ग्रैंड ट्रंक रोड का विचार महाभारत काल से संबंधित है
आजादी के बाद इतिहासकारों ने राजनीतिक और राजवंश में बदलाव से जुड़े इतिहास को बारीकी से नहीं खंगाला। बुनियादी ढांचे और राजनीतिक बदलावों के बीच के बिंदुओं को कभी जोड़ने की कोशिश नहीं की गयी। बिना किसी गहन जांच और तथ्यों की खोज की बजाय जोड़-तोड़ कर आंकलन करने पर जोर दिया गया। अपनी जरूरतों के मुताबिक राजनीतिक प्रतिष्ठान ने इतिहासकारों को इतिहास से जुड़े तथ्यों को ढूंढने और पेश करने के निर्देश दिए गये। मीडिया पर सरकारी नियंत्रण और अकादमिक पर इसके प्रभाव ने इतिहास के पन्नों को हर कोण से जांचने की अनुमति नहीं दी। बिना सरकारी समर्थन के निजी और व्यक्तिगत शोध की कमी की वजह से सरकार के मुताबिक मानव और समाज से जुड़े इतिहास के राज खुलकर सामने नहीं आ सके। अन्वेषण परियोजनाओं और अनुसंधान को बड़े पैमाने पर सरकार द्वारा वित्त पोषित किया जाता था ताकि राजनीतिक प्रतिष्ठानों का नियंत्रण इनपर बनी रहे।
हाल के कुछ वर्षों में इसमें बदलाव आया है और अब इतिहासकार भारतीय इतिहास और भूगोल की खोज को हर तरह से खंगाल रहे हैं और इसके परिणामस्वरूप कई ऐसे तथ्य सामने आये हैं जिसने पूर्व में लिखे गये कई तथ्यों पर सवाल खड़े कर दिए हैं। ऐसा ही ग्रैंड ट्रंक रोड के इतिहास के साथ भी है। ग्रैंड ट्रंक रोड का इतिहास बहुत पुराना है। ग्रैंड ट्रंक रोड के इतिहास के बारे में कहा जाता है कि इसका निर्माण शेरशाह सूरी ने करवाया था लेकिन नए शोध से ये पता चला है कि इस रोड का विचार महाभारत काल से संबंधित है। इसे प्राचीन काल में उत्तरपथ कहा जाता था। ये प्राचीन भारत के दो प्रमुख मार्गों में से एक हुआ करता था। दूसरा मार्ग दक्षिणापथ था जो तमिलनाडु तक जाता था। दोनों मार्गों का उपयोग व्यापार, धर्म और लोगों के लिए किया जाता था। ये दोनों ही मार्ग का केंद्र इलाहाबाद और वाराणसी के बीच था जहाँ ये दोनों मार्ग जुड़ते थे।
उत्तरापथ सिर्फ एक भूमि मार्ग नहीं था क्योंकि इस मार्ग का जुड़ाव नदियों से जुड़े क्षेत्रों से था। ये मार्ग गंगा नदी के किनारे की बगल से होते हुए, गंगा के मैदान के पार, पंजाब के रास्ते से तक्षशिला को जाता था। इस रास्ते का पूर्वी छोर तमलुक में था जो गंगा नदी के मुहाने पर स्थित एक शहर है। भारत के पूर्वी तट पर समुद्री बंदरगाहों के साथ समुद्री संपर्कों में वृद्धि की वजह से मौर्य साम्राज्य के काल में इस मार्ग का महत्व बढा और इसका व्यापार के लिए उपयोग होने लगा। बाद में, उत्तरापथ शब्द का प्रयोग पूरे उत्तर मार्ग के प्रदेश को दर्शाने के लिए किया जाने लगा।
कई राजवंश आये और गये और हर नए राज में इस मार्ग में बदलाव किये गये लेकिन इस मार्ग का महत्व किसी भी शासन के लिए कम नहीं हुआ क्योंकि किसी भी शासक के पास ग्रैंड ट्रंक रोड के अलावा और कोई बेहतर विकल्प नहीं दिखा। उत्तरपथ और दक्षिणापथ का उल्लेख प्राचीन संस्कृत और प्राकृत ग्रंथों में किया गया था क्योंकि इस मार्ग का धार्मिक महत्व भी था। गौतम बुद्ध ने अपने पहले उपदेश के लिए सारनाथ स्थान को चुना था क्योंकि ये दोनों ही मार्गों का केंद्र बिंदु था। समृद्ध व्यापारियों, नौकरशाहों और शाही सदस्य अक्सर इस जगह पर जाते थे, इसलिए समाज के प्रभावशाली सदस्यों के बीच नए विचारों को लोकप्रिय बनाने के लिए ये सबसे अच्छी जगह थी। उत्तरापथ उत्तर-पश्चिम भारत में चला गया, भारत-गंगा मैदानों को पार कर बंगाल की खाड़ी में ताम्रलिप्ति बंदरगाह से जुड़ गया। यक्ष उत्तरापथ के व्यापारियों के लिए देवता था और इस मार्ग पर उनकी बड़ी मूर्तियां प्राप्त हुई हैं।
देश के विभिन्न क्षेत्रों में पत्थर, मोती, शैल, सोना, सूती कपडा और मसालों के विस्तार के पीछे का कारण ये दो मार्ग ही हैं और इसका उल्लेख अन्य क्षेत्रों के ग्रंथों में भी किया गया है। मदुरई के कपड़े उपमहाद्वीप में प्रसिद्ध थे। प्राचीन भारतीय इतिहास की खोज की यात्रा यहीं समाप्त नहीं होती है। आगे भी इससे जुड़े शोधों को जारी रखना चाहिए जिससे प्राचीन भारत का छुपा हुआ इतिहास सभी के सामने आ सके।