शैक्षणिक परिद्रश्य में लुप्तप्राय – मुस्लिम अल्पसंख्यक बच्चे

मुस्लिम बच्चे

देश में अल्पसंख्यक समुदाय के सबसे बड़े हिस्सेदार मुस्लिम समुदाय के बच्चों की शिक्षा हेतु  लिए ठोस शुरुआत के लिए सही वक़्त का इंतज़ार करते हुए आज़ाद मुल्क ७० सालगिरह पूरी कर चूका है। २६ अगस्त को शिक्षा का अधिकार कानून प्रभावी होने के ८ बरस पूरे हो गये , १५ बरस संविधान की धारा २१ ‘क’ द्वारा शिक्षा को मूल अधिकार के रूप में अंगीकार किये हुए भी हो जायेंगे परन्तु ४२.७ प्रतिशत निरक्षरता के साथ मुस्लिम अभी भी हाशिये पर हैं ।

आंकड़ो में देखें तो उच्च शिक्षा के २०१५ सर्वे के डाटा के अनुसार महाविद्द्यालय स्तर तक पहुंचे कुल छात्रों में से मात्र ४.७ प्रतिशत ही मुस्लिम छात्रों की भागीदारी रही जो की अन्य अल्पसंख्यक छात्र (इसाई ,बौद्ध,जैन,पारसी,सिख) की लगभग २ प्रतिशत कुल भागीदारी के दोगुने के आस पास रही जबकि आबादी के अनुपात में २०११ के जनसँख्या आंकड़ो पर नज़र डालें तो मुस्लिम आबादी १४.२३ प्रतिशत के मुकाबले बाकी सभी अल्पसंख्यक समुदाय की कुल आबादी ५.७५ प्रतिशत लगभग एक तिहाई ही है । जनसँख्या २०११ के आंकड़ो के अनुसार मुस्लिमों में से मात्र २.७५ प्रतिशत लोग स्नातक पाठ्यक्रमों के अध्ययन को पहुंचे, मुस्लिम समुदाय के बच्चो में बुनियादी शिक्षा से दूरी अभी भी बनी हुई है, एक बड़ा वर्ग अभी भी बुनियादी तालीम को अग्राह्य मानते हुए उसके प्रभाव से अपने बच्चो को दूर रखन चाहता है ।

२०११ की जनगणना के अनुसार देश में ८.५ करोड़ बच्चे अभी भी स्कूलों से बाहर हैं और इनमे एक बड़ा हिस्सा मदरसों में केवल दीनी तालीम हासिल कर रहे बच्चो का है।

संविधान के अनुच्छेद २९ और ३० के मुताबिक अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थाओं को विशेष दर्ज़ा हासिल है और उनका अपना अकादमिक पाठ्यक्रम होता है। कानूनन मदरसों और इसाई मिशनरी द्वारा स्थापित शिक्षण संस्थानों दोनों को यह विशेषाधिकार प्राप्त है, परन्तु दोनों में आज ज़मीन आसमान का फर्क है मिशनरियों ने जहाँ बुनियादी शिक्षा की गुणवत्ता से अपने शैक्षणिक संस्थानों को देश के विशिष्ट शिक्षण संस्थाओं की कतार में खड़ा किया है ,वहीं प्राथमिक ,माध्यमिक स्तर की शिक्षा के लिए बने अधिकतर इस्लामिक संस्थानो के बच्चे देश के राष्ट्रीय शैक्षणिक परिद्रश्य से गायब हैं ,यह तथ्य चौंकाने वाला हो सकता है ,परन्तु तकनीकी रूप से सत्य है । विश्लेषण करने पर जान पाएंगे कि जिन मदरसों, मकतबो को स्कूली शिक्षा विभाग की मान्यता के रूप में यूडाइस कोड हासिल नही है उनमे रह /पढ़ रहे बच्चो का कोई मानचित्रण ही नही होता ।

जितनी भी रिपोर्ट मुस्लिम समुदाय के बच्चो की शिक्षा के लिए प्रस्तुत गयी हैं , सही आंकड़ो के अभाव में कमोबेश अधिकतर विश्वसनीय नही प्रतीत होतीं ।पिछले दशक में सबसे चर्चित रही सच्चर कमिटी रिपोर्ट मुस्लिमो के केवल ४ प्रतिशत बच्चे ही मदरसों में अध्ययनरत मानती है क्यूकी उसका डाटा स्त्रोत सरकार का यूडाइस पोर्टल था ।

आंकलन के अनुसार मात्र २५ प्रतिशत मदरसे ही यूडाइस पर पंजीकृत हैं.,आंकड़ो के अभाव के मद्देनज़र आंकलन ही करना चाहे तो मुस्लिम आबादी में लगभग ४५ प्रतिशत हिस्सेदारी के साथ मदरसे जाने वाले बच्चो की संख्या २.५ करोड़ के आस पास बैठती है ।

मुद्दे  को आंकड़ो के मायाजाल में उलझाना मेरा उद्देश्य बिलकुल नही है। क्यूंकि इस काम पर तो किसी देश में कुछ लोगो का एकाधिकार है। मेरा उद्देश्य तो सरकार, संयुक्त राष्ट्र की संस्थाएं ,गैर सरकारी संस्थाओ,विश्लेषको ,विचारको और सुधारको की उसी चिंता में समाहित है ,कि कैसे देश के प्रत्येक बच्चे को संविधान के अनुच्छेद २१ ‘क’ (बुनियादी शिक्षा का अधिकार) का लाभ मिले और कैसे देश का हर बच्चा मुख्यधारा में फले फूले पल्लवित हो।

