कांग्रेस के चार तीर जो इस बार सही निशाने पर लग गए

Photo by Subhav Shukla (PTI1_11_2017_000072B)

कांग्रेस ने गुजरात में काफी समय बाद कुछ ऐसे काम दिए जिन्हें विशुद्ध राजनैतिक दृष्टिकोण से सही कहा जा सकता है, और ऐसा लगता है कि कांग्रेस के चार तीर इस बार सही निशाने पर लग गए:

  1. 2002 के मुद्दे से बाहर आना

कांग्रेस ने शायद सबसे बड़ा सबक यही सीखा है कि बार बार एक मुद्दे को दोहराने से कुछ ख़ास हासिल नहीं होगा, क्योंकि इस पूरे चुनाव के दौरान 2002 के दंगों का कोई जिक्र नहीं किया गया। हालांकि, इस बात पर विश्वास करना मूर्खता होगी कि कांग्रेस 2019 के चुनावों में जीत हासिल करने के लिए इस प्रकरण का पुनः आह्वान नहीं करेगी, 2002 की घटना को हाल ही में भीड़ द्वारा की हुई हत्या की घटनाओं की पूर्व कड़ी के रूप में जोड़ कर पुनः चर्चा में लाया जाएगा। कांग्रेस अभी मात्र सभी क्षेत्रों का नजदीकी से अध्ययन कर रही है, लेकिन जरूरत पड़ने पर कांग्रेस अपना सांप्रदायिक कार्ड ज़रूर खेलेगी।

2.) सोशल मीडिया पर पूरा ध्यान–

2014 के चुनावों में जीत हासिल करने के लिए, भाजपा को ‘सोशल मीडिया’ से बहुत अधिक फायदा मिला था और नरेन्द्र मोदी ने बड़ी ही समझदारी के साथ लोगों से ऑनलाइन जुड़ने के लिए ‘सोशल मीडिया’ का इस्तेमाल भी किया था। अब भाजपा के लिए सोशल मीडिया अब एक सामान्य सा मंच बन के रह गया है। इसके विपरीत कांग्रेस अब नवीनतम सुधारों और नए नए प्रयोगों के साथ सोशल मीडिया पर निरन्तर आगे बढ़ रही है, जबकि भाजपा के प्रमुख सदस्य अपनी समकालीन पार्टी से श्रेष्ठ बने रहने के लिए पुराने घिसे पिटे चुटकुले, मीम्स और वीडियो का ही इस्तेमाल कर रहे हैं। यहाँ तक कि कुछ प्रमुख मंत्रालय भी तकनीक की कम जानकारी की वज़ह से सोशल मीडिया के इस्तेमाल में संकोच करते हैं, जिससे उनके लिए यह नवीनता कम और भार ज्यादा लगता है।

कोई इनकार नहीं कर सकता है कि अधिकांश मतदाता अभी भी डिजिटल क्षेत्र के पहुँच के बाहर हैं परन्तु 2025 तक 300 मिलियन नए स्मार्टफोन उपयोगकर्ता और हो जायेंगे, इंटरनेट कनेक्शन की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है, इसलिए इस बौद्धिक युद्ध में विजय के लिए नयी रणनीति तैयार करने की आवश्यकता है, भाजपा को इस क्षेत्र में तेजी से कार्य करना चाहिए।

3.) राहुल गांधी की मंदिर यात्रा

राहुल गांधी को असल जिंदगी में टेंपल रन खेलते देख सेक्युलर नेहरू की आत्मा ज़रूर परेशान हुई होगी, लेकिन फिर इश्क और जंग में सब कुछ जायज है। दुर्भाग्य से, कांग्रेस ने भाजपा के लिए जो जाल बिछाया था उसमें वे कुछ मतदाताओं को फसाने में ज़रूर कामयाब रहे।

देश अब राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस द्वारा की जा रही तुष्टीकरण की राजनीति को स्पष्ट रूप से देख सकता है। 2019 का चुनाव जीतने के लिए, हिन्दू बहुमत वाले राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार और अन्य हिन्दू बाहुल्य राज्यों में कुछ बड़े कांग्रेस राजनेताओं को मंदिरों में जाते हुए देख कर आपको आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए। हालाँकि ऐसी तुच्छ राजनीति द्वारा हिन्दुओं के मन से भाजपा प्रेम हटाना मुश्किल है, फिर भी एनडीए को जमीनी वास्तविकता से अवगत होने की आवश्यकता है। भगवान श्री राम के लिए मंदिर का निर्माण करवाना आवश्यक है और कश्मीरी पंडितों को वापस उनकी जगह दिलाना अनिवार्य।

4.) जातिगत गठजोड़

गुजरात में राहुल गांधी के उभरने से पहले नरेंद्र मोदी के विरोधी हार्दिक पटेल को प्रमुख प्रतिद्वंदी के रूप में देख रहे थे। कांग्रेस ने हार्दिक पटेल के साथ साथ दलित नेता जिग्नेश और ओबीसी नेता अल्पेश के साथ गठबंधन किया। उनका विचार यह था कि दलित और ओबीसी वोट बैंक को कांग्रेस के पक्ष में लाया जाए और जहां कहीं भी आवश्यकता हो पटेल, ठाकोर और मेवानी की मदद ली जाए। जाति आधारित राजनीति फिर से भाजपा की परेशानी का कारण बन गयी है, यहां तक कि इससे भाजपा को कुछ क्षेत्रों में नुकसान भी पहुंचा है।

राहुल गांधी के इस जाल से एनडीए को कई सबक लेने चाहिए। ‘मोदी विद इंडिया’ के विचार को ध्वस्त करने के लिए राहुल गाँधी किसी के साथ भी गठबंधन कर सकते है। चारा चोरों से लगाकर आतंक-प्रेमियों तक राहुल गांधी का गठबंधन, धूर्तों की टूटी-फूटी पार्टी की तरह लग सकता है लेकिन यदि इसे सही तरीके से समझा नहीं गया तो ये अमित शाह और मोदी के मिशन-400 के सपने को ठेस पहुंचा सकता हैं।

मोदी जी के कार्यकाल के बस डेढ़ साल बचे है और एनडीए को अब पूरी ताकत झोंक देनी चाहिए क्योंकि मोदी-शाह की विजय, यदि भव्य नहीं है तो विजय प्रतीत नहीं होती।

नरेंद्र मोदी के वैभव के सामने उनकी यह जीत बहुत ही नगण्य है, जबकि राहुल गांधी ने अपनी गौरवशाली विरासत में इस हार से कुछ महत्व पाया है।

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