चीन के अतिक्रमण को रोकने के लिए श्रीलंका ने दक्षिण में भेजी अपनी नौसेना

श्रीलंका चीन

चीन की कंपनी द्वारा हम्बनटोटा बंदरगाह पर किसी भी अतिक्रमण की गतिविधियों का मुकाबला करने के लिए श्रीलंका ने हाल ही सख्त कदम उठाते हुए अपने दक्षिणी नौसेना मुख्यालय को स्थानांतरित करने का फैसला किया है। श्रीलंका के प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे के कार्यालय के मुताबिक, “श्रीलंका की नौसेना अपने दक्षिणी कमांड को हम्बनटोटा ले जा रही है। चिंता की कोई बात नहीं है क्योंकि बंदरगाह की सुरक्षा श्रीलंका नौसेना के नियंत्रण में होगा, श्रीलंका ने चीन को ये भी सूचित किया कि हम्बनटोटा को किसी भी सैन्य उद्देश्य के लिए उपयोग नहीं किया जा सकता है।” चीन के निरंतर प्रयासों से दक्षिण में अपनी सुरक्षा को लेकर भारत की बढ़ती चिंता के बीच पिछले वर्ष दिसंबर में श्रीलंका ने चीन द्वारा लिए गये 1.1 अरब डॉलर के विशाल ऋण की आपूर्ति के लिए देश के दक्षिणी हिस्से में मौजूद हम्बनटोटा बंदरगाह का नियंत्रण चीन को 99 वर्ष के पट्टे पर सौंपा था। चीन की सरकारी संस्था चाइना मर्चेंट पोर्ट होल्डिंग्स की हंबनटोटा इंटरनैशनल पोर्ट ग्रुप में 70 फीसदी हिस्सेदारी होगी और बाकी 15 फीसदी हिस्सा श्रीलंका पोर्ट्स अथॉरिटी के पास होगा। श्रीलंका सरकार ने 1.12 बिलियन डॉलर की कुल राशि के लिए 99 वर्षों के लिए बंदरगाह की हिस्सेदारी का 70 प्रतिशत पट्टे पर रखा है, जिसमें से 585 मिलियन पिछले हफ्ते चीन द्वारा भुगतान किया गया था। इसका बाकी राशि का भुगतान पहले ही किया जा चुका है। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, सौदे की 58.5 करोड़ डॉलर की अंतिम किश्त को चीन ने रोक दिया है क्योंकि श्रीलंका ने चीन द्वारा इस जमीन का उपयोग मनोरंजन प्रायोजनों को लेकर आपत्ति जताई है।

ये भारत के लिए एक बड़ी रणनीतिक जीत के रूप में उभरा है क्योंकि श्रीलंका पिछले दशक से भारत के प्रभाव क्षेत्र से बाहर निकल रहा था। 2014 में चीन की एक पनडुब्बी को कोलंबो के बंदरगाह में रखने को लेकर भारत ने श्रीलंका के सामने अपनी चिंता को जताया था। पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे ने कहा था कि, “फिलहाल श्रीलंका की गाले में स्थित दक्षिणी नौसेना कमांड को बंदरगाह के दक्षिणी हिस्से स्थांतरित किया जा रहा है। हम्बनटोटा बंदरगाह का उपयोग सिर्फ वाणिज्यिक उद्देश्यों के लिए किया जाएगा और उम्मीद की जा रही है कि इससे पड़ोसी जिलों में अत्यधिक आवश्यक आर्थिक विकास को बढ़ावा मिलेगा।” महिंदा राजपक्षे जो दशकों से एक प्रतिष्ठित पद पर विराजमान हैं वो चीन की एक कठपुतली की तरह अभिनय कर रहे थे। चीन से उच्च वाणिज्यिक उधार के लिए विपक्ष और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने उनकी आलोचना की जिसका अभी तक देश भुगतान नहीं कर पाया है। उन्होंने 19 नवंबर 2005 से 9 जनवरी 2015 के बीच अपने कार्यकाल के दौरान चीनी कंपनियों के साथ देश की प्रमुख निर्माण परियोजनाओं के लिए अनुबंध दिए थे। उनके प्रो-चीन रवैये की वजह से अब ऐसी स्थिति बन गयी जिसमें श्रीलंका की 40 प्रतिशत निर्माण परियोजनाएं चीनी कंपनियों द्वारा पूरा किया गया। कोलंबो राजपत्र के मुताबिक, सिलोन इंस्टीट्यूट ऑफ बिल्डर्स (CIoB), श्रीलंका के इंजीनियरों और बिल्डरों के एक समूह ने कहा कि, देश में 40 प्रतिशत निर्माण परियोजनाओं में चीन अंतर्राष्ट्रीय ठेकेदार संघ (चीन) की हिस्सेदारी है। सिलोन इंस्टीट्यूट ऑफ बिल्डर्स चाहता है कि चीनी कंपनियां निर्माण परियोजनाओं में स्थानीय साझेदार बनें जिससे घरेलू कंपनियों और उद्योग को मदद मिलेगी।

श्रीलंका की विदेश नीति में तब बड़ा बदलाव आया था जब 2015 में महिंदा राजपक्षे को मैत्रीपला सिरीसेना ने राष्ट्रपति चुनाव में हराया। श्रीलंका के नए राष्ट्रपति भारत सरकार के लिए अधिक सहयोगी साबित हुए और चीन की तरफ उनका झुकाव भी कम दिखा. चीन श्रीलंका की आधारभूत संरचना परियोजनाओं का उपयोग स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स पॉलिसी के विस्तार के लिए कर रहा है। स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स पॉलिसी के जरिये चीन अपने सैन्य तथा वाणिज्य संबंधों का विस्तार अपनी मुख्य भूमि से हिंद महासागर में पोर्ट सूडान तक करना चाहता है। स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स  चीन की वन बेल्ट वन रोड (ओबीओआर) का हिस्सा है जो चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की घरेलू और विदेशी नीति एजेंडे का एक मुख्य हिस्सा है। ओबीओआर के मध्यम से चीन पुराने सिल्क रोड के आधार पर एशिया, अफ्रीका और यूरोप के देशों को परिवहन बुनियादी ढांचे के माध्यम से जोड़ना चाहता है। ये योजना चीन की सबसे महत्वाकांक्षी परियोजना का प्रतिनिधित्व करता है। ओबीओआर की दो मुख्य परियोजना है, जमीनी सिल्क रोड और समुद्री सिल्क रोड। ये परियोजना 68 देशों में फैले हुई है जिसका हजारों करोड़ों रूपये का निवेश किया गया है जोकि वैश्विक आबादी का 60 प्रतिशत और वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद का 40 प्रतिशत तक दर्शाती है।

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