अल्पसंख्यक हितों के पैरोकारों ने संविधान के अनुच्छेद २९,३० और अनुच्छेद २१ ‘क’ के बीच का रास्ता खोजने की कोशिश ही नही की संविधान प्रदत्त मूल अधिकारों में शामिल  बच्चो के लिए शिक्षा के अधिकार को मुहैया कराने के लिए संसद ने शिक्षा का अधिकार कानून लागू किया । संवैधानिक विशेषाधिकार मिले होने के कारण मदरसे इस कानून के दायरे के बाहर रहे, पर इन कानूनी पेंचीदगियों के बीच बच्चे अपने मूल अधिकार से वंचित रह गये । बच्चो को उनके मूल व् विशेष धार्मिक अधिकार दोनों हासिल हो इसका रास्ता निकलना किसकी ज़िम्मेदारी थी? कैसे हम देश में इतने सारे बच्चो को न केवल मूल अधिकार से वंचित बल्कि राष्ट्रीय शैक्षणिक मानचित्र से तिरोहित कर सकते हैं ।

जबकि मुसलमान राजनैतिक और आर्थिक रूप से न केवल प्रगतिशील हैं बल्कि अपने हक के लिए जागरूक भी हैं। मुस्लिम राजनीतिको ने राजनैतिक पटल पर जिस ताक़त से अपनी उपस्थिति दर्ज की है , उतनी ताक़त से कौम की तालीमी एतबार से तरक्की न हो पाना अफसोसनाक है ।

मदरसों के आधुनिकीकरण के लिए सरकारी सहायता और सञ्चालन हेतु अनुदान की योजनाओ में भी कई तकनीकी खामियां शुमार हैं – छात्र –शिक्षक अनुपात में राष्ट्रिय औसत से पीछे होना, अधोसंरचना पर कोई ध्यान न दिया जाना तथा आवासीय संस्थाओ में बच्चो की  बुनियादी सुविधाओ और नैसर्गिक बाल अधिकारों के लिए कोई नीति निर्देशन न होना । केवल खैरात की तरह अनुदान बाँट देने से जिम्मेदारी पूरी नही हो जाती, आर्थिक मदद का इस्तेमाल किये जाने के लिए और प्रभावी तंत्र के अभाव से विसंगतियों का जन्म तो हुआ ही बच्चो के नाम पर पैसे का दुरूपयोग भी खूब हुआ सरकारी योजनाओं में कंप्यूटर तो मिले पर पाठ्क्रम नही अब बिना किताब के कंप्यूटर का क्या उपयोग होगा निश्चित ही चिंताजनक है ।

इसके लिए समाज और सरकार दोनों की जिम्मेदारी तय की जानी चाहिए ,मिसाल के तौर पर यदि समुदाय के भीतर ही जमीनी समस्याओ के पहचान और निवारण का तंत्र बने और फितरा की रकम का ही योजनाबद्ध उपयोग किया जाने लगे तो ईद पर इकठ्ठा होने वाले १००० करोड़ रूपये (जिसका अधिकाँश भागमदरसों के लिए भेजा जाता है )की रकम कई बच्चो के जीवन की दिशा बदल सकती है । वहीं सरकारें भी कंप्यूटर के पहले बिजली और शिक्षको की तनख्वाह की मामूली रकम के अलावा मदरसा के लिए शिक्षको के प्रशिक्षण का पुख्ता बुनियादी ढांचा तैयार करें तो बेहतर परिणाम मिल सकते हैं ।

योजनाओ के अलोकप्रिय और असफल होने का एक कारण ज़मीनी हकीकत से बेखबरी भी है। जैसे कि देश में मदरसा पाठ्यक्रम में एकरूपता के अभाव पर आज तक बात ही नही की गयी , पाठ्य सामग्री में समयानुरूप सुधार भी अपेक्षित हैं जिसका २०० वर्षो से उन्नयन नही हुआ है । यक़ीनन इन सब कामो के लिए योजनाओ के बजट में प्रावधान करने होंगे  ।

संविधान के ही एक अन्य प्रावधान ३५० ‘क’ के अनुसार मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षण होना अपेक्षित है , परन्तु इसकी भी अनदेखी ही हुई है । यहाँ यह उल्लेख करना आवश्यक है कि, मुस्लिम धार्मिक रूप से अल्पसंख्यक हैं परन्तु देश की लगभग सभी भाषाओ को प्राथमिक रूप से बोलने वाले मुस्लिम धर्मावलम्बी मौजूद हैं ।यहाँ आज तक संयुक्त राष्ट्र की संस्थाओं का भी ध्यान क्यों नही गया समझ से परे है

मदरसे के मूल धार्मिक रूहानी स्वरूप को अक्षुण्ण बनाये रखते हुए हर एक मुस्लिम बच्चे तक बुनियादी तालीम की रौशनी पहुंचाना एक चुनौती तो हो सकती है परन्तु यह असम्भव नही ।

तार्किक बातचीत के द्वारा इसका हल निकाला जाना चाहिए आखिरकार इस्लामिक अध्ययन के छात्र मदरसे से जामिये तक पहुंचकर आलिम और फाजिल से ऊपर मुफ़्ती तक बनना चाहते  हैं  । उनके माँ बाप का भी ये अरमान होता है और ऐसे में प्रगतिशील मुस्लिम समाज भी ये नही चाहेगा कि कौम को दिशा देने के लिए तैयारी कर रहे भविष्य के इमाम ,मौलवी , कारी , क़ाज़ी,मुफ़्ती बुनियादी तालीम से महरूम रहे ।

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