहा दिया गया और नई राजधानी लखनौती स्थापित की गयी। दिल्ली से एक के बाद एक राज्यपाल भेजे गए इन हिस्सों पर कब्जा करने के लिए, पर हुआ क्या? आप खुद ही समझदार हैं। इसी वक़्त भारत में एक वक़्त का सबसे विशाल मंदिर, कोणार्क मंदिर [जिसे गंगई राजाओं ने सूर्यदेव को अपनी विजयों के लिए समर्पित किया] का निर्माण हुआ था.
मराठाओं के आगमन तक, जिन भूमियों पर गजपति नरसिंघदेव प्रथम और गजपति भीमदेव प्रथम का शासन था, उनपर कोई भी आततायी, चाहे वो हिन्दू हो या इस्लामी, कब्जा नहीं जमा पाया था। राजा गणेश के संक्षिप्त राज्य को अगर छोड़ दें तो कोई और हिन्दू शासक पूर्वी बंगाल के इन हिस्सों को छू भी नहीं पाया।
पर एक शत्रु था जिसे उड़िया राजा हरा नहीं पाये, और वो था अकाल। 1280 में इतिहास की सबसे भयानक अकाल ने भारत को तहस नहस कर के रख दिया। उड़ीशा की हालत भारत के अन्य हिस्सों से तो बहुत ज़्यादा खराब थी, क्योंकि उसे दक्षिण भारत के उमड़ते नदियों या हिमालयी नदियों को सुख प्राप्त नहीं था, जो सालों साल बहती रहें। इसीलिए महानदी का पानी अकाल के प्रकोप को झेल नहीं पाया। इसके अभाव में ऐसी कोई युक्ति नहीं थी जिससे गंगई शासक सल्तनत की भीड़ का मुकाबला भी कर पाये। निर्देश जारी किए गए और उड़िया सेना को सुबर्णरेखा नदी पर बने अपने किलों की ओर वापस मुड़ना पड़ा।
पर उनकी मुसीबतें अभी खत्म थोड़े न हुयी थी।
14वीं शताब्दी के मध्य तक आते आते बारूद की लोकप्रियता ने युद्ध के माने ही बादल डाले, जिनहोने भारतीय तकनीक को सल्तनत की तोपों के आगे बौना साबित कर दिया। बारूद सुनियोजित, और उन्मादी हमलों के लिए उपर्युक्त थी, पर खंडित हिन्दू राज्यों के लिए कतई नहीं। कभी एक समय किलों को जीतने में सालों लग जाते थे, जैसे राय बनिया का विशालकाय क़िला, पर अब, कुछ हफ्तों तक तोपों से गोलीबारी होती, और दिल्ली के आतताइयों के लिए मैदान तैयार।
खिलजी द्वारा दक्षिण में कराये गए हमलों के मुक़ाबले तुग़लकों ने जब आक्रमण किया, तो उनके इरादे यहाँ टिकने के लिए ही थे। एक वक़्त तक दिल्ली सल्तनत की राजधानी आखिर देवगिरि [दौलताबाद] जो ठहरी।
पर जब हिन्दू राजाओं में कोई एकता नहीं थी, तब भी मान और मर्यादा इनमें काफी लोकप्रिय थी। पीसी चक्रवर्ती बताते हैं की कैसे कट्टर दुश्मन होने के बावजूद हिन्दू राजा एक दूसरे के गरीबों पर किसी प्रकार का अत्याचार नहीं करते थे, और न ही भागते हुये दुश्मनों पर हमला करते थे। यहाँ तक की गंगई वंश और काल्चूरियों और चालुक्य वंश की संयुक्त सेना में हुये युद्धों में भी, गंगई शासकों को बंगाल पर शासन करने और केन्द्रित रहने की सम्पूर्ण स्वतन्त्रता थी।
पर डेक्कन के पतन ने सब बदल कर रख दिया। 14वीं शताब्दी आते आते उड़िया चारों तरफ से घिर चुका था, और उसका कोई मित्र नहीं बचा था। दूर असम में ही इस उपमहाद्वीप का इकलौता एवं अहम हिन्दू राज्य असम[जिस्पर अहोम वंश का शासन था] बचा हुआ था।
