भारत में तो सदियों से युद्ध होते रहे हैं परन्तु जौहर प्रथा इस कारण से इतने बाद आई

रानी पद्मावती

हाल ही में पद्मावती फ़िल्म को लेकर कई विवाद सामने आये हैं। फ़िल्म निर्देशक संजय लीला भंसाली जहाँ पहले भी विवादित रहे हैं तो उनकी भूमिका संदेहास्पद ही लगती है। कथित तौर पर फ़िल्म में रानी पद्मिनी से जुड़े इतिहास के साथ छेड़छाड़ की गई है। वहीं फ़िल्म में दर्शाएं गए “घूमर” गाने में रानी पद्मिनी का किरदार निभा रही दीपिका पादुकोण को भरी सभा में नृत्यांगना के समान दिखाया गया है, जो कि पूरी तरह रानी पद्मिनी के सम्मान के विरूद्ध है। रानी पद्मावती ना सिर्फ राजपूत समाज वरन पुरे भारत के लिए शौर्य की प्रतीक है। 1303 में जब आक्रमणकारी अलाउद्दीन ख़िलजी ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया था तब रानी पद्मावती ने 16000 अन्य महिलाओं के साथ जौहर कुण्ड में खुद को भस्म कर नारी समाज की अस्मिता बचाई थी। वहीं राजा रतनसिंह ने साके किया था।

भारत का इतिहास हमेशा से गौरवशाली रहा है। यहाँ की परंपरा, संस्कृति, ज्ञान और चेतना के आगे पूरी दुनिया नतमस्तक थी। क्षेत्र और राज्य को लेकर भारत के अलग-अलग हिस्सों में हमेशा संघर्ष चला। कबीलों से लेकर राजा महाराजाओं तक युद्ध हुए लेकिन क्या आपने विचार किया है कि हमेशा मुस्लिम आक्रमणकारियों के समय जौहर क्यों करना पड़ा ? क्यों कभी हिन्दू राजा के युद्ध के दौरान जौहर कुण्ड ज्वलन्त नहीं हुए ?

भारत के इतिहास में वैदिक सभ्यता में भी कबीलों के मध्य संघर्ष था। इसके बाद महाजनपद काल में अनेकों जनपदों के मध्य लड़ाइयां हुई। चाहे वो हर्यक, शिशुनाग या नन्द वंशी हो या चाणक्य की सहायता से घनानंद को हराने वाले चन्द्रगुप्त मौर्य हो या गुप्तकालीन सम्राट हो, विरोधी राजा की रानी और दासी सभी सुरक्षित ही रहे। वो अशोक की कलिंग पर विशाल विजय हो या ब्राह्मण पुष्यमित्र शुंग और सातवाहन शासको की गौरवगाथा, कभी किसी भी राजा ने अपने विरोधी राज्यों के महिलाओं का शील भंग नहीं किया। ना सिर्फ भारतीय राजा बल्कि यूनान से आने वाले इंडो-यूनानी, शक, कुषाण, हुविष्क जैसे गैरमुस्लिम शासकों के साथ भी स्थानीय शासकों का लंबा संघर्ष हुआ लेकिन किसी शासक ने नारी शक्ति का अपमान नहीं किया। लेकिन जैसे ही मुस्लिम आक्रांताओं ने भारत पर आक्रमण करना शुरू किया तो उन्होंने ना सिर्फ लूटपाट किया बल्कि यहाँ की संस्कृति, विरासत, ज्ञान के स्त्रोत को बड़े स्तर पर नष्ट करने के साथ साथ विजित रानियों का शील भंग भी किया।

भारत के इतिहास का पहला जौहर रानी पद्मावती ने ही किया था। अलाउद्दीन ख़िलजी की बुरी नियत और धार्मिक कट्टरता के भली भांति परिचित चित्तौड़ की नगरी ने उस दिन “भगवा ज्वाला” देखी थी। ना सिर्फ ख़िलजी बल्कि बहादुरशाह के दौरान राजमाता कर्णावती ने भी सैकड़ों वीरांगनाओं के साथ जौहर का अनुष्ठान किया था। इसके आलावा क्षत्राणियों ने ना सिर्फ चित्तौड़ में बल्कि मुस्लिम आक्रांताओं से बचने के लिए ग्वालियर में भी जौहर किया था। लोदी वंश के आक्रमणकारी शासक सिकंदर लोदी ने जब राजा मानसिंह तोमर पर आक्रमण किया तब ग्वालियर की महिलाओं ने अपने सम्मान में जौहर कुण्ड में कूदकर अपने प्राणों की आहुति दी थी।

कुछ आयतित विचारधारा के विचारक और स्वघोषित बुद्धिजीवी वर्ग के लोग जौहर के महिमामंडन को “पिछड़ापन” और “गैरजिम्मेदाराना” बता रहे हैं। ये वही लोग हैं जिन्हें खुलापन, आज़ादी के नाम पर नंगापन परोसना होता है। इनके युवक-युवतियां खुलेआम सड़क पर विरोध के नाम पर होठ चबाने का डेमो देते हैं, तो ऐसे मानसिक विक्षिप्त लोगों को का “जौहर” की महानता को नहीं समझ पाना कोई बड़ी बात नहीं है।

रानी पद्मावती , राजमाता कर्मवती समेत देश की अनेकों देवियां जिन्होंने अपने आत्मसम्मान के लिए जौहर को अपनाया था, अपने प्राणों की आहुति दी थी वो वास्तविक में पूज्य हैं। उनके इस बलिदान का देश सदैव ऋणी रहेगा।

वर्तमान में वैचारिक पक्षपात के स्तंभकार और पत्रकार (वास्तविक में पक्षकार) जौहर की गरिमा को खंडित करने के लिए अपने निम्नता पर हैं। लेकिन आज जिस तरह से सभी समुदाय को किसी मुद्दें पर एक होते देखा जा रहा है इससे स्पष्ट है कि इनका प्रोपगंडा एक बार फिर ध्वस्त होने की कगार पर है।

वास्तविक इतिहास को देखें तो यह स्पष्ट होता दीखता है कि मजहबी धर्मांध और कट्टरता के रास्ते पर चलते हुए लगभग सभी मुस्लिम आक्रांताओं ने भारत में शासन करने के दौरान धर्मान्तरण करवाये। विरोधी राजा को हराकर उनके राज्य की रानियों और महिलाओं को अपने हरम में रखा। अनेकों महिलाओं का शील भंग किया। देश का सांस्कृतिक हनन किया। इन्हीं कारणों से रानी पद्मावती जैसे महान देवियों ने जौहर प्रथा की शुरआत की।

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