फुटबॉल विश्व कप में भारत को खेलते हुए न देख पाने का कारण यही है

वर्ल्ड कप भारत फुटबॉल

वर्ल्ड कप फुटबॉल का फाइनल मुकाबला फ्रांस और क्रोएशिया के बीच में खेला गया। फ्रांस की टीम ने अपने शानदार प्रदर्शन से दूसरी बार प्रतिष्ठित विश्व कप को अपने नाम किया। क्रोएशिया फाइनल में हार गयी लेकिन उनके प्रदर्शन ने सभी का दिल जीत लिया। वो देश जो 1990 के समय में स्वतंत्रता की घोषणा करते हुए संप्रभु राज्य बना था जिसकी जनसंख्या भारत के अधिकतर राज्यों से कम होगी, इस देश की टीम ने फुटबॉल के वर्ल्ड कप के फाइनल में पहुंचकर सबको चौंका दिया था और फिर आखिरी मैच को पूरी दुनिया ने रोमांच के साथ देखा। सभी भारतियों को ऊपर कही गयीं बातों पर गौर करना चाहिए और सोचना चाहिए कि आखिर क्यों हम आज भी फुटबॉल के खेल में विफल रहे हैं? इसका जवाब शायद थोड़ा मुश्किल हो लेकिन इसमें कोई शक नहीं है कि कहीं न कहीं इस क्षेत्र में विफलता के पीछे का कारण सही योजना और नीतियों की कमी है। ऐसा नहीं है हम शारीरिक रूप से फिट नहीं है। हमारे देश में अनगिनत मुक्केबाज और पहलवान हैं जिन्होंने अपने प्रदर्शन से देश का नाम रौशन किया है। अन्य कारण अगर खेल की गति है जो हमारे खिलाडियों से मेल नहीं खाती तो हॉकी इसका सही जवाब होगा क्योंकि ये खेल भी अपनी गति के लिए जाना जाता है और इसमें हमारी टीम दुनिया के शीर्ष टीमों में गिनी जाती है। इसके पीछे की मुख्य वजह कुछ और ही है और शायद ये 1950 के वर्ल्ड कप में भाग लेने के मौके को गवां देने से जुड़ा है।

ब्राजील में 1950 के वर्ल्ड कप में भाग लेने के लिए भारत के पास मौका था, 1948 के ग्रीष्मकालीन ओलंपिक में फुटबॉल में भारत ने उत्कृष्ट प्रदर्शन किया था और इस जीत ने भारत को फीफा विश्वकप में पहुंचा दिया था। उनकी सिर्फ एक मांग थी और इस बारे में 1948 के ओलंपिक के तुरंत बाद भारत को बताया गया था जिसके मुताबिक उन्हें नंगे पैर खेलने की इजाज़त नहीं दी गयी थी। 1948 में कुछ भारतीय खिलाड़ी नंगे पांव खेलते थे लेकिन फीफा ने अखिल भारतीय फुटबॉल महासंघ को ये संदेश दिया था कि फीफा विश्व कप में भाग लेने के लिए जूते पहनना आवश्यकता थी। अखिल भारतीय फुटबॉल महासंघ (एआईएफएफ) के पास भारतीय खिलाड़ियों को जूते पहनकर खेलने का परिक्षण देने के लिए पर्याप्त समय था लेकिन उन्होंने ऐसा करना नहीं चुना। जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने भी उस समय ये जरुरी नहीं समझा कि एआईएफएफ पर दबाव डाला जाना चाहिए और एआईएफएफ ने तब टीम को वर्ल्ड कप में नहीं भेजने का फैसला किया था।

ये सच है कि आज के संबंध में देखें तो तब 1950 का वर्ल्ड कप उतना महत्वपूर्ण नहीं था लेकिन फिर भी ये एक अंतरराष्ट्रीय स्तर की घटना थी। अगर भारत उस समय खेल में भाग लेता तो उसे जरुर ही लाभ मिलता और निश्चित रूप से आज वर्ल्ड कप में हिस्सा लेने वाले देशों में भारत का नाम भी उच्च श्रेणी में शुमार होता। भारतीय फुटबॉल खिलाड़ी का प्रदर्शन बेहतरीन होता और शायद वो क्रिकेट से ज्यादा लोकप्रिय भी होते। कुछ लोग ये भी दावा करते हैं कि नए आजाद भारत को अपनी टीम को ब्राजील भेजने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता था। ये पूरी तरह निराधार है क्योंकि विश्व कप के आयोजकों ने खुद सामने से भारतीय टीम पर होने वाले खर्चों का भुगतान करने की पेशकश की थी। भारतीय टीम को सिर्फ वर्ल्ड कप में हिस्सा लेने के लिए ब्राजील जाना था और इस दिशा में एआईएफएफ और सरकार को आगे बढ़ने की जरूरत थी। फिर भी उन्होंने वहां टीम को भेजने की बजाय बहाना बनाने का विकल्प चुना और जब बाकी दुनिया के खिलाड़ी खेल रहे थे तब उन्होंने बैठने का विकल्प चुना।

वर्तमान समय में फीफा रैंकिंग में भारतीय फुटबॉल की टीम 97 वें स्थान पर है, हमारी रैंकिंग और भी बेहतरीन हो सकती थी यदि नेहरू या एआईएफएफ ने विश्वकप के आमंत्रण के महत्व को समझा होता। आज हमारे भारतीय फुटबॉल टीम के कप्तान सुनील छेत्री को भारतीय प्रशंसकों से फुटबॉल मैच देखने के लिए अनुरोध नहीं करना पड़ता। भारत में नेहरु और कांग्रेस ने अपनी नीतियों की तरह ही खेल के मैदान में भारत के लिए एक सुनहरे मौके को गंवा दिया। ये समय की मांग है कि हम अपनी असफल नीतियों को पीछे छोड़ दें और अब इन नीतियों की जगह नई नीतियों को खेल के साथ देश के लिए भी लागू करें। भारत में फुटबॉल को अब देश के विकास के साथ कदम से कदम मिलाकर आगे बढ़ना चाहिए। वास्तव में ये एक बढ़िया समय है कि हम देश के साथ-साथ फुटबॉल दोनों में ही बेहतर बदलाव लायें।

Exit mobile version