गुजरात चुनाव परिणाम: आरक्षण आधारित राजनीति की वापसी

आरक्षण की राजनीति.

गुजरात में एक कड़ी टक्कर के बाद आखिरकार भाजपा को जीत हासिल हुई। हालाँकि, भाजपा 150 सीटों के अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में असफल रही, जो उसने खुद के लिए निर्धारित किया था और भाजपा को गुजरात में मात्र 99 सीटों से ही संतोष करना पड़ा। जिसका अर्थ यह है कि भाजपा के लिए यह एक बहुत कम अंतर से प्राप्त की गयी जीत है, क्योंकि गुजरात में सरकार बनाने के लिए अपेक्षित सीटों की संख्या 92 थी।

राजनैतिक विश्लेषकों ने बहुत कम अंतर से मिली भाजपा की इस जीत के लिए, विमुद्रीकरण, जीएसटी के कार्यान्वयन, राहुल गाँधी की मंदिर यात्रा आदि कारणों को जिम्मेदार ठहराया है। लेकिन भाजपा की इस संकीर्ण जीत के पीछे कमजोर आंके गये कारणों में से एक कारण पुराने खलनायक – विकास बनाम आरक्षण मुद्दे की वापसी भी है जो चुनावों से पहले पाटीदार अनामत आंदोलन समिति (पीएएएस) के शुरू होने के बाद अस्तित्व में आया।

हार्दिक पटेल और उनके साथियों के बारे में बहुत कुछ कहा और लिखा गया। लेकिन अब तक गुजरात चुनाव परिणामों के दौरान आई कई बड़ी जटिलताओं को समझने का प्रयास नहीं किया गया। आइए पाटीदार अनामत आंदोलन समिति (पीएएएस) के उदय से उत्पन्न होने वाले कुछ खतरों पर नजर डालें।

मंडल जैसी राजनीति का पुनरुद्धार –

1947 के बाद से भारत के इतिहास की सबसे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण और बुरी घटनाओं में से एक घटना मंडल आयोग थी। यह इतिहास का काला अध्याय है जब राजनीतिक नेतृत्व ने राजनीतिक और चुनावी लाभ के लिए देश के युवाओं के भविष्य को आग लगा दिया था। जबकि देश के युवा आत्मदाह कर रहे थे, लेकिन हर राजनैतिक दल जातिगत समीकरणों के बिगड़ने के भय से बिलकुल शांत बना रहा।

गुजरात के चुनाव परिणाम, राज्यों के बीच विशिष्ट समूहों को लुभाने की प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा दे सकता है जहाँ मजबूत जातिगत समीकरणों बनाने के लिए वर्ग विशेषों को अनुचित और अवैध सुविधाएँ दी जा सकती हैं, यह आरक्षण की राजनीति का पुनर्जागरण होगा। प्रतिक्रिया स्वरुप इससे सामाजिक संघर्ष उत्पन्न हो सकता है जैसा कि मंडल आयोग की रिपोर्ट के कार्यान्वयन के बाद हुआ हुआ था और ये राष्ट्र को वास्तविक मुद्दे से भटका सकता है। इस तरह की वोट बैंक की राजनीति का सामना पूरे राष्ट्र को करना पड़ता है और भारतीय संदर्भ में किसी भी स्तर के राजनीतिक नेतृत्व द्वारा हमेशा योग्यता से पहले जाति को ही चुनना ही पसंद किया जाता रहा है। अवैध आरक्षण आदेशों की एक और लहर प्रशासन में और असमर्थ अधिकारिओं की भर्ती के लिए जिम्मेदार होगी जिससे प्रशासन कमजोर होगा और जिससे “अनारक्षित” वर्गों के योग्य व मेधावी सदस्य सरकारी नौकरी और उच्च शिक्षा प्राप्त करने के अधिकार से वंचित रह जाएगें।

ठंडे बस्ते में विकास –

यह गुजरात राज्य है जिसके बारे में हम बात कर रहे हैं। एक राज्य, जिसमें पिछले 22 वर्षों के दौरान एक बड़े पैमाने पर विकास और वृद्धि देखी गई है। यह जानना अत्यंत दुःखद है कि गुजरात जैसे राज्य, जहाँ पिछले कई वर्षों के दौरान अद्वितीय वृद्धि देखने को मिली है, वहाँ भी जाति की राजनीति खेलने वाले लोग मिल सकते हैं। यदि यह गुजरात जैसे राज्य का मामला है, तो कोई भी बस सोच ही सकता है कि पिछड़े राज्य, जहाँ चुनाव होने वाले होंगे और जहां के निवासियों ने बहुत ज्यादा विकास नहीं देखा होगा, वहां का क्या हाल होगा। सत्तासीन सरकारें पाटीदार आरक्षण आंदोलन की तरह कुछ अनोखी आरक्षण योजनाओं की घोषणाएं करके मतदाताओं को लुभाने की कोशिश कर सकती हैं। राज्य सरकारें चुनाव के जातिगत आरक्षण को ही मुख्य मुद्दे के रूप में पेश करेंगी और विकास की नयी नीति फिर से दरकिनार हो जायेगी।

2014 के आम चुनावों को एक नया मोड़ देने में विकास एक प्रमुख मुद्दा था और यदि यह प्रमुख मुद्दा नहीं भी था तब भी यह 2017 के गुजरात विधानसभा चुनाव के दौरान एक बड़ा मील का पत्थर साबित हुआ। अब यदि विकास के मुद्दे से ध्यान हटाया जाता है तो आरक्षण की राजनीति एक बार फिर से चुनाव जीतने का मार्ग बन सकती है।

निष्कर्ष –

जब भी आरक्षण का विचार मन में आता है तब सबसे पहली तस्वीर भारत की राजनीति की बनती है क्योंकि भारत आरक्षण की राजनीति नामक बुराई से कभी भी मुक्त नहीं हो पाया है। हमने मंडल आयोग की भयावहता को देखा है और राजनीतिक रूप से मजबूत समुदायों को आरक्षण देने के लिए उठाया जाने वाला कोई भी अगला मजबूत कदम भयंकर साबित होगा।

केंद्र सरकार ने ‘सबका साथ, सबका विकास’ का वादा किया है। यह ‘सबका विकास, तुष्टिकरण किसी के लिए नहीं’ के दावे के साथ रहने का समय है। मौजूदा आरक्षण कानूनों में कुछ महत्वपूर्ण सुधार करके उन्हें आगे ले जाने की आवश्यकता है एवं यहाँ एक जाति आरक्षण विरोधी नीतियाँ बनाने के लिए कुछ सख्त कदम उठाने की जरूरत है अन्यथा हम धीरे-धीरे पाटीदार अनामत आंदोलन समिति (पीएएएस) जैसी मौजूदा संस्थाओं या देश के विभिन्न हिस्सों में आगे अस्तित्व में आने वाली ऐसी संस्थाओं के सामने घुटने टेकने को मजबूर हो जायेंगे।

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