इतिहास गवाह है कि कांग्रेस ने न्यायिक स्थापना में हमेशा से हस्तक्षेप किया है। इंदिरा गांधी के समय में हमने सबसे बड़ा न्यायिक संकट झेला था। न्यायाधीश एच.आर. खन्ना का दमन एक उदहारण हैं कि कैसे कांग्रेस का समर्थन न करने पर उन्हें इसकी कीमत भुगतनी पड़ी। दूसरा उदहारण है न्यायाधीश रामास्वामी के खिलाफ महाभियोग का प्रस्ताव। एक बार फिर से कांग्रेस ने न्यायिक स्थापना को लेकर राजनीति शुरू कर दी है और इस बार महाभियोग का प्रस्ताव मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) के खिलाफ लाये जाने की रणनीति बना रही है।
कांग्रेस अपनी राजनीतिक विचारधाराओं की वजह से हमेशा से न्यायिक तंत्र पर दबाव बनाने की कोशिश करती है, इस तरह के महत्वपूर्ण संवैधानिक कार्यालय में पद धारण करने वाले के साथ दुर्व्यवहार करने के पीछे कोई स्पष्टता नजर नहीं आती। सीजेआई दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव कुछ समय के लिए शांत था लेकिन एक बार फिर से कांग्रेस इस महाभियोग प्रस्ताव को लेकर तेज हो गयी है और विपक्ष भी इसमें शामिल हो रहा है।
जनवरी महीने में सीजेआई पर सुप्रीम कोर्ट के ही चार वरिष्ठ जजों ने उनकी कार्यप्रणाली पर गंभीर आरोप लगाए थे जिसके बाद से ही कांग्रेस सहित कई राजनीतिक पार्टियां मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग चलाए जाने पर आम सहमति बनाने में जुट गयीं।
जजों ने मुख्य न्यायाधीश पर पक्षपात और अपने पद का दुरुपयोग करने जैसे गंभीर आरोप लगाये थे। जजों के अनुसार, महत्वपूर्ण मामलों में दुसरे वरिष्ठ जजों से बिना विचार के मुख्य न्यायाधीश जजों को मामलें सौंप देते हैं। हालांकि, हैरानी की कोई बात नहीं है कि विपक्ष इस मौके का फायदा उठाएगा। दरअसल, मुख्य न्यायाधीश सुप्रीम कोर्ट के पास ही न्यायाधीशों के बीच मामलों के आवंटन पर फैसला लेने का अधिकार है और इस मामले में मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ कोई ठोस सबूत नहीं थे।
एक आदर्श दुनिया में, न्यायपालिका को अपने आंतरिक मुद्दों को सुलझाने की अनुमति होनी चाहिए, लेकिन विपक्ष की योजना कुछ और ही थी। विपक्ष ने जल्द ही इस मुद्दे को ‘लोकतंत्र के लिए खतरे‘ के रूप में बदलना शुरू कर दिया गया, जिसके खलनायक मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा थे।
सीपीआई नेता डी.राजा का न्यायाधीश चेलमेश्वर (चार जजों में से एक) की संदिग्ध मुलाकात इस बात का सबूत है कि इस पूरे मुद्दे पर राजनीति हुई है। डी. राजा जजों की प्रेस कांफ्रेंस के बाद न्यायाधीश के घर से पिछले दरवाजे से बाहर निकलते हुए कैमरे में कैद हुए थे। इसके बाद राजा ने अपनी राय व्यक्त करते हुए कहा था कि “संसद को इस मामले में मूक दर्शक नहीं बनना चाहिए”। इस तरह के घटनाक्रम से साफ़ था कि कांग्रेस और उसकी कार्यप्रणाली ने इस मुद्दे पर राजनीति करने का भरपूर प्रयास किया। हालांकि, सीपीआई ने खुद को इस तरह के आपत्तिजनक बैठक से दूर कर दिया था, यह सिर्फ एक मात्र बहाना था या हो सकता है कि इस मुद्दे का राजनीतिक लाभ उठाने के लिए खुद को इस तरह के बैठक से दूर कर दिया हो।
