भाजपा सांसद संपातिया ऊईके के निर्वाचित होते ही भाजपा ने रचा इतिहास

भाजपा राज्य सभा

1980 में स्थापित भारतीय जनता पार्टी ने एक नया कीर्तिमान तब रचा जब उसकी सांसद संपतिया उइके राज्य सभा में चुनी जाने वाली 58वीं सांसद बन गयीं, जो एक महत्वपूर्ण अवसर है। ऐसा लग रहा है की संपतिया उइके इस ऐतिहासिक कीर्तिमान के लिए आई थी, और इतिहास रचा गया है। अब ये सार्वजनिक है की काँग्रेस पार्टी को स्वतंत्र भारत के 70 सालों के इतिहास में पहली बार राज्य सभा में नंबर 2 पे धकेल दिया गया है।

अनिल दावे के असामयिक निधन के बाद खाली पड़ी मध्य प्रदेश की राज्यसभा सीट पर उपचुनाव में भाग लेकर संपतिया उइके ने भारी मतों से सीट जीतकर राज्य सभा में कदम रखा। ये अपने आप में भारत की पार्टी आधारित राजनीति में एक अकल्पनीय अवसर है, क्योंकि अब एक पार्टी के भारतीय राजनीति में कब्जे का खात्मा पूरी तरह हो चुका है। इससे विजयी पार्टी के हाइकमान के अथक परिश्रम की भी झलक दिखती है।

राज्य सभा में बहुमत से अब भाजपा को उन दिक्कतों का सामना नहीं करना पड़ेगा, जो अटल बिहारी वाजपयी की सरकार को झेलना पड़ा था, जिसके कारण वे उतनी संख्या नहीं जुटा पाते थे, जिससे वे अपने सुधार को सदन के दोनों हिस्सों में पारित करवा सके।

राज्य सभा में बहुमत का अर्थ है की अब संसद में ज़्यादा खींचातानी नहीं होगी, और न ही एक विशेष सत्र की आवश्यकता पड़ेगी, जैसे पोटा को पारित करते वक़्त 2002 में पड़ी थी। राज्य सभा में बहुमत से अब सुशासन के वास्ते अध्यादेशों की तरफ रुख करने की भी उतनी आवश्यकता नहीं पड़ेगी। इसके साथ अब ये भी सुनिश्चित है की सत्तासीन पार्टी को भूमि अधिग्रहण बिल 2014 के संशोधन की तरह अपने अहम संशोधन वापस लेने की शर्मिंदगी नहीं झेलनी पड़ेगी।

या तो गठबंधन के सहारे, या फिर खुद के दम पर भाजपा देश के 29 में से 18 राज्यों में शासन कर रही है, जो 1967 के चुनावों से पहले काँग्रेस पार्टी के लिए आम बात थी। इसके बाद क्षेत्रीय सूरमाओं और गठबंधन राजनीति के एक अस्थिर काल का उद्भव हुआ, जिसमें सदन के प्रांगण में दलाली भी एक आम बात बन चुकी थी। नहीं तो क्या कारण है की नोट के बदले वोट जैसे अकल्पनीय कुकृत्य में अभी तक कोई कारवाई नहीं हुई? ऐसे में भाजपा या पहले का जनसंघ कभी ये सोच भी नहीं सकता था की वो भी एक दिन 50-60 के दशक की तरह काँग्रेस पार्टी की जगह पर होगी।

पर विडम्बना तो देखिये, भाजपा के साथ इतिहास बड़ा बेरहम रहा है। इन्हे कई सालों तक भारतीय राजनीति की आँखों का नासूर समझा जाता था, जिसमें अकाली दल, शिव सेना और पूर्व में जॉर्ज फेर्नेंडिस के नेतृत्व में समता पार्टी ही इन्हे स्थायी समर्थन देती थी। भाजपा से सब ऐसे दूरी बनाते थे, की एक समय सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद इन्हे विपक्ष में बैठना पड़ता था। 1993 के उत्तर प्रदेश के राज्य चुनाव और 1996 के आम चुनाव के दौरान भी इन्हे इसी मुसीबत का सामना करना पड़ा था।

काफी वक़्त तक खुद को हिन्दी प्रदेश की पार्टी माने जाने वाली भाजपा अपने विश्वसनीय कैडरों के निरंतर परिश्रम की बदौलत अपने प्रिय राज्यों, जैसे उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश से बाहर निकलकर कर्नाटक में अपनी पैठ बनाई , जहां भाजपा ने 2008 में सरकार बनाई थी। अब फिर से यही पार्टी 2018 के विधानसभा चुनाव के लिए इस राज्य के दरवाजे खटखटा रही है।

इसके साथ ही साथ इनहोने अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम, मणिपुर और असम में भी गठबंधन के कौशल से सरकारें बनवाई, जो कभी भाजपा का प्लस पॉइंट नहीं था। इनहोने अब अगले साल होने वाले त्रिपुरा और असम चुनावों के लिए भी अपनी कमर कस ली है।

इससे अब भाजपा का उत्तरदायित्व भी बढ़ गया, क्योंकि अब वो जनता के लंबे समय से आवश्यक राजनीतिक विकल्प जो बन चुके है। अब ये आराम नहीं फरमा सकते हैं, और न ही वो गलतियाँ कर सकते हैं, जो काँग्रेस पार्टी किया करती थी। इन्हे अपने वादे पूरे करने पड़ेंगे, चाहे वो विकास के हों, या फिर राष्ट्रवाद या फिर हिन्दुत्व का प्रचार प्रसार ही क्यों न हो। अब भाजपा 2004 वाली गलतियाँ कतई नहीं कर सकती, जब ये अपने वादों से मुकर गयी थी, और राज्य सभा की कम संख्या और गठबंधन धर्म की दुविधा बताते हुये अपने अकर्मण्यता को छिपाने की जुगत में लगे हुये थे।

अब लोक सभा में भी बहुमत है, और राज्य सभा में भी। धीरे धीरे वे 123 के जादुई आंकड़े की तरफ भी बढ़ रहे हैं। ऐसे में अब कोई दलील इनकी रक्षा न कर पाएगी, अगर ये इस बार अपने वादे से मुकर गयी तो। कईयों के लिए अभी भी विकास का अर्थ देश में राम राज्य से है, और अयोध्या में बिन राम मंदिर का राम राज्य ‘इंडिया शाइनिंग’ के अभियान की तरह ही खोखला है।

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