संसद में पहली बार आर्थिक आधार पर आरक्षण पर हुई चर्चा

आर्थिक आरक्षण

इतिहास में 26 जुलाई 2018 को हुई संसदीय कार्यवाही भारतीय राजनीति के लिए सबसे यादगार क्षणों में से एक बन गया। एक मुद्दा जिसपर बहुत पहले ही चर्चा की जानी चाहिए थी और लागू किया जाना चाहिए था आखिरकार उस मुद्दे को उठाया गया। भारत ने गुरुवार को 1999 में कारगिल युद्ध की जीत का जश्न मनाया और इसी जश्न के दौरान पहली बार संसद आर्थिक आधार पर आरक्षण की चर्चा का साक्षी बना।

कुछ लोगों के लिए वरदान और कई लोगों के अभिशाप रहा आरक्षण हमेशा से ही भारतीय राजनीति के लिए एक कठिन विषय रहा है। ये एक ऐसा नाजुक मुद्दा है जिसपर सोच समझकर आगे कदम बढ़ाना होगा, अगर इस मुद्दे पर सरकार ने जरा भी सख्ती दिखाई तो इसमें सरकार को तोड़ने की क्षमता है। समाज में शैक्षणिक और आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों के हित के लिए और राष्ट्रीय निर्माण में उनके योगदान के लिए एक नीति बनाई गयी थी, जाति आधार का ये आरक्षण जल्द ही राजनीतिक पार्टियों के लिए एक ऐसा मुद्दा बन गया जिसका इस्तेमाल वो अपनी गंदी राजनीति के लिए करने लगे। हर 10 वर्षों में आरक्षण प्रक्रिया की समीक्षा के लिए एक प्रावधान था, जिसे कभी भी बड़े पैमाने पर राजनीतिक स्तर पर लागू करने का विचार नहीं किया गया।

भारतीय संविधान के प्रावधानों के अनुसार, जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने फैसले में कहा था, ‘कोई भी राज्य अपनी आबादी को 50 प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण नहीं दे सकता है।‘ फिर भी राजनीतिक पार्टियां अपने कथित ‘वोट बैंकिंग’ के लिए बार बार इस सिद्धांत का अपने फायदे के लिए उल्लंघन करती हैं।

मंडल आयोग के तहत आरक्षण को बढ़ावा देने के प्रस्ताव के बाद हिंसक प्रदर्शन बढ़े, जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट को इस मामले में हस्तक्षेप करना पड़ा और कोर्ट ने ओबीसी के लिए क्रीमी लेयर का विकल्प दिया, जहां निर्धारित वार्षिक आय से परे कोई भी आरक्षण का लाभ उठाने के योग्य नहीं था।

संसदीय कार्यवाही पर आते हैं, चूंकि लोकसभा में भगोड़ा आर्थिक अपराध विधेयक पारित किया गया था, केंद्र सरकार ने आर्थिक आधार पर आरक्षण देने का प्रस्ताव उठाया। नाम न बताने की शर्त पर एक वरिष्ठ मंत्री ने प्रेस को बताया, ‘इस प्रस्ताव पर कैबिनेट की बैठकों में पहले चर्चा की गई है, हालांकि ये चर्चा प्राथमिक स्तर पर है, लेकिन जल्द ही इसे बड़े पैमाने पर तैयार किया जाएगा और एनडीए इसके लिए गंभीर है।’

हालांकि, इस मुद्दे पर प्राथमिक स्तर पर चर्चा की जा चुकी है, वर्तमान सरकार अब इसे लेकर काफी गंभीर है और विवादास्पद मराठा आंदोलन जिसने एक बार फिर से महाराष्ट्र की मुश्किलों को बढ़ा दिया अब वो एक इसका प्रभावी समाधान चाहती है जो सभी के लिए इस तरह के विवादों को ही खत्म कर दे।

कानूनी रूप से कहें ये एक ऐसा प्रावधान है जिसे हमारे देश में बहुत पहले ही लाया जाना चाहिए था। संविधान के अनुच्छेद 46 के मुताबिक, समाज में शैक्षणिक और आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों के हित का विशेष ध्यान रखना सरकार की जिम्मेदारी है।

जो लोग अनजान हैं उनके लिए बीजेपी के नेतृत्व वाली एनडीए निष्क्रिय रहा है, यदि वो सक्रिय रूप से आरक्षण के मानकों को बदलने के लिए समर्थन में नहीं है तो बता दें कि इसे खत्म नहीं किया जा रहा है। हालांकि, देश में चली आ रही  संस्कृति पर आश्रित लोगों के इरादें कभी भी सच्ची भावना के पक्ष में नहीं रहे हैं।

केवल 2015 में, आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ही चुनाव अभियानों के दौरान आरक्षण के मानकों की समीक्षा करने की संभावना पर चर्चा की थी, जो दुर्भाग्य से आगे नहीं बढ़ा। अल्पसंख्यकों के खिलाफ कथित ‘असहिष्णुता’ पर दिखावे का एक आंदोलन तैयार किया गया जिसके बाद महागठबंधन के बैनर के तहत विपक्ष ने बिहार के चुनावों में सीटें हासिल की।

आर्थिक आधार पर आरक्षण का ये प्रस्ताव जिसे पिछली सरकारों ने अपने लाभ के लिए या तो अनदेखा किया या जानबूझकर छुपाया। ये कहने की जरूरत नहीं है, कि इस तरह की अस्थिर स्थिति में इस प्रस्ताव पर एक छोटी सी चर्चा के बहुत मायने हैं जो एक झटके में देश की कई समस्याओं को हल कर सकता है। सच में, ये प्रस्ताव बहुत पहले लागू किया जाना चाहिए था, लेकिन किसी भी नई शुरुआत के लिए कभी देर नहीं होती है!

Exit mobile version