जिसे भी आज हम इतिहास कहते हैं, शायद भविष्य में वो मिथ्या होगी, और जिसे आज हम मिथ्या कहते हैं, वो किसी जमाने में इतिहास था। हाल ही में हावर्ड विश्वविद्यालय आने वाले सेमेस्टर में ‘इंडियन रेलीजियंस थ्रू थेर नेरेटिव लिटरेचर्स’ के शीर्षक वाले कोर्स में रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों पर व्याख्यान देंगे।
कोर्स कोओर्डिनटोर एनी ई मोनियस के अनुसार, “भारतीय महाकाव्य काफी लंबे एवं जटिल विचारधाराओं से सम्बद्ध होते हैं, जो मानवता के हर कोण से संबन्धित हैं और उन्हे टटोलने का प्रयास करते हैं। जहां महाभारत युद्ध और उसके दुष्परिणामों पर आधारित एक महाकाव्य है, वहीं रामायण प्रेम की एक अनूठी गाथा है’ विडम्बना की बात देखिये, इसी बात को यकीन करने में सच मानने में हमारे पसीने छूट रहे हैं।
रामायण और महाभारत जैसे प्रसिद्ध महाकाव्यों के ऐतिहासिक अस्तित्व पर लोगों या तो इसके पक्ष, या इसके विपक्ष में काफी मुखर रहते हैं। मैं नहीं जानता की आप किस वर्ग से आते हैं, पर मेरा तो यह मानना है की रामायण और महाभारत किनही अति काल्पनिक बुद्धियों की कोई अनोखी कृति मात्र नहीं हो सकती, यह कुछ अविश्वसनीय कथाओं का एक सच और अविस्मरनीय चित्रण है। ऐसा थोड़ी न होगा की हजारों चरित्रों से भरी महाभारत का सच कोई इतिहास नहीं होगा।
जब भी कोई कवि एक कथा बताता है, तो उसमें कुछ न कुछ स्वतन्त्रता तो अवश्य मिली होती है। कुछ चीजों को वो ज़्यादा तवज्जो देगा, और कुछ चीजों एवं तथ्यों को वो दरकिनार कर देगा। पर ये त्रासदी नहीं तो क्या है, की जिस देश में रामायण और महाभारत पाये जाते हैं, जिस भूमि पे अयोध्या, हस्तीनपुर, मिथिला, पांचाल, कोसल, और द्वारका, अंग, मगध, काशी, माद्र, चित्रकूट, किष्किंधा और कुरुक्षेत्र जैसे राज्यों का गौरव लहराया गया था, वहाँ ऐसे महाकाव्यों को मिथ्या कहा जाता है।
ये कुछ कारण हैं, जिनकी वजह से मैं महाभारत और रामायण को प्राचीन भारतीय इतिहास का एक अहम हिस्सा मानता हूँ, न की कुछ भटके हुये पश्चिमी विद्वानों की तरह मिथ्या अथवा पुराण।
जब आधुनिक मनुष्यों ने सैटेलाइट के जरिये अन्तरिक्ष से पृथ्वी की तस्वीरें लेना संभव किया, तो दुनिया को पता चला की एक ऐसा भी पुल है, जो भारत और श्री लंका को जोड़ता है, जिसे रामायण में राम सेतु के नाम से जाना भी जाता है।
सुंदरकाण्ड में तो यह उल्लेख भी है की हनुमान ने चार हाथियों को रावण के महलों की रक्षा करते देखा था, और सच में, ऐसे चार सूँड वाले हाथी वहाँ उस समय पाये गए थे, जिनहे आधुनिक वैज्ञानिक ‘गोम्फोथेरीदे’ के नाम से जानते हैं [यकीन नहीं होता तो गूगल में खोज निकालिए] जिस भी भौगोलिक बिन्दु का उल्लेख रामायण में किया गया है, उसमें कुछ भी मिथ्या नहीं है, और हम आज भी वो पथ ढूंढ सकते हैं, जिसपर चलकर प्रभु राम ने सीता हरण के बाद उन्हे खोजना शुरू किया था। हम बात कर रहे हैं 3000 ईसा पूर्व या उससे पहले, और शायद इतने सटीक तरीके से पूरे भारत का भ्रमण करना लगभग न के बराबर था, और उससे भी ज़्यादा कठिन था, उस पथ की प्रामाणिकता साबित करने के लिए राह में मंदिरों का निर्माण।
