सौराष्ट्र में वेरावल के निकट प्रभास पाटन पर सोमनाथ मंदिर एक ऐसा स्थान है जो आज धर्म की जीत के प्रतीक के रूप में स्थित है, यह एक ऐसा मंदिर है जो यह दर्शाता है कि बुराई की ताकत कितनी भी अधिक हो, जीत धर्म की ही होगी। टूटकर, जलकर, छतिग्रस्त हो कर भी यह मंदिर खड़ा रहा और आज हालत यह है कि भारत का प्रमुख राजनीतिक राजवंश जो इस मंदिर के जीर्णोद्धार के खिलाफ था, आज उसी का राजकुमार इसके चक्कर लगा रहा है। यही कर्म का फेर है।
सोमनाथ मंदिर हिंदू पुनरुत्थान और विजय का प्रतीक है। वास्तव में, हिंदू दर्शन के मूल में कहा गया है कि – सृष्टि की शक्ति विनाश की शक्ति से कहीं अधिक होती है। इस मंदिर का पुनर्निर्माण राजा भोज, महिपाल देव और गुजरात के हिंदू शासकों द्वारा किया गया है, महल के निकट मंदिर का निर्माण अहिल्याबाई होल्कर और अंततः आचार्य के.एम. मुंशी द्वारा किया गया था। मंदिर का पहला विनाश जुनैद इब्न अल मुरी द्वारा किया गया था और पुनर्निर्माण के लिए पहली बाधा “पंडित” नेहरू द्वारा उत्पन्न की गयी थी।
1947 में, जूनागढ़ के नवाब ने पाकिस्तान को स्वीकार कर लिया, लेकिन सरदार पटेल ने नवाब की एक ना चलने दी, उन्होंने जूनागढ़ को वापिस भारत में सम्मिलित किया। साथ ही सामलदास गांधी के नेतृत्व में जूनागढ़ के लोगों के विद्रोह ने नवाब को रियासत छोड़ पाकिस्तान भागने के लिए मजबूर कर दिया। जब सरदार पटेल ने जूनागढ़ राज्य का श्री एन.वी. गाडगिल और जाम साहब के साथ दौरा किया तो उनका गर्मजोशी से स्वागत किया गया। जाम साहब ने अपने संस्मरणों में उल्लेख किया कि “फिर हम समुद्र के पानी में गये। सरदार पटेल ने अपने हाथों में समुद्र से कुछ पानी ले लिया। उन्होंने मुझसे कहा “मेरी महत्वाकांक्षा पूरी हो गई है। हम चुपचाप घर लौट आए और मंदिर में प्रवेश किया। अब उनकी सभी चिंताएं खत्म हो गई थी और सरदार के चेहरे पर एक नया प्रकाश दिखाई दिया।”
सरदार पटेल ने बड़ी गर्मजोशी के साथ जूनागढ़ के लोगों को भाषण देते हुए कहा कि “यह सरकार देश का विकास करने के लिए आयी है, न कि चीजों को नष्ट करने के लिए। क्योंकि यह समय पुनर्निर्माण का समय है।” यह तब हुआ, जब सरदार पटेल जी और के.एम. मुंशी जी ने मंदिर के नवीनीकरण की इच्छा व्यक्त की और उनके इस नवीनीकरण के मार्ग में कई लोगों जैसे कि “धर्मनिरपेक्ष” नेहरू, “शान्तिप्रिय” गांधी और मुसलमानों के एक वर्ग आदि के द्वारा कई बाधाएं उत्पन्न की गईं।
पवित्र सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण में नेहरू जी की भूमिका : भारतीयों के लिए एक सबक
