हम में से अधिकांश लोगों ने रामायण और महाभारत पढ़ा या टीवी पर देखा है। कल्पना कीजिए कि यदि कुरुक्षेत्र के युद्ध के पहले, मामा शकुनी दुर्योधन के साथ झगड़ा कर लेते और पांडवों के शिविर में शामिल हो जाते। क्या हम मामा शकुनी को उनके सभी गंभीर पापों के लिए माफ कर सकते हैं, जो उन्होंने अपने जीवनकाल में किए थे? क्या यह सही होता कि पांडवों द्वारा चतुर और चालाक, मामा शकुनी को, वे अपने शिविर में स्थान दे देते और कौरवों के खिलाफ लड़ने में शकुनी, उनका साथ देते? कलयुग में घटित यह घटना वास्तव में ऐसी चीज है जो कि भारतवर्ष के आज के दौर में देखने को मिल रही है।
हमारे देश के नेताओं पर एक राजनीतिक दल से, दूसरे राजनीतिक दल में जाने से कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता, फिर चाहे वे किसी ऐसी पार्टी में जा रहे हो, जिसकी विचारधारा उनकी पूर्व पार्टी की विचारधारा से ठीक विपरीत है। इसलिए जब हमारे सामने गौरव भाटिया का नाम आता हैं, जो कुछ महीने पहले तक एक धर्मनिरपेक्ष नेता के रुप में जाने जाते थे, वे अब भाजपा में शामिल हो गए है और उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ साथ भाजपा की प्रशंसाओं का अम्बार लगा दिया, यह है तो मनोरंजक बात लेकिन साथ ही साथ यह एक बहुत ही बुरी बात भी है।
शाज़िया इल्मी, जिन्होंने अपनी शुरुआत आम आदमी पार्टी से की और जल्द ही पार्टी की एक प्रमुख नेता के रूप में उभरकर सामने आयी और 2014 के आम चुनावों के अभियान के दौरान, शाज़िया इल्मी ने कुछ मुसलमानों से पूछा कि वे इतने धर्मनिरपेक्ष क्यों हैं, उन्हें और सांप्रदायिक होना चाहिए। एक साल बाद ही, शाज़िया इल्मी, आम आदमी पार्टी से निकलकर भाजपा में शामिल हो गईं, जिस पार्टी को काफी हद तक एक हिंदुत्ववादी पार्टी के रूप में देखा जाता है।
नारायण राणे ने राजनीति में अपनी शुरुआत, तत्कालीन समर्थक हिंदू पार्टी शिवसेना से की, फिर कांग्रेस में शामिल हो गए। यह एक अलग बात है कि अब अचानक से हिन्दूवादी शिवसेना, धर्मनिरपेक्ष हो गई और उन्होंने तुष्टिकरण और सांप्रदायिक राजनीति की प्रतीक, ममता बनर्जी की तक प्रशंसा कर डाली। अगर एक तरफ, हमारे पास 85 वर्षीय एस.एम.कृष्ण हैं, जो कि कांग्रेस पार्टी से निकलकर भाजपा में आ गए हैं, वही हमारे पास नवजोत सिंह सिद्धू भी हैं, जो पंजाब चुनाव से पहले ही भाजपा पार्टी को छोड़कर, कांग्रेस में शामिल हो गए। जैसा कि वे कहते हैं कि राजनीति में कोई स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता और यह व्यक्तिगत लाभ के बारे में है (लाभ मौद्रिक या गैर मौद्रिक हो सकता है)।
जब नरेंद्र मोदी और अमित शाह अपने कांग्रेस मुक्त भारत के सपने के साथ आए, उनके इस विचार को जनता ने बहुत गम्भीरता से लिया जैसा कि 2014 के आम चुनावों के बाद से अधिकांश चुनावों के परिणामों में देखा जा सकता है।
तीन साल के बाद, हम यह देख सकते हैं कि भाजपा इस सपने को पूरा करने के लिए अन्य दलों के प्रमुख सदस्यों को अपने साथ शामिल करने में कोई संकोच नहीं कर रही है। तृणमूल कॉग्रेस के मुकुल रॉय जो दल बदलने वाले नवीनतम राजनेता हैं, अब भाजपा में शामिल हो गए हैं और उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में काम करने के लिए खुशी जाहिर करते हुए गर्व महसूस किया।
तो मुकुल रॉय कौन है?