लगभग चार दशकों तक इस महाद्वीप की लगभग हर सेना से उड़िया शासक युद्ध लड़ते रहे, जिसमें अरब प्रांत से उमड़ उमड़ कर आ रही असंख्य भीड़ भी शामिल थी। उत्तर में पद्मा से लेकर दक्षिण में कृष्ण तक, और अमरकनतक से महोदधि सागर तक, उड़िया सेनाओं को दिल्ली से आती हर फौज से लड़ाई लड़नी पड़ी थी।
आखिरकार इस रक्षात्मक टुकड़ी का अंत 1340 में आ ही गया। रायबनिया किला परिसर [जो सुबर्णरेखा घाटी की रक्षा करती थी और हिन्दू उड़ीशा को उत्तरी इस्लाम से अलग रखती थी] के सेनाध्यक्षों को बंगाल के इलियास शाह ने अच्छे से घूस खिलाई और एक कच्चे राज्य पर अपनी असंख्य सेना के साथ धावा बोल दिया। अभिमन्यु दस लिखते हैं:- ‘पुरी के धार्मिक लोगों में इलियास शाह ने आतंक मचा रखा था, और उसके प्रकोप से बचने के लिए भाग खड़े हुये। इलियास शाह के सैनिकों ने निर्दोष मनुष्यों की नृशंस हत्या की और मंदिर के खजाने को बेतरतीब लूटा”
आतताइयों को खदेड़ा ज़रूर गया, पर इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी थी। उड़ीशा के हृदय पर प्रहार किया गया था। कहने को पुरी पहले भी लूटी गयी थी, पर उसे पाँच सौ से ज़्यादा वर्ष बीत चुके थे, और तब गुप्त वंश के शौर्य के किस्से किसी से नहीं छुपे थे।
जैसे असुर आसमान को आग में तब्दील कर बादलों से रक्त बरसा सकते थे, वैसे ही सल्तनत की फौजें खून की नदियां बहाने में कुशल थी। इलियास शाह का आक्रमण निस्संदेह भयानक था, पर इसके बाद जो आने वाला था, उसकी कल्पना तक किसी ने नहीं की थी। सिर्फ 20 साल बाद, 1360 में फिरोज शाह तुगलक जितनी सेना के साथ उड़ीशा आक्रमण करने आए, उतनी सेना के बारे में तत्कालीन शासक भानुदेव तृतीय सोच भी नहीं सकते थे, खड़ी करना तो दूर की कौड़ी थी। इनहोने बड़ी आसानी से पुरी पर कब्जा जमा लिया, पर इन्हे कटक में स्थित केसरी किले से खदेड़ा गया था सर्दी और बरसात में बिना अड़चन कोई महानदी को पार करने की हिमाकत नहीं कर सकता था, और गर्मियों में तो इन्हे पानी ही नहीं नसीब होता। बौखलाहट में फिरोज शाह तुगलक ने पुरी को जलाकर खाक कर दिया और जगन्नाथ की पत्थर की मूर्तियाँ महोदधि सागर में फेंक दी, पर बरसात के साथ दक्षिण उड़ीशा से सेनाओं के आगमन पर इन्हे वापस लौटना पड़ा।
कोई कुछ भी कहे, पर अब उड़ीशा का राज्य पतन की ओर अग्रसर था। करीब डेढ़ सदी तक उड़ीशा के वासी दिल्ली सल्तनत की असंख्य सेनाओं का बहादुरी से मुकाबला करती रही, पर अब उस असंख्य भीड़ का असर पड़ने लगा था। सुबर्णरेखा पर बंगाली सुल्तान दबाव बना रहे थे, कमजोर शासन से त्रस्त महानदी क्षेत्र के आदिवासी शासक बगावत पर उतारू थे, और तो और विजयनगर राज्य धीरे धीरे उड़ीशा के गोदावरि कृष्ण घाटी में स्थित प्रान्तों पर भी अपना कब्जा जमाये जा रहा था। डेक्कन के सुल्तान जब मन चाहते तब आक्रमण करते और लूटपाट करते, और हजारों हिंदुओं को बंदी बना काहिरा और इस्तांबुल के बाज़ारों में बेच देते। और उसके ऊपर, दिल्ली सल्तनत का खतरा तो था ही।
