उत्तर प्रदेश 2019 के आम चुनाव के मद्देनजर सबसे महत्वपूर्ण राज्य है। उत्तर प्रदेश में 80 लोकसभा तथा 403 विधानसभा की सीटें हैं। पिछले आम चुनावों में बीजेपी सर्वाधिक 73 लोकसभा सीटें जीतने में सफल हुई थी और उसकी सहयोगी अपना दल जीतने में कामयाब रही थी जबकि सपा ने 5 व कांग्रेस को दो सीटों से ही संतोष करना पड़ा था। अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में वर्ष 2014 के आम चुनावों की तरह ही बीजेपी उत्तर प्रदेश बहुमत के आंकड़े को पार करने की तैयारी कर रही है। भारतीय जनता पार्टी के राह में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, कांग्रेस जैसे कई दल खड़े हैं जो इस लक्ष्य में बाधा डालने की कोशिश कर रहे हैं। खबरों की मानें तो उत्तर प्रदेश में कांग्रेस, सपा, बसपा और आरएलडी मिलकर चुनाव लड़ने की योजना बना रहे हैं। आगामी लोकसभा चुनाव को लेकर एक बता स्पष्ट है कि लड़ाई मोदी बनाम अन्य होगी। मोदी को हराने के उद्देश्य से विपक्षी पार्टियां एकजुट होने की योजना बना रही हैं। हालांकि, सीटों के बंटवारे को लेकर अभी तक कोई आखिरी फैसला नहीं आया है लेकिन क्या वास्तव में वो प्रदेश में महागठबंधन की सरकार बना पाएंगे? शायद नहीं। इसके पीछे चार बड़े कारण है जो दर्शाते हैं कि प्रदेश में महागठबंधन की संभावना बहुत ही कम है।
पहला कारण, सपा में अखिलेश यादव 6 सालों से पार्टी का चेहरा हैं लेकिन पार्टी बड़ी जिम्मेदारी के बंटवारे को लेकर आंतरिक मतभेद से जूझ रही थी। वर्ष 2017 के उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव से पहले ही समाजवादी पार्टी में दरार की खबरों ने खूब तुल पकड़ा था। उस दौरान समाजवादी पार्टी दो खेमों में बंट गया था पहले खेमे में समाजवादी पार्टी के पूर्व अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव और दूसरा खेमा अखिलेश यादव का था। उस दौरान मोदी लहर को देखते हुए भले ही आंतरिक मतभेद को दबा दिया गया था लेकिन समय के साथ ये और गहराता गया। आखिर में पार्टी में कोई सम्मान और जिम्मेदार पद न मिलने की वजह से शिवपाल सिंह यादव ने नयी पार्टी समाजवादी सेक्युलर मोर्चा की घोषणा कर दी। आगामी लोकसभा चुनाव को लेकर अखिलेश यादव पार्टी को कैसे ऊपर उठाएं इसके लिए कोशिशों में जुटे हैं ऐसे में शिवपाल सिंह यादव का नयी पार्टी की घोषणा ने उनकी बची हुई उम्मीदों पर भी पानी फेर दिया। अब समाजवादी का वोटबैंक दो भागों में बंट जायेगा क्योंकि मुलायम सिंह शिवपाल के खेमे में नजर आ रहे हैं और राजनीति में उनकी पकड़ काफी मजबूत है। अखिलेश यादव की तुलना में शिवपाल यादव के पास ज्यादा राजनीतिक अनुभव है और आम जनता में उनकी पकड़ भी ज्यादा है ऐसे में अखिलेश यादव को इससे घाटा होने वाला है। ऐसे में कुछ गंभीर सवाल उठते हैं कि क्या ये गुट महागठबंधन में शामिल होगा ? और अगर होता है तो सपा के खातें में कितनी सीट आएगी?
दूसरा कारण, मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक बसपा सुप्रीमों मायावती कुछ दिनों से सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव से अनदेखा कर रही हैं और अखिलेश के साथ मुलाकात भी बंद कर दिया है। इसके अलावा उन्होंने बीजेपी के खिलाफ बोलना भी बंद कर दिया है। उन्होंने राफेल मुद्दे पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और मध्य प्रदेश में बीजेपी के खिलाफ कांग्रेस के साथ गठबंधन करने से भी मना कर दिया है। सूत्रों की मानें बीजेपी मायावती के साथ खेल खेल रही है। मायावती ने जो घोटाले किये हैं उसपर सीबीआई की कार्रवाई तेज हो गयी तो मायावती के लिए नयी मुश्किल खड़ी हो जायेंगी। ऐसे में हो सकता है वो महागठबंधन का हिस्सा नहीं बनना चाहेंगी।
तीसरा, सपा और बसपा किसी भी सीट पर कांग्रेस के साथ नहीं जाना चाहते हैं। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की स्थिति काफी खराब है। 2017 के विधानसभा से सीख लेते हुए सपा ने कांग्रेस से दूरी बनाई हुई है। ऐसे में कांग्रेस के साथ गठबंधन में जानें से भी सपा और बसपा को कोई फायदा नहीं होगा। मीडिया रिपोर्ट्स के मुतबिक यदि प्रदेश में कांग्रेस गठबंधन का हिस्सा नहीं होगी तो भी सपा-बसपा उसके लिए दो सीटें छोड़ेंगी। लोकसभा चुनाव 2019 के लिए सीट बंटवारे के लिए दोनों पार्टियों ने तय किया है कि रायबरेली और अमेठी सीट पर अपना प्रत्याशी नहीं उतारेंगी।
चौथा, सपा और बसपा में में नेतृत्व को लेकर एकमत राय नहीं बन पायी है और साथ ही दोनों के मतदाता आधार में तनाव का होना भी दोनों पार्टियों के बीच की दूरी को खत्म नहीं होने देगा। मायावती का मतदाता आधार दलित हैं जबकि अखिलेश यादव के मतदाता आधार यादव हैं। यादव और दलित हमेशा से ही एक दूसरे के खिलाफ रहे हैं। दिखावे के लिए सपा और बसपा महागठबंधन के लिए हाथ मिला भी लें लेकिन पारंपरिक रूप चला आ रहा ये तनाव दोनों दलों के बीच बना रहेगा। गौरतलब है कि, उत्तर प्रदेश के गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा सीटों के उप-चुनाव पर समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन की जीत हुई थी। इस जीत ने लंबे समय बाद सपा और बसपा में थोड़ी उम्मीद की लहर पैदा की थी लेकिन उत्तर प्रदेश में राज्यसभा चुनाव में मिली हार से इस गठबंधन में भी दरार दिखने लगी। हालांकि, फिर भी मायावती ने अपने बयान से इसपर पर्दा डालने की खूब कोशिश की लेकिन 2019 के आम चुनावों को लेकर पार्टी के गठबंधन में दरार साफ़ दिखने लगी है।
आखिर में योगी आदित्यनाथ की हिंदुत्व छवि ने प्रदेश में सभी हिंदुओं को एकजुट कर दिया है साथ ही मोदी लहर का प्रभाव यूपी की जनता पर अभी भी कम नहीं हुआ है। जिस तरह से योगी सरकार यूपी में काम कर रही है यूपी की जनता भी संतुष्ट है। मोदी की लोकप्रियता और योगी के काम के साथ उनकी हिंदुत्व की वाली छवि का असर आगामी लोकसभा चुनाव में पड़ेगा। ऐसे में 2014 के आम चुनावों के जीत को साला 2019 में एनडीए जरुर दोहराने वाली है।