सुप्रीम कोर्ट ने मध्यरात्रि में की सुनवाई, अर्बन नक्सलियों को मिली राहत

सुप्रीम कोर्ट अर्बन

मंगलवार को पुणे पुलिस ने पीएम मोदी की हत्या की साजिश रचने के आरोप में 5 सामाजिक कार्यकर्ताओं को अपनी हिरासत में लिया था। इन सभी कार्यकर्ताओं के तार भीमा कोरेगांव हिंसा से जुड़े होने का आरोप लगा है। इस गिरफ्तारी को लेकर पूरे देश में वामपंथी गैंग ने विरोध करना शुरू कर दिया। गिरफ्तारी को लेकर बढ़ते विवाद के बाद ये मामला इसके बाद सुप्रीम कोर्ट पहुंचा जहां सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में गिरफ्तार किए गये सभी पांच कार्यकर्ताओं को हाउस अरेस्ट करने के आदेश दिए हैं। इस आदेश के अनुसार सभी अर्बन नक्सलियों को पांच सितंबर तक अपने घरों पर नजरबंद रहेंगे।

यहां देखिये पूरा घट्नाक्रम

मध्यरात्रि में सुनवाई का ये ट्रेंड चिंताजनक है। इससे आम जनता में गलत संदेश जाता है। अब लोग ये सवाल करने लगे हैं कि आखिर मध्यरात्रि में सुप्रीम कोर्ट आतंकवादियों, राष्ट्र विरोधी, कुछ दलों के अहंकार की संतुष्टि (कर्नाटक राज्यपाल के फैसले के खिलाफ याचिका) और अर्बन नक्सल के लिए क्यों सुनवाई करता है। मद्रास हाई कोर्ट ने भ्रष्टाचार का आरोप झेल रहे चिदंबरम और उनके बेटे के मामले पर मध्यरात्री में सुनवाई की। भारतीय न्यायालयों का राष्ट्र विरोधी, आतंकवादियों और भ्रष्ट लोगों के खिलाफ यूं मध्यरात्री में सुनवाई करना जांच में तो बाधा डालता ही है साथ ही देश के लिए भी अच्छा नहीं है। जबकि आम जनता को अगर किसी मामले के लिए न्याय चाहिए तो उसे पहले स्थानीय कोर्ट जाना पड़ता है और फिर उसे न्याय के लिए सुस्त न्यायपालिका और लाल फीताशाही की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है वहीं अर्बन नक्सलियों, आतंकवादियों और भ्रष्टाचार में लिप्त लोगों के साथ क्यों आम जनता से अलग हाई प्रोफाइल व्यवहार किया जाता है? वर्ष 1993 में मुंबई बम धमाकों के साजिशकर्ताओं में से एक याकूब मेमन के मामले की सुनवाई भी मध्यरात्रि में की गयी थी जो आज भी सभी के जहन में ताजा है। लिबरल ब्रिगेड और प्रशांत भूषण जैसे कोर्ट फिक्सर सुप्रीम कोर्ट पर मोदी सरकार का दबाव होने के आरोप लगाने जैसी अपनी आदत से बाज नहीं आते हैं और खुद कोर्ट पर मध्यरात्रि में भी सुनवाई का दबाव डालते हैं उसपर कोई कुछ क्यों नहीं बोलता? पुलिस और सुरक्षा एजेंसियों को इन हाई प्रोफाइल अपराधियों के खिलाफ सबूत इकट्ठा करने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती है लेकिन ‘माननीय’ सुप्रीम कोर्ट ने नक्सली समर्थकों तथा सरकार और देश को बदनाम करने वालें लोगों, आतंकवादियों को एक नहीं कई बार मध्यरात्रि में सुनवाई कर रियायत दी है। क्या ये अनुचित नहीं है? ऐसे में सवाल उठता है कि क्या सच में न्याय की प्रक्रिया सभी के लिए समान है? क्या सुप्रीम कोर्ट ने कभी भारत की आम जनता के लिए मध्यरात्री में सुनवाई की है? ऐसे में तो लोगों के मन में ये सवाल उठ सकता है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले शरू से ही शहरी नक्सलियों के पक्ष में होते हैं, चाहे वो मामला नंदिनी सुंदर का हो या सलवा जुड़ूम का या फिर तीस्ता सीतलवाड़ का। जिस प्रकार ऐसे गंभीर आरोपों के बावजूद इन ‘संभ्रांत लोगों’ को रियायत दी जाती है क्या देश की आम जनता को इस प्रकार की रियायत मिलती है? जिस प्रकार देश के खाते-पीते वामी-कांगी समर्थक इन आरोपियों के समर्थन में इकट्ठे हो जाते हैं वो कभी आम जनता के समर्थन में इकट्ठा क्यों नहीं होते है? सवाल तो ये भी उठता है कि क्या अर्बन नक्सलियों का समर्थन आधार इतना मजबूत था कि उन्हें जेल से निकलवाने के लिए उनके समर्थक कुछ भी कर सकते हैं? सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें ये कहकर राहत दी कि असहमति लोकतंत्र की‘सेफ्टी वाल्व’ है। ऐसे में क्या भीमा कोरेगांव हिंसा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या की साजिश, आतंकवाद और नक्सलवाद के लिए सक्रिय सहायता, हिंसा के लिए उकसाना ‘लोकतांत्रिक असंतोष का एक रूप है? अधिकतर गिरफ्तार किये गये नक्सली समर्थकों पर अतीत में क्या कभी कोई आरोप नहीं लगा? क्या वो कभी किसी मामले में दोषी नहीं थे? क्या वो कभी जेल नहीं गए? अगर इन नक्सल समर्थकों के अतीत में झाँक कर देखें तो पाएंगे कि वो कई मामलों में दोषी थे और जेल में सजा भी काट चुके हैं ऐसे में मंगलवार को तथाकथित ‘असंतोषकों’ को गिरफ्तार करना गलत कैसे है? देश का कानून नियमों के साथ कार्रवाई कर रहा है और सभी को कानून का साथ देकर चीजों को सुलझाने में मदद करनी चाहिए न की विरोध करके हंगामा खड़ा करना चाहिए।