ऐसे में जगन्नाथ की छत्रछाया भानुदेव चतुर्थ के राज्य में पुनर्स्थापित हुयी। इन्ही के राज्य में भारतीय इतिहास के सबसे असाधारण व्यक्तित्व में से एक का उदय हुआ, और इनका नाम था कपिलेन्द्रदेव रौत्रय
एक युवा सेनाध्यक्ष के तौर पर कपिलेन्द्रदेव ने जौनपुर के सुल्तान को बुरी तरह कूटा और बंगाल की सेना को धूल चटाई, जिससे कई दशक तक उड़ीशा सुरक्षित रहा। फिर पश्चिम में बागी उड़िया राजाओं को इनहोने अपनी छत्रछाया में शामिल किया और उन्हे आत्मसमर्पण पर मजबूर किया। क्योंकि इन्हे अपनी क्षमताओं पर पूर्ण विश्वास था, इसलिए अपने कुशल मंत्री गोपीनाथ महापात्रा के साथ मिलकर, इनहोने भानुदेव को सिंहासन से निष्कासित किया और खुद को गजपति अनंगभीम की तरह जगन्नाथ के प्रधान सेवक के तौर पर नियुक्त किया, और नीले पर्वत के राज प्रतिनिधि के तौर पर अपने आप को स्थापित किया। उसके बाद इतिहास में साम्राज्य के निर्माण का सबसे अनूठा किस्सा शुरू हुआ।
बंगाल के सुल्तानों को कुचल दिया गया था और पहली बार दशकों में वो भूमि गुलामी के दंश से मुक्त थी। बिहार और मालवा की सीमाओं तक उड़िया सेना ने इस्लामी शासकों और उनकी सेनाओं को धूल चटाई, और अपने चरम पर कपिलेन्द्रदेव ने बाहमनि सल्तनत की राजधानी बिडार पर आक्रमण किया। उत्तर में देवकोट से लेकर दक्षिण में तिरुचिराप्पली तक, प्रतिहारों के बाद हिंदुओं के सबसे बड़े साम्राज्य को अगर किसी ने स्थापित किया था, तो वो कपिलेन्द्रदेव थे, जिनहोने उड़िया साम्राज्य को इतनी दूर तक फैलाया। इनके अलावा इतना बड़ा साम्राज्य केवल मुग़ल सम्राट अकबर ही स्थापित कर पाये थे, यानि करीब दो ढाई सौ सालों के बाद।
पर, एक बात अभी भी कचोटती है, की इन विजयों में ही कहीं, इन सर्वविजयी उड़िया शासकों ने अपने कमजोरी के बीज बोये थे। चाहे वो नरसिंघदेव प्रथम हो या भानुदेव प्रथम, या फिर कपिलेन्द्रदेव हो या हमवीरदेव या पुरुषोत्तमदेव, ये सब एक बात भूल रहे थे।
और वो ये की वो उड़ीशा के शासक नहीं थे।
गजपति कपिलेन्द्रदेव से तीन सौ साल पहले जब गजपति अनंगभीमदेव ने सल्तनत की असंख्य सेनाओं से चुनौती मोल ली थी, तब उन्होने यह अपने नाम पर नहीं, भगवान जगन्नाथ के नाम पर किया था। सबसे पहली उड़िया विजय जो दर्ज हुई थी, वो नाशवान मनुष्यों के लिए नहीं, भगवान जगन्नाथ (जो इन लोगों के लिए इस ब्रह्मांड के देवता थे) के लिए हुई थी। उड़िया विजय इसलिए नहीं हुई थी, की उड़िया लोगों में वीरता और शौर्य कूट कूट कर भरा था, पर इसलिए की भगवान जगन्नाथ की असीम अनुकम्पा से धर्म की रक्षा करने वालों को इतनी शक्ति दी की भारतवर्ष के खोये गौरव को वापस पा सके, और उसे समृद्धि के पथ पर दोबारा ला सकें।
