शिव सेना ने चैलेंज किया तो बीजेपी ने शब्दों से नहीं, नतीजों से करारा जवाब दिया

आकस्मिक चुनाव, शिवसेना, भाजपा

जब हम राजनीति में अहंकार के बारे में बात करते हैं, तो यह अच्छे अवसरों को ध्वस्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। ऐसा ही कुछ नीतीश कुमार के साथ हुआ जिन्होंने अपने अहंकार से पैदा हुई महत्वाकांक्षाओं के कारण अवसरवाद को गले लगाया। शायद वह प्रधानमंत्री मोदी के सामने एक प्रधानमंत्री का चेहरा बनना चाहते थे इसलिए उन्होंने भाजपा के साथ संबंध तोड़ दिया। लालू के साथ उनका अवसरवादी साथ उसी अहंकार पर आधारित था जो उस समय उनकी राजनीति के केंद्र में था। जब आरजेडी ने बिहार पर अपनी पकड़ की धमकी देना शुरू किया, तब उन्हें यह समझ आया। समय पर उनका यह एहसास होना ना सिर्फ उनके राजनीतिक भाग्य को बचाया बल्कि शासन और विकास के मामले में बिहार राज्य को भी बचाया।

महाराष्ट्र का राजनीतिक परिदृश्य एक ऐसे उदाहरण के रूप में उभर रहा है कि कैसे खुद का अहंकार पूर्वजों द्वारा प्राप्त वर्षों के सद्भावना को पूरी तरह नष्ट कर सकता है। जब बाल ठाकरे जीवित थे और शिवसेना को मार्गदर्शन देते थे तब शिवसेना एक अच्छा प्रतीत होता था। उनकी मृत्यु और राज्य की राजनीति में प्रमुख रूप के रूप में भाजपा के उदय ने शिवसेना को एक रोने वाले बच्चे के रूप में बदल दिया है। सबसे प्रमुख शिवसेना के लिए बड़े भाई की भूमिका को त्यागना ज्यादा मुश्किल था।

एक सामान वैचारिक झुकाव ने गठबंधन की सुविधा में सहयोग किया। और शिवसेना का घायल अहंकार खुले में एक बार ही नहीं बल्कि कई बार सामने आ चुका। उद्धव ठाकरे अपने सांसद संजय राउत और मैं मुखपत्र सामना के माध्यम से काँटा चुभाने की कोशिश कर रहे हैं। दोनों ने भाजपा की नीतियों पर सवाल उठाया है और मोदी शाह की हमेशा आलोचना की है। प्रमोद महाजन और बाल ठाकरे ठाकरे के समय में एक स्वस्थ रिश्ता आगे बढ़ा था जिसे अब पूरी तरह पार कर दिया गया है। उद्धव ठाकरे ने अपने सामान्य बातों के साथ संबंधों को कठोर करने की कोशिश की, जब उन्होंने यह कहा था कि शिवसेना के मंत्रियों ने अपने जेब में इस्तीफे पत्र जारी कर रखे हुए है।

इन सबके बावजूद उन्होंने बीजेपी को मध्यवर्ती आकस्मिक चुनाव के लिए कह कर सबसे कड़ी टिप्पणी की है। बाल ठाकरे के दौरान इन सभी बातों का मूल्य था और सत्ता के गलियारों में ऐसी चौकाने वाली बातें भेजी जाती थी। लेकिन अब से परेशानी का सबब हो चुके हैं जिसे शायद कभी गंभीरता से भी नहीं लिया जा सकता। यदि राज्य में आकस्मिक चुनाव वास्तव में आयोजित होते हैं तो 5 मुख्य कारण है कि शिवसेना एक बड़ी हार मिल सकती है।

सबसे पहले, यदि हम राज्य में सभी क्षेत्रों और सत्ता के परतों की तुलना करते हैं तो यह साफ़ है कि शिवसेना जमीन खोजने के लिए संघर्ष कर रही है। शिवसेना और भाजपा के बीच चुनाव लड़ने का सीधा मुकाबला देखें तो भाजपा लगातार उचित प्रक्रिया में आगे दिख रही है। जिला लोकसभा, विधानसभा या नगरपालिका चुनाव हो, कांग्रेस और एनसीपी की हार का लाभ बीजेपी को ही मिल रहा है। जीना इसी को भुनाने में नाकाम रही और भाजपा धीरे धीरे उसके गढ़ों में अपना विस्तार कर रही है। संगठनात्मक ढांचे और कैडर के रूप में भाजपा खुद को मजबूत कर रही है वहीं सेना क्षेत्रों में लगभग अनजान जी साबित हो रही।

दूसरा, जमीन पर लोगों का मूड पूरी तरह से भाजपा के समर्थन में है। किसी राज्य में हाल ही में आयोजित ग्राम पंचायत चुनाव से समझा जा सकता है। नतीजों से यह साफ है कि भाजपा के बढ़ोतरी शहरों से ग्रामीण क्षेत्रों की तरफ बढ़ रही है। उसकी जीत की सफलता इतनी बड़ी थी कि शिवसेना कांग्रेस और एनसीपी की संयुक्त संख्या सिर्फ भाजपा के आधे सीटों के बराबर तक थी।