मुकुल रॉय ने यूथ कांग्रेस के नेता के रूप में अपना राजनीतिक जीवन शुरू किया और उसके बाद वह तृणमूल कांग्रेस के संस्थापक सदस्य बने। उसके बाद, वह राज्यसभा के लिए चुने गए थे और भ्रष्ट घोटालों वाली यूपीए 2 के शासनकाल के दौरान, वह पहली बार नौवहन मंत्री बने और बाद में ममता बनर्जी की पार्टी के सदस्य दिनेश त्रिवेदी के उनके साथ मतभेद के कारण वह रेल मंत्री बने। शारदा घोटाले में उनकी भागीदारी के लिए सीबीआई ने उनसे पूछताछ की थी, शारदा ग्रुप द्वारा संचालित एक पोंजी योजना के पतन के कारण यह राजनीतिक घोटाला हुआ। उस समय, तृणमूल कॉग्रेस के सभी नेता पूरी तरह से मुकुल रॉय के साथ थे, सीबीआई द्वारा परेशान किए जाने पर उन्होंने केंद्रीय सरकार पर राजनीतिक प्रतिशोध का आरोप लगाया। वह नारद के घोटाले में भी आरोपी हैं, जिसके तहत दो साल में किए गए एक स्टिंग ऑप्रेशन की एक वीडियो श्रृंखला यह दर्शाती है, जिसमें सत्ताधारी पश्चिम बंगाल सरकार के कई मंत्री, मुकुल रॉय सहित रिश्वत लेते हुए पाए गए। यह जांच नारद ग्रुप द्वारा की गई थी और इसलिए इस घोटाले को नारद घोटाला नाम दिया गया।
आज भाजपा सरकार विमुद्रीकरण के एक साल पूरे होने का जश्न मना रही है, विमुद्रीकरण, भाजपा द्वारा उठाया गया एक ऐतिहासिक और साहसिक कदम माना जाता है जिसने भारत में व्याप्त काले धन के खतरे को भारतीय अर्थव्यवस्था से साफ करने का कार्य किया। भाजपा सरकार ने 8 नवंबर के विमुद्रीकरण के उस फैसले के दिन को विरोधी काला धन दिवस के रूप का नाम भी दिया है। तो देखते हैं कि मुकुल रॉय के विमुद्रीकरण पर क्या विचार थे।
जब विमुद्रीकरण की घोषणा की गई थी, तब मुकुल रॉय ने सरकार के इस कदम की कड़ी निन्दा की थी और उन्होंने, इसके खिलाफ कई राज्यों में विरोध प्रदर्शन भी किए थे। मुकुल रॉय और तृणमूल कांग्रेस पार्टी ने भाजपा सरकार से अपने इस कदम को वापस लेने की मांग भी की और भाजपा सरकार के इस फैसले की निन्दा करते हुए, उन्होंने यह कहा कि भाजपा ने अपनी सीमा पार कर दी और प्रधान मंत्री मोदी अहंकारी हैं और वे हर दिन नियमों को बदलकर अपनी विफलताओं को छिपाने की कोशिश करते हैं। उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि केंद्र सरकार द्वारा डिजिटलीकरण को इसलिए प्रोत्साहित किया गया, ताकि केंद्र सरकार, विमुद्रीकरण की विफलता को छिपा सके, अत: इस मामले का भ्रष्टाचार से कोई संबंध नहीं था। अब जब मुकुल रॉय आधिकारिक तौर पर भाजपा में शामिल हो गए हैं, तो आश्चर्य की बात यह है कि अब उनके विचार विमुद्रीकरण को लेकर क्या है?
जो भी भारतवासी, अपने भारत देश से प्यार करते हैं, वे एक कांग्रेस मुक्त और एक छद्मधर्मनिरपेक्ष दलों से मुक्त भारत चाहते हैं। कांग्रेस और तृणमूल जैसे दल हमारे इस महान देश के लिए एक अभिशाप के समान है, इन दलों ने हमारे देश को अत्यधिक क्षति पहुचाई है। भाजपा भी कोई पूर्णतया आदर्श पार्टी नहीं है लेकिन वर्तमान समय में भारत में एकमात्र गैर छद्म धर्मनिरपेक्ष और नपा-तुलादल भाजपा ही है। अगर हम एक कांग्रेस मुक्त भारत चाहते हैं, इसलिए जब मुकुल रॉय जैसे लोगों को भाजपा में शामिल किया जाता है, तो भाजपा समर्थकों की निराशा स्वाभाविक है। बेशक, यह पहली बार नहीं है जब भाजपा ने अपने समर्थकों की मंजूरी के बिना कोई कार्य किया हो और निश्चित तौर पर यह आखिरी बार भी नहीं होगा।