1975 में भारत के पुरातात्विक विभाग [आर्क्योलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया] ने हिन्दू बिन्दुओं के साथ बाबरी मस्जिद के पास 14 कसौटी पत्थर के स्तम्भ खोज निकाले। सम्राट अशोक श्रीराम के युग से जितने समीप थे, उतने शायद ही हम कभी हो सके, और उन्होने लुम्बिनी में स्तम्भ भी बनवाए, जहां उन्होने लुम्बिनी में श्री राम और गौतम बुद्ध के आगमन का बखान भी किया। इसका अर्थ है की उन्हें भी श्री राम के अस्तित्व में पूर्ण विश्वास था। सिर्फ इसलिए की वामपंथी इतिहासकारों ने काफी सारी रीतियाँ, इतिहास और पुरातात्विक अवशेषों को मिट्टी में मिलाया है, उससे इतिहास पुराण या मिथ्या नहीं बन जाएगा। किसी ने इलियाड में यकीन नहीं किया, जब तक गहन अनुसंधान के बाद ट्रॉय शहर की खोज नहीं हुई।
रामायण में श्रीराम की जन्मतिथि को कुछ इस प्रकार विस्तृत किया है:- “ श्री राम चैत्र मास के शुक्लपक्ष के नवमी की तिथि को धरती पर अवतरित हुये थे । उस समय चन्द्र का नक्षत्र पुनरवासू था, और सूर्य, मंगल, शनि, बुध, और शुक्र मेष, मकर, तुला, कर्क और मीन राशियों में स्थित थे। कर्क का लग्न था और बुध और चंद्र एक साथ चमक रहे थे।” प्लानेटरियम सॉफ्टवेयर के अनुसार भगवान 10 जनवरी 5114 ईसा पूर्व को 12:30 बजे पैदा हुये थे।
इसी तरह के गणित और आंकड़े, जैसा महाभारत में अंकित है, का उपयोग करके पता चलता है की श्रीकृष्ण 21 जुलाई 3228 ईसा पूर्व को पैदा हुये थे। ये दो तिथियाँ कोई ऐसे वैसे आंकड़े तो हो नहीं सकते, क्योंकि हमें इतना तो अवश्य पता है की श्रीराम श्रीक़ृष्ण से पहले आते हैं। और सिर्फ एक तिथि को बताने के लिए ऐसे गृह और लग्नों की कल्पना नहीं की जा सकती। हाँ सॉफ्टवेयर के अनुसार असल तारीखों में कुछ अंतर होता है, पर वो बताए गए तिथियों से 100 आगे या पीछे नहीं हो सकता, और जब हम हजारों की बात करें न, तो सौ वर्ष सिर्फ एक मिनट समान लगते हैं।
मुझे तो समझ में भी नहीं आता की कहाँ से मैं शुरू करूँ, अगर आपको महाभारत पर ऐतिहासिक साक्ष्य देने की बात हो तो, वो तो इतने हैं, की उसी पर एक पूरी किताब बन जाये। मैं श्रीक़ृष्ण के राज्य, द्वारका से शुरू करता हूँ। 1983-1990 में जब तक समुद्र में इस अलौकिक राज्य की खोज नहीं हुई थी, तब इसे भी वामपंथी चश्मे के अनुसार एक काल्पनिक राज्य माना जाता था। हजारों साल तक लोग द्वारका को एक काल्पनिक नगर मानते थे, जबकि महाभारत के ही अनुसार वो हजारों वर्षों तक समुद्र में दबा हुआ था।