3,489 ग्रामपंचायत में 2,974 का परिणाम घोषित किया गया। भाजपा के 1,457 पंचायत समितियों में सरपंच चुने गए इसके बाद के क्रम में कांग्रेस (301) शिवसेना (222) और एनसीपी (194) रही।

यह ग्राम पंचायत मराठवाड़ा, विदर्भ और उत्तर महाराष्ट्र के 18 जिलों में फैले हुए हैं। मराठवाडा के बीड जिले में परली और विदर्भ में बुलढाणा जिले जहां क्रमशः एनसीपी और कांग्रेस ने अपना कब्जा बरकरार रखा, इनको छोड़कर भाजपा ने सभी जगह असाधारण प्रदर्शन किया। इसने ग्राम पंचायतों को समझ लिया और सरपंच पदों पर कब्जा जमा लिया जोकि राज्य में पहला प्रत्यक्ष चुनाव था।

तीसरा, यदि महाराष्ट्र में मध्य अवधि का आकस्मिक चुनाव होता है तो भाजपा विधानसभा पर कब्जा कर सकती है साथ ही बीएमसी(मुम्बई महानगरपालिका) के लिए भी मंच तैयार कर सकती है। सेना ने भाजपा के समर्थन से ही बीएमसी में अपनी सत्ता को बरकरार रखा है। यदि चुनाव हो और भाजपा को बहुमत मिल जाए तो जल्द ही बीएमसी में भी चुनाव देखा जा सकता है। यदि शिवसेना बीएमसी को देती है तो वह अपनी नींव खो देगी, जोकि सत्ता का केंद्र हैं और कुछ चीजों में राजनीतिक योजना के मुकाबले शिवसेना को शक्ति प्रदान करता है। बीएमसी देश में सबसे अमीर निगम है और यह खोने से राज्य में सेना के सत्ता के ढांचे की रीढ़ टूट जाएगी।

चौथा, एक स्थिर सरकार बनाने के लिए राज्य के लोगों को भाजपा को वोट देने के लिए मनाया जा सकता है। महाराष्ट्र एक पार्टी के शासन के लिए तैयार है और राज्य ने मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में इसका लाभ देखा है। चूँकि गठबंधनों का युद्ध खत्म हो रहा है, महाराष्ट्र के लोग स्थिरता के लिए वोट कर सकते हैं। एक और बात है कि, नारायण राणे जिन्होंने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया है उनका समर्थन एनडीए को मिल सकता है। अंततः यह पहलु भी भाजपा को कोंकण क्षेत्र में सफलता में मदद करेगी जहां इस क्षेत्र में शिवसेना बाधित कर सकती है।

अंतिम, उद्धव ठाकरे आकस्मिक चुनाव की हिम्मत तो कर सकते हैं, लेकिन इसकी पूरी संभावना है कि उनकी अपनी पार्टी को अभूतपूर्व संकट का सामना करना पड़ेगा। सत्ता के नुकसान से बचने के लिए शिवसेना के मंत्री इसे बिगाड़ सकते हैं और यह क्षेत्रीय संगठन के लिए बड़ा सिरदर्द साबित होगा। सुरेश प्रभु जो शिवसेना में अंतिम छोर के नेता थे उसे मोदी सरकार ने अपने पाले में लेते ही उनके पंख लगा दिए। इसी को ध्यान में रखते हुए, सेना के मंत्री जो अभी फडणवीस सरकार का हिस्सा है वह सत्ता खोने की बात को समझ कर नए चुनाव कराने से असहमत हो सकते हैं और मामले को बिगाड़ सकते हैं। यहां तक कि अगर शिवसेना प्रमुख ने कहा कि वे (शिवसेना मंत्री) जेब में इस्तीफा पत्र लिए बैठे हैं तो जमीन की वास्तविकता निश्चित रुप से कुछ अलग होगी। कैडर और मंत्रियों को आकस्मिक चुनाव के लिए तैयार नहीं किया जा सकता और इस पहलु को नजरअंदाज करना शिवसेना के लिए काफी महंगा होगा।

चूँकि उद्धव ठाकरे ने भाजपा को मौखिक हमले में आकस्मिक चुनाव के लिए कहा है, भाजपा ने पंचायत चुनाव में सभी पार्टियों को हराकर शांत रूप से राज्य में खुद को संगठित किया है। सेना के जूनियर सहयोगी से निकलकर भाजपा ने राज्य की अगुवाई करने के लिए खुद को स्वीकार कर लिया है।

महाराष्ट्र में अपनी खुद की संभावनाओं को मजबूत करने के लिए शिवसेना को दो आत्म निरीक्षण की जरूरत है। पहला यह की जनता दल (यू) की तरह भाजपा के साथ अपने संबंधों को ठीक करने की जरूरत है, दूसरी बात यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों में विशेषकर जमीनी स्तर पर अपनी संगठनात्मक संरचना को मजबूत करने की आवश्यकता है। यह ध्यान रखना अत्यंत महत्वपूर्ण है कि सभी क्षेत्रीय राजनीतिक खिलाड़ियों को अपने अभिमान के कारण हारना पड़ा है, यदि शिवसेना अपने तरीके में सुधार नहीं करती है तो नई उभरती हुई भारतीय राजनीति के बीच में वह उनमें से ही एक और क्षेत्रीय पार्टी हो सकती है।

Exit mobile version