1.) पुनर्निर्माण के विचार के प्रति आपत्ति: जवाहर लाल नेहरू ने हिंदुओं के पवित्र स्थान सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण को रोकने के प्रयास में गांधी के साथ कई बैठकें कीं। हालांकि, जवाहर लाल नेहरू खुले तौर पर देश की जनता की भावनाओं पर आपत्ति व्यक्त नहीं कर सकते थे, इसलिए उन्होंने यह सुझाव दिया कि सोमनाथ मंदिर के पुन:निर्माण में, जो धन व्यय किया जा रहा है वह राज्य निधि है, जो कि भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश को वैश्विक पटल पर अपमानित करने का कार्य करेगी। लेकिन, आजादी मिलने के बाद भारत सरकार दिल्ली में क्षतिग्रस्त या नष्ट मस्जिदों की मरम्मत करने के लिए अपने बजट से पैसे खर्च करने को तैयार हो गई। इसी के साथ-साथ राज्य द्वारा भूमि अनुदान के रूप में सांची और अन्य बौद्ध धार्मिक स्थानों को सहायता भी दी गई।
गांधी के सुझावों और लगातार कई बैठकों के बाद, यह निर्णय लिया गया कि सोमनाथ मंदिर का निर्माण भारतीय लोगों द्वारा दिए गए दान की मदद से किया जाएगा। इस योजना प्रस्ताव को जाम साहब के आरंभिक योगदान के साथ एक ट्रस्ट के रुप में संगठित और स्थापित किया गया था और इस मंदिर के पुनर्निर्माण के लिए धन इकट्ठा करने का कोई निर्धारित नहीं समय था।
2.) “हिंदू पुनर्जागरण”: हिन्दू मंदिरों के पुनर्निर्माण का रास्ता हमेशा बाधाओं से भरा हुआ रहा है, भाग्यवश गाँधी और सरदार पटेल जी की आकस्मिक मृत्यु के बाद मंदिर के पुनःनिर्माण की जिम्मेदारी आचार्य के एम मुंशी के हांथों में आ गई। नेहरू ने सोमनाथ मंदिर के पुनःनिर्माण पर अपनी नाराजगी व्यकत करते हुए, आचार्य मुन्शी जी से कहा कि “मुझे आपके द्वारा किए जा रहे सोमनाथ मंदिर के पुनःनिर्माण का कार्य पसंद नहीं है और यह हिंदू पुनर्जागरण है। नेहरु के द्वारा जताई गई आपत्ति से मुंशी को बहुत आश्चर्य हुआ और वे नाराज होकर कमरे से बाहर आ गए।
इसके बाद उन्होंने नेहरू को एक प्रसिद्ध पत्र लिखा, जिसे सभी के द्वारा एक उत्कृष्ट कृति के रूप में सराहा गया.
उद्धरणः
मुझे मेरे अतीत पर विश्वास है, जिसने मुझे वर्तमान में कार्य करने की क्षमता प्रदान की और मुझे अपना भविष्य तय करने के लिए तत्पर बनाया। मेरे लिए ऐसी स्वतंत्रता का कोई मोल नहीं है, जो हमारी भगवत् गीता से हमें वंचित करती हो या लाखों लोगों की भावना के साथ साथ हमारे मंदिरों को ध्वस्त करने और हमारे जीवन को समाप्त करने का विचार रखती हो। यह मुझे महसूस कराता है, मुझे यकीन दिलाता है कि जब इस मंदिर का जीर्णोद्धार होगा तो यह हमारा धार्मिक विश्वास सुदृढ़ करेगा तथा हमारी चेतना को जागृत करेगा जो आजादी के अभियान को सफल बनाने के लिए महत्वपूर्ण है।
इस पत्र को पढ़ने पर, श्री वी.पी. मेनन ने टिप्पणी की कि “मैंने आपके पत्र को पढ़ा है। मुझे पत्र में आपके द्वारा व्यक्त किए गए शब्दो और विचारों के उपर पूर्ण विश्वास है और इसके लिए मैं अपना जीवन भी कुर्बान कर सकता हूँ।