महाभारत के ही अनुसार एक विशाल बाढ़ में द्वारका डूब गया था और हमनें 1983 तक अंदर खोजने की मेहनत भी नहीं की, और ये सिर्फ द्वारका की बात नहीं, महाभारत में ऐसे 35 जगह अंकित है, जिनहे पुरातत्व विशेषज्ञों ने काफी मेहनत के बाद खोज निकाला। इंद्रप्रस्थ, हस्तिनापुर और महाभारत में अंकित बाकी जितने शहर बताए गए हैं, वो आज भी फल फूल रहे हैं। यूनानी इतिहासकार मेगास्थेनेस ने लिखा था की चन्द्रगुप्त श्री कृष्ण के वंश में 138वें सम्राट थे।
और फिर आता है कुरुक्षेत्र, जहां पर वो विशाल धर्मयुद्ध लड़ा गया था। हालांकि युद्ध की तारीख में कई मतभेद हैं, पर आज भी कई इतिहासकार इस बात से सहमत हैं की कुरुक्षेत्र में महाभारत का युद्ध संभवत 3102 ईसा पूर्व में लड़ा गया था। कुरुक्षेत्र में हाल ही में खुदाई में लोहे के तीर निकले थे, जिनहे मोलुमिनेंस टेस्ट के जरिये 3100 ईसा पूर्व के समय का बताया गया, जो कुरुक्षेत्र में हुये धर्मयुद्ध के बताए गए तारीखों के काफी करीब भी है।
रामायण और महाभारत, विशेषकर महाभारत में ब्रह्मास्त्र का विशेष उल्लेख मिलता है, जिसे आज हम लोग कई मानों में आधुनिक परमाणु बम की संज्ञा भी दे सकते हैं। महाभारत में ब्रह्मास्त्र का विवरण कुछ इस प्रकार है:- “ दस हज़ार सूर्यों के बराबर आग और धुएँ का धधकता गोला, अपने पूरे रौ में ऊपर चढ़ा। ये एक अपरिचित अस्त्र था, एक लोहे के वज्र के समान था, मृत्यु का एक विशाल दूत समान था, जिसने वृषणी और अंधकों के समूचे वंश का विनाश कर दिया। लाशें इस तरह जल गयी, की उन्हे पहचानना असंभव हो गया था’ हाल ही की खुदाई में कुरुक्षेत्र में कूचा इसे भी पत्थर भी पाये गए हैं, जिनपर हजारों वर्ष पहले परमाणु उर्जा की छाया पड़ी है।
हम मौर्य, गुप्त और ऐसी अन्य प्राचीन वंशों को इसलिए स्वीकारतें हैं क्योंकि यह यूनानी इतिहास के समकालीन थी। क्या यूनानियों से पहले हमारा कोई इतिहास नहीं था? क्या हमें अपने इतिहास पे सिर्फ इसलिए विश्वास नहीं होगा क्योंकि आधी दुनिया उस वक़्त पढ़ना या लिखना नहीं जानती थी। 400 साल पहले, हमें महाभारत और रामायण में को सच मानने में कोई दिक्कत नहीं थी। पर लगभग 250 वर्षों के गुलामी, वामपंथी विचारधारा और विषैले पुस्तकों ने हमें अपनी ही इतिहास की सार्थकता पर प्रश्न उठाने को विवश कर दिया है।
दुर्भाग्यवश भारत में हम आज भी इस बात पर बहस करते हैं की क्या रामायण या महाभारत सच में हुये थे, और महाभारत का सच ढूँढने का प्रयास मात्र भी नहीं करते। शायद वामपंथी इतिहासकार डरे हुये हैं की यदि असली साक्ष्य बाहर आ गए हैं, तो उनके वर्षों की यह झूठ का मायाजाल एक झटके में बिखर जाएगा। पुरातत्व के अस्तित्व का अभाव इतिहास को झुठलाने के लिए अब काफी नहीं है।