अब जब विपक्ष न्यायिक तंत्र के आंतरिक मामलों में दखल देकर इसपर खुलकर राजनीति कर रहा है, ऐसे में कांग्रेस का मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग का प्रस्ताव लाने के पीछे की वजह जानने की अब जरुरत है।
इस मुद्दे पर राजनीति का जो पहला चेहरा सामने है वो कांग्रेस और उसके सहयोगी प्रणाली के वैचारिक मुद्दे हैं। कांग्रेस इसी वजह से मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा को स्वीकार करने में विफल रही क्योंकि वह एक स्वतंत्र न्यायाधीश हैं जो किसी विशेष विचारधारा से जुड़कर नहीं रह सकते। मुख्य न्यायाधीश ने जब सिनेमा हॉल में राष्ट्रीय गान बजाये जाने के आदेश दिए थे तब से विपक्ष की आँखों में खटक रहे थे। इसके बाद फैसले से क्रोधित राष्ट्रीय स्तर पर विरोधी तत्वों को समर्थन देने वाले विचारधारा के समर्थकों ने सुप्रीम कोर्ट के आदेशों को कठोर घोषणा के रूप में पेश करना शुरू कर दिया।
भारत के मुख्य न्यायाधीश के रूप में उनकी नियुक्ति से पहले ही मीडिया ने जस्टिस दीपक मिश्रा को रूढ़िवादी जज के रूप में दिखाया जिनका मौलिक और वैचारिक स्वतंत्रता को रोकने का लंबा इतिहास रहा है। भारत के मुख्य न्यायाधीश के प्रति कांग्रेस की दुश्मनी तब और गहरी हो गए जब उनके वरिष्ठ नेता और सुप्रीम कोर्ट के वकील, कपिल सिब्बल सीजेआई दीपक मिश्रा की अध्यक्षता में तीन न्यायाधीशों की पीठ के सामने राम मंदिर विवाद को लेकर कोई राहत नहीं दिला पाए।
कपिल सिब्बल सुन्नी वक्फ बोर्ड के लिए उपस्थित वकीलों में से एक थे। उन्होंने इस मामले में मौजूदा माहौल को अनुकूल बताकर इसपर सुनवाई को स्थगित करने की अपील की थी। हालांकि, अदालत ने इस अपील को खारिज कर दिया था और कहा था, उत्तरदाताओं ने इस मामले में सबसे पहले सुनवाई की मांग की थी और वह इसके लिए गंभीर नहीं है। हालांकि, चुनाव को पास देखते हुए कपिल सिब्बल ने बाद में इस मामले से खुद को अलग कर लिया था, मुख्य न्यायाधीश के प्रति अपनी नीयत को कांग्रेस ने साफ़ कर दिया है।
न्यायिक स्वतंत्रता भारत के संविधान के बुनियादी ढांचे का हिस्सा है। वास्तव में संविधान ने कार्यकारी व्यवस्था से न्यायपालिका को अलग रखने का विशिष्ट प्रावधान बनाया था। महाभियोग के प्रावधान सिर्फ न्यायाधीशों की शक्तियों की जांच करते हैं न की विधानमंडल का कोई हथियार है जो न्यायाधीशों का पक्ष लेकर न्यायिक तंत्र के आंतरिक मामलों में दखल देकर अपनी राजनीति करे। महाभियोग की प्रक्रिया में सुधार की जरूरत है ताकि इसका इस्तेमाल जरुरत पड़ने पर ही किया जाए। कांग्रेस के राजनीतिकरण ने राजनीति और न्यायपालिका को अलग करने की स्वस्थ और स्वतंत्र प्रक्रिया को क्षतिग्रस्त किया है। बिना किसी ठोस सबूत के इस तरह की प्रक्रिया को शुरू नहीं किया जाना चाहिए।