देश ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ की ओर बढ़ रहा है ऐसे में सरकार बनाने के लिए तीसरा मोर्चा बनाने की कवायद तेज हो गयी है। पूरे भारत में तीसरा मोर्चा मूल रूप से टीएमसी, एआईएडीएमएके, टीडीपी, बीएसपी, एसपी और आरजेडी जैसे क्षेत्रीय दलों का गठबंधन है। वैसे ये विचार राष्ट्र की राजनीति के लिए कोई नयी बात नहीं है। दरअसल, 1989 के आम चुनावों के बाद भी ऐसा गठबंधन बनाने की कोशिश की गई थी जब कांग्रेस 197 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी लेकिन बहुमत से दूर थी। उस समय ‘नेशनल फ्रंट’ के तहत केंद्र में सरकार बनाने के लिए जनता पार्टी, टीडीपी, डीएमएके, असम गण परिषद (एजीपी) कई अन्य क्षेत्रीय दल गठबंधन के लिए साथ आये थे जिसका बीजेपी और वामपंथी पार्टियों ने समर्थन किया था। मंडल आयोग के प्रसिद्ध वी पी सिंह प्रधानमंत्री बने, लेकिन सत्ता साझा करने के लिए आंतरिक लड़ाई की वजह से सरकार दो साल से भी कम समय में ही गिर गयी।
1996 में एक बार फिर से इस विचारधारा ने तुल पकड़ा था और तब बीजेपी सत्ता में थी। अटल बिहारी वाजपयी के नेतृत्व में बीजेपी ने 1996 में आम चुनावों में 161 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। वहीं, 140 सीटों के साथ कांग्रेस दूसरे स्थान पर थी। इसके बाद सरकार बनाने के लिए सयुंक्त मोर्चा के तहत समाजवादी पार्टी, द्रविड़ मुनेत्र कझागम, असम गण परिषद, तमिल मनीला कांग्रेस, तेलुगू देशम पार्टी और अधिकांश वामपंथी दल समेत सभी क्षेत्रीय पार्टी एकजुट हुई थीं लेकिन इस बार फर्क सिर्फ ये था कि कम्युनिस्ट पार्टियां बाहर से समर्थन करने की बजाए सत्ता साझा कर रही थीं। प्रधानमंत्री पद के लिए उचित उम्मीदवार की खोज शुरू हुई, सभी पार्टियां पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ज्योति बसु को लेकर सहमत हुईं। सीपीएम ने इस निर्णय को मानने से मना कर दिया था क्योंकि वो गठबंधन सरकार में ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने के निर्णय से सहमत नहीं थे। आखिरकार एचडी कुमारस्वामी के पिता एचडी देवगौड़ा प्रधानमंत्री बने। कांग्रेस ने प्रधानमंत्री पद से अटल बिहारी वाजपेयी को दूर रखने के लिए इस गठबंधन को बाहर से अपना समर्थन दिया, लेकिन एक बार फिर से आंतरिक लड़ाई शुरू हो गयी और सरकार दो साल से भी कम समय में ही गिर गयी।
ऐसे में अतीत में भी एक बड़ी पार्टी के खिलाफ इस तरह के गठबंधन का विचार और परिक्षण किया जा चुका है। आज बीजेपी पूरे देश में अपनी साख मजबूत करती जा रही है और कांग्रेस सिमट कर मात्र पंजाब, पुडुचेरी और मिजोरम तक ही रह गयी है ऐसे में गठबंधन का विचार एक बार फिरसे तुल पकड़ रहा है। इससे पहले क्षेत्रीय पार्टियां सत्ता के लिए अक्सर गठबंधन करती थीं और इस बार भी मोदी-शाह के जाल से अपने अस्तित्व को बचाने के लिए ये पार्टियां यही कर रही हैं।
किसी भी पार्टी का कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी पर विशवास नहीं है। दरअसल सभी पार्टियों को लगता है कि राहुल बीजेपी की मोदी-शाह की जोड़ी को हराने के लिए सक्षम नहीं हैं। चूंकि शक्तिशाली क्षेत्रीय नेता कांग्रेस के समर्थन के साथ मोदी के खिलाफ लड़ाई लड़ने की सोच रहे हैं ऐसे में ज्यादातर राजनीतिक पंडितों का मानना है कि तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी तीसरे मोर्चे का नेतृत्व कर सकती हैं। कर्नाटक चुनाव में जब बीजेपी को बहुमत नहीं मिला तो कांग्रेस ने जेडीएस नेता एचडी कुमारस्वामी को बिना किसी शर्त के समर्थन देने का फैसला किया।
कुछ घन्टों बाद जब परिणाम स्पष्ट हो गये तब ममता बनर्जी ने ट्वीट करके कहा कि यदि कर्नाटक में कांग्रेस ने जेडीएस के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ा होता तो नतीजे बहुत अलग देखने को मिलते। कैसे चुनाव से पहले गठबंधन के मामले में परिणाम अलग हो सकते थे, चुनाव विश्लेषकों के लिए भी ये एक सवाल है, लेकिन ट्वीट स्पष्ट रूप से इंगित करता है कि ममता बनर्जी तीसरे मोर्चे की अगुवाई करने के पक्ष में हैं।
Congratulations to the winners of the Karnataka elections. For those who lost, fight back. If Congress had gone into an alliance with the JD(S), the result would have been different. Very different
— Mamata Banerjee (@MamataOfficial) May 15, 2018
एचडी कुमारस्वामी ने ममता बनर्जी के साथ मिलकर सरकार बनाने की रणनीति के तहत आधे घंटे तक बातचीत की, ये इस ओर इशारा करता है कि क्षेत्रीय पार्टी के नेताओं ने उनके नेतृत्व करने के विचार स्वीकार कर लिया है।
बड़ा सवाल ये भी है कि क्या राहुल गांधी बीजेपी और पीएम मोदी के खिलाफ लड़ाई के लिए कांग्रेस पार्टी और मुख्य प्रतिद्वंद्वी की स्थिति से खुद को अलग करने की विचारधारा से सहमत होंगे? क्या कांग्रेस नेतृत्व करने का पद क्षेत्रीय पार्टियों के लिए छोड़ेगी जैसा की उसने कर्नाटक में जेडीएस के लिए किया? भले ही तीसरा मोर्चा बीजेपी को चुनौती देने में सक्षम क्यों न हो लेकिन ये स्पष्ट है कि कांग्रेस इस बार विपक्ष का नेतृत्व नहीं करेगी।