जगन्नाथ के साम्राज्य के राज्य प्रतिनिधि – यानि की उड़िया सेनाध्यक्ष अपने पूर्वजों द्वारा लिए गए वचन को कभी अमल में नहीं ला पाये। वो वचन तब लिया गया था जब कटक के किला नगर की स्थापना की गयी थी। वो वचन था – ‘हम अपने लिए या उड़ीशा के लिए नहीं, अपितु धर्म की पुनर्स्थापना और भारतवर्ष के लिए लड़ रहे हैं। हमारे साम्राज्य भोग के लिए नहीं, बल्कि पुराने गौरव के विध्वंस को ललकारते हुये बनाई जाएंगी’।
यहाँ तक की उड़िया राजधानी कटक भी वाराणसी के विध्वंस का बदला लेने के उद्देश्य से स्थापित की गयी थी।
गजपति कपिलेन्द्रदेव द्वारा स्थापित साम्राज्य महज 70 वर्षों तक चला। 16वीं सदी आते आते ये भी पतन की ओर अग्रसर होने लगी। उड़िया शासकों ने कई संभावित् हिन्दू मित्रों को दरकिनार कर दिया था, और अब उनके हाथों से धीरे धीरे उनका साम्राज्य खिसकता जा रहा था। आज भी आधुनिक पोषण और सिंचाई के साथ उड़िया उत्तर प्रदेश की जनसंख्या का 20 प्रतिशत भी नहीं बनता। तब के समय में तो उड़िया और भी कम थे, और हर दिन भारत में इथियोपिया और मंगोलिया तक से आततायी आक्रमण करने के लिए हमारी सीमाओं पर दस्तक दे रहे थे।
आखिरकार 1509 में इस्माइल ग़ाज़ी की 120000 से भी ज़्यादा की सेना ने राय बनिया किलों को ढहा कर बेतरतीब आतंक मचाया, और भद्रक तक चढ़ाई करते हुये बेतरतीब हत्याएँ और बलात्कार करवाए। ये तब की बात है जब गजपति प्रतापरुद्रदेव विजयनगर के विरुद्ध अभियान पर गए थे। जब तक महाराज पुरी पहुंचे, शहर का विध्वंस हो चुका था। उस बर्बर ग़ाज़ी को हूगली पार करते वक़्त पकड़ते हुये गजपति ने ग़ाज़ी की पूरी सेना को तहस नहस कर दिया, पर इसने तो सिर्फ एक रीति की नींव रखी, जो आगे चल कर उड़ीशा के विध्वंस का कारण बनी। साम्राज्य अब धीरे धीरे दरकता जा रहा था, और 1540 तक आते आते साम्राज्य का सिर्फ नाम था, कोई अस्तित्व नहीं।
1540 के बाद उड़िया साम्राज्य में आततायी कहीं से भी आ सकते थे और लूटपाट कर कहीं से भी निकल सकते थे। उड़ीशा के अंतिम सम्राट [अगर उन्हे ऐसा कहा जा सकता था तो], गजपति कखुयारदेव एक अफगान सेना से बंगाल के दक्षिण में लड़ते लड़ते सन 1541 में शहीद हो गए।
उड़िया साम्राज्य का असल अंत आया 1568 में, और तब तक उड़िया में गर्व तो जैसे गायब हो गया था। धर्म की पुनर्स्थापना और जगन्नाथ की प्रतिष्ठा के लिए लड़ते लड़ते उड़िया और उड़ीशा आखिरकार ढह गया।