असहमति और असंतोष के लिए स्पष्ट परिभाषा और सीमाएं होनी चाहिए यहां तक कि न्यायपालिका को भी इसपर गौर करना चाहिए।

इस पूरे प्रकरण ने पूरे गैंग के ढोंग को सामने रख दिया है। ये वही लोग हैं जो संस्था से सवाल करते हैं यहां तक कि कोर्ट के फैसले पर भी आपत्ति जताते हैं जब कोई फैसला या स्थिति उनके पक्ष में नहीं होती और जब फैसला पक्ष में हो यही लोग संस्था की सराहना करते हैं। ये वही लोग हैं जो दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और माओवादी सहानुभूतिकार जीएन साईं बाबा पर कोर्ट के फैसले के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया था। वो अपनी विचारधारा के अनुरूप फैसलों के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट का समर्थन करते हैं तो कभी आलोचना करते हैं। अब उनके लिए सुप्रीम कोर्ट मोदी सरकार के लिए काम नहीं कर रहा और न मोदी सरकार के दबाव में है।

मामला यही समाप्त नहीं हुआ है। ये मामला अभी भी कोर्ट में हैं। हम उम्मीद करते हैं कि कोर्ट इन अर्बन नक्सल के मामले की गहराई में जाकर उचित निर्णय ले और न्याय करे। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट को किसी विशेष वर्ग के लिए मध्यरात्रि की सुनवाई नहीं करनी चाहिए इससे आम जनता के बीच गलत संदेश जाता है। देश की न्यायपालिका के लिए सभी एक बराबर है चाहे वो कोई भी वर्ग क्यों न हो।

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