प्रहलादपुरी मंदिर – जहां कभी भगवान नरसिंह ने दर्शन दिये थे, वहाँ अब कूड़े का ढेर है

प्रहलादपुरी मंदिर

दैत्यराज हिरण्यकश्यप को श्री विष्णु से घृणा थी। उसने ब्रह्मदेव की उपासना शुरू की, और उनसे ऐसी शक्तियाँ मांगी जिससे भगवान विष्णु का सर्वनाश हो सके। उसकी भक्ति और तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने हिरण्यकश्यप को वरदान दिया, की वो न घर के बाहर और न घर के अंदर मरेगा, न दिन में और न रात में मरेगा, और न तो आकाश में, और न ही भूमि पे मरेगा। उसकी मृत्यु न किसी मनुष्य, न किसी पशु और न ही किसी अजीव वस्तु से होगी। उसे न कोई देवता, न कोई राक्षस और न ही कोई पाताल लोक का नाग मार पाएगा। इससे आश्वस्त होकर हिरण्यकश्यप पूरे विश्व से भगवान विष्णु के नाम और उनकी भक्ति को मिटाने में लग गया।

पर हिरण्यकश्यप के पुत्र, भक्त प्रहलाद, भगवान विष्णु के अनन्य भक्त थे, और अपने पिता के विरुद्ध जाकर विष्णु के नाम की महिमा गाने लगे। जब सब युक्ति से हिरण्यकश्यप हार गए, तो उन्होने प्रहलाद का मखौल उड़ाते हुये कहा की क्या उनके प्रिय विष्णु सामने के स्तम्भ में भी है। प्रहलाद ने कहा की विष्णु हर जगह है, थे और हमेशा रहेंगे। उसकी प्रतिक्रिया से बौखलाकर हिरण्यकश्यप ने उस स्तम्भ को अपने गदा से तोड़ना चाहा, और चमत्कार देखिये, उसी खंडित स्तम्भ में से भगवान नरसिंह निकले, और उन्होने हिरण्यकश्यप का वध किया। नरसिंह के रूप में भगवान विष्णु न पूरे नर, न ही पूर्ण रूप से पशु थे। उन्होने हिरण्यकश्यप का वध साँझ के समय किया, जब न दिन थी और न ही रात।

हिरण्यकश्यप का वध भगवान नरसिंह की जांघों पर हुआ, यानि न तो ज़मीन पर वध हुआ, न आकाश में, और उनका वध भगवान नरसिंह के नखों द्वारा हुआ , इसलिए उनका वध किसी अस्त्र-शस्त्र से भी नहीं हुआ। इस तरह भगवान विष्णु ने धर्म की रक्षा भी की और ब्रह्मदेव के वरदान की भी अवहेलना नहीं की।

कहा जाता है की भगवान विष्णु के जीवनदान से अभिभूत हो प्रहलाद उनके आजीवन भक्त बन गए, और जिस स्थान पर नरसिंह जी प्रकट हुये, वहाँ उन्होने प्रहलादपुरी मंदिर बनवाया। मुल्तान में स्थित इस मंदिर का वैभव ही अतुल्य था, जहां के स्तम्भ तक सोने से बने थे।

कुछ अंजान कारणों से प्रहलादपुरी मंदिर ज़मीन में धंस गया था, और उसके ऊपर एक दूसरे मंदिर का निर्माण किया गया। ये निर्माण कई सदियों तक चला, जब तक मुल्तान पर अरबों ने आक्रमण नहीं किया। 19वीं सदी तक आते आते प्रहलादपुरी मंदिर का अस्तित्व और उसकी अहमियत दोनों ही मिट्टी में मिल चुकी थी। इस वक़्त तक हज़रत जकारिया की मज़ार उस स्थल के पास निर्मित हो चुकी थी और और उसके पास ही एक मस्जिद का भी निर्माण हो गया था।

1861 में जनता द्वारा दान से एक और मंदिर का निर्माण हुआ। 1881 में मंदिर के शिखरों के मुद्दे पर हिंदुओं और मुसलमानों में दंगे हुये थे, जिसके कारण पहले मंदिर का विध्वंस हुआ, फिर उसका पुनर्निर्माण हुआ। पर भारत के विभाजन और हिन्दू समुदाय के कारण ये साफ था की अब इस मंदिर के ज़्यादा दिन नहीं बचे हैं। भगवान नरसिंह की मूर्ति हरिद्वार ले जायी गयी। 1992 में, बाबरी मस्जिद की पूर्व संध्या तक भी, प्रहलादपुरी मंदिर को शहर का एक अभिन्न अंग माना जाता था। पर बाबरी मस्जिद के बाद हुये दंगों में मंदिर को एक बार फिर गिराया गया। 2006 में ये फैसला किया गया की हज़रत जकारिया की मज़ार पर आने वालों के लिए मंदिर परिसर को एक स्नानागार के तौर पर विकसित किया जाएगा। अभी तक जितना सुना, उस अनुसार अब मंदिर एक कूड़ाघर बन चुका है।

भगवान नरसिंह का विग्रह

ये है उस भूमि की नियति, जहां भगवान विष्णु अपने भक्तों की रक्षा के लिए प्रकट हुये थे। कभी भगवान नरसिंह के गुणगान दर्शाने वाला प्रहलादपुरी मंदिर आज एक कूड़ेघर में तब्दील हो चुका है। कामरूप से बलूचिस्तान तक, कश्मीर से लेकर केरल के दक्षिणी हिस्से तक, ऐसे कई मंदिर, आश्रम, समाधि, और मूर्ति है, जो हमारी सभ्यता के प्रतीक थे, पर जिनहे खंडित, विध्वंसित और बर्बाद कर दिया है। ये है सदियों के आक्रमण, आतताइयों के विजय और आपसी लड़ाई का परिणाम, जिसका व्यापक असर भारत की सांस्कृतिक विरासत पर पड़ा है। इससे हृदयविदारक क्या हो सकता है की इसी सांस्कृतिक विरासत के प्रति लोगों का मोह भंग हो गया है।

उग्रं वीरं महा विष्णुं
ज्वलन्तं सर्वतोमुखं
नृसिंहम भीषणं भद्रं
मृत्युर मृत्युं नमाम्यहं

(उस ईश्वर को नमन करता हूँ जो काल का भी काल है
जो भयंकर है, वीर है, जो स्वयं विष्णु है
जिसके मस्तक हर दिशा में प्रदीप्त हैं
जो नरसिंह है, जो प्रलयंकर भी हैं और कल्याणकारी भी)

Exit mobile version