3.) पवित्र सोमनाथ मंदिर के उद्घाटन में हिस्सा लेने के लिए श्री राजेंद्र प्रसाद जी की यात्रा को टालने का प्रयास: राजेंद्र जी ने, अपने धर्म के प्रति सच्चे होने के कारण नेहरू के विरोध के बारे में कोई ध्यान नहीं दिया। क्या दिल्ली में उनके लिए कोई भी स्मारक इसीलिए नहीं बनाया गया? एक और रोचक तथ्य ये है कि मंदिर में देवता की स्थापना के समय दिए गए राजेंद्र जी के भाषण को सभी अख़बारों ने प्रकाशित किया जबकि आधिकारिक चैनल और आल इंडिया रेडियो ने इसे जवाहर लाल नेहरु के कठोर आदेश के चलते प्रसारित नहीं किया।
भाषण का अनुवाद ये है कि “जिस प्रकार ब्रम्हांड के निर्माता कहे जाने वाले भगवान ब्रम्हा, भगवान विष्णु की नाभि में रहते हैं। उसी प्रकार मनुष्य की रचनात्मक इच्छाशक्ति और आस्था उसके ह्रदय में वास करती है। यह रचनात्मक इच्छाशक्ति और आस्था सत्ता की सभी शक्तियों, सभी सैन्य उपकरणों, सभी सेनाओं और विश्व के सभी सम्राटों से श्रेष्ठ होती है। शताब्दियों पहले भारत सोने और चांदी के खजानों का भण्डार हुआ करता था तब सम्पूर्ण विश्व के सोने का एक बड़ा हिस्सा भारत के मंदिरों में था। ये मेरा मानना है कि सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण उसी दिन पूर्ण माना जाएगा जब न केवल इसकी नींव पर एक शानदार भवन खड़ा होगा बल्कि भारत की समृद्धि का परिमाण भी वही होगा जिस समृद्धि का प्रतीक प्राचीन सोमनाथ मंदिर था।”
जबकि मार्क्सवादी चापलूस इतिहासकारों का गिरोह आपको ये विश्वास दिलाना चाहेगा कि नेहरु वास्तव में धर्मनिरपेक्ष थे और राज्य की धर्मनिरपेक्ष प्रकृति के कारण वे राजेंद्र जी को सोमनाथ मंदिर के उद्घाटन में शामिल होने से रोकने की कोशिश कर रहे थे। आपको मालूम होना चाहिए कि यह कितना बड़ा धोखा है।
नेहरू ने वास्तव में सांची के स्तूप के अवशेषों का जीर्णोद्धार करने में मदद की और अवशेषों के जीर्णोद्धार के लिए किये गये कार्यक्रम में भजनों के जप के बीच मीलों लम्बे जुलूस में शामिल हुए। उसके बाद उन्होंने उन रेलिक्स को मुख्य भिक्षु को सौंप दिया और सुगन्धित धूप व पुष्पों से सम्मानित भी किया। यह ये नेहरु की धर्मनिरपेक्षता थी या सीधे शब्दों में कहें तो अल्पसंख्यक तुष्टिकरण था।
आचार्य के.एम. मुंशी अपनी किताब “जय सोमनाथ” में उल्लेख करते हैं:
“सत्ता में रहने वाले वाले राजनेता बार बार एक अजीब प्रकृति अपनाते हैं कि, ये अल्पसंख्यक समुदायों की धार्मिक और सामाजिक भावनाओं को तुष्ट करते हैं और बहुसंख्यक समुदाय की भावनाओं को सांप्रदायिक और प्रतिक्रियावादी स्वरुप में प्रचारित करने के लिए तत्पर रहते हैं। सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण की कुछ घटनाओं से ये कैसे स्पष्ट होगा कि धर्मनिरपेक्षता हिंदुत्व के लिए असंगत है।”
वर्तमान परिद्रश्य में राहुल गाँधी की सोमनाथ मंदिर की यात्रा में उनका नाम गैर हिन्दू रजिस्टर में पाए जाने के बाद कांग्रेस के अतिशयोक्तिपूर्ण और आतुर स्पष्टीकरणों से एक दैवीय न्याय का संकेत मिलता है।
जैसा कि मैंने पहले कहा था – इसके लिए महीने, साल या पीढियां लग सकती हैं लेकिन जीत धर्म की ही होती है.
जय सोमनाथ!