युद्धों का तो फिर भी कोई अंत नहीं था, और इसके बावजूद की उड़िया साम्राज्य मुग़लों की छत्रछाया को स्वीकार कर चुके थे, उड़िया गजपति अपने आतताइयों से लड़ते रहते थे। जब गजपति ढहे, तो राजा लड़े, वो ढहे तो जमींदार, और फिर अंत तक उड़िया ग्रामीण और आदिवासी आतताइयों से लड़ते रहे। अखंड उड़ीशा के आखरी सम्राट, मुकुंददेव हों[जिनहे उनके अपनों ने ही धोखा दिया और बाद में मार डाला], खुर्दा के पुरुषोत्तमदेव का लंबा, पर दयनीय शासन हो, वीर नरसिंघदेव [जिनहे शाह जहां ने धोखे से मार दिया था], वफादार जगन्नाथ हरिचन्दन जगदेव हों, गोविंददेव या रामचंदरदेव हों, ये तब तक अमर रहेंगे, जब तक इनके लिए आँसू बहाने वाला एक सच्चा उड़िया उपस्थित रहेगा। जिस उड़िया वंश में सबसे निम्न भी कई लोगों का शासक होता था, आज उसके ह्रास और पतन पे बहुत दुख होता है। कभी तीन उड़िया राज्यों की सीमाएं गंगा से गोदावरी और गोदावरी से नर्मदा तक फैली हुई थी। आज उस गौरव की पुड़िया समान राज्य में विषैले अलगाववादी और साम्यवादी आतंकवादी भरे हुये हैं। बूढ़े अब इतिहास नहीं पढ़ाना चाहते, और युवा उड़िया नहीं बनना चाहते।
इस भुलावे के पीछे का विष और आधुनिकता का भ्रम न सिर्फ उड़िया, बल्कि इनके ईश्वरों के लिए भी अब खतरा बन चुका है।
आज अगर गजपति अनंगभीमदेव तृतीय के किस्से सुनाओ, की कैसे स्पेन से बंगाल तक पहुँचने वाले इस्लामी राक्षस को इनहोने रोका था, या नरसिंघदेव प्रथम और भानुदेव प्रथम द्वारा दशकों तक पूरे महाद्वीप से लड़े गए युद्धों की बात करो, या फिर गजपति कपिलेन्द्रदेव के कौशल या हमवीरदेव की त्रासदी हो, या फिर वीर पुरुषोत्तमदेव के शौर्य की ही महिमा क्यूँ न गाओ, सब किसी सपने सा आज के भारतियों को प्रतीत होगा, यथार्थ तो ये इसे कतई न समझेंगे, मार्क्सवादी इतिहासकारों के विष के सौजन्य से!
वो दिन अब चले गए हैं, और वापस नहीं आएंगे। उड़िया अपने गौरव के अस्थि पंजर में लोटते हुये अपने शौर्य और वीरता का मज़ाक उड़ाते हुये दिखते हैं, और इन्हे देखकर लगता है, की जो लोग इनके लिए लड़े थे, वो भी क्यों लड़ रहे थे? मिला क्या आखिर?
मैं अपने साथी, मंजीत केशरी नायक और बिबेक प्रधान का आभारी हूँ, जिनहोने हम सभी को उड़िया साम्राज्य के इतिहास से अवगत कराने का बीड़ा उठाया। मैं रोहित पटनाइक और चित्तरंजन नायक का भी आभारी हूँ, जिनहोने मेरी इस लेख लिखने में सहायता प्रदान की। इसे कई मानों में लिखना काफी मुश्किल था, और अन्त से पहले, कई बार कलम उठाने में भी हाथ काँपने लगते थे। पर जब से इसे शुरू किया, और जब इसे खत्म किया, तबसे मैं नहीं जनता की इससे मुझे क्या प्राप्त होगा या मैं क्या खोऊंगा। जहां तक मैं या मेरे मित्र जानते हैं, ये पहली बार है की उड़िया साम्राज्य के अभिशप्त प्रतिरोध के बारे में कुछ संक्षेप में लिखा भी गया, और शायद इसलिए मैं इससे नफरत नहीं कर सकता, चाहे इसने मुझे कितना ही दर्द क्यों न दिया हो।
वहाँ दूर एक नीला पर्वत है, जहां वो रहते हैं, और उनके आँचल में ये दुनिया बसी है।
– कपिल रौत्रय
16th June, 2017 CE (Julio-Gregorian Calendar)
जहां कभी उड़िया सीमा थी, उसके पश्चिमी छोर पे कहीं