उपेंद्र कुशवाहा और तेजस्वी यादव के बीच मुलाकात ने राजनीतिक गलियारों में मचाई हल-चल

उपेंद्र कुशवाहा नीतीश कुमार

PC: Outlook Hindi

बिहार की राजनीति हमेशा से दिलचस्प रही है। इधर दिल्ली में नीतीश कुमार ने अमित शाह के साथ सीट शेयरिंग का फार्मूला खोज निकाला उधर उन्हीं के गठबंधन के एक सहयोगी उपेंद्र कुशवाहा पहुचं गए लालू यादव के छोटे बेटे तेजस्वी यादव से मिलने। दोनों नेताओं ने इस मुलाकात को इत्तेफाक बताया लेकिन दोनों के मिलने के समय को लेकर राजनीतिक गलियारों में कई सवाल उठ रहे हैं। ये मुलाकात अरवल के सर्किट हाउस में हुई है जिस वजह से इस मुलाक़ात को लेकर चर्चा और तेज  हो गयी है। दरअसल, भारतीय राजनीति हमेशा संकेतात्मक रही है, यहां अपनी मांग मनवाने के लिए बयान से अच्छा राजनीतिक संकेतों को माना जाता है।   

उपेंद्र कुशवाहा ने न केवल तेजस्वी यादव से मुलाकात की लेकिन इस मुलाक़ात से सवाल ये उठता है कि जब नीतीश कुमार दिल्ली में थे उसी दौरान ये मुलाकात क्यों हुई ? ऐसी खबरें हैं कि उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी को 2014 चुनाव की तुलना में इस बार कम सीटें मिल सकती हैं। भाजपा और जदयू के बीच सीटों के बंटवारे को लेकर बात बन गई है जिसमें भाजपा और जदयू दोनों 17 सीटों पर लड़ सकते हैं जबकि रामविलास पासवान और उपेंद्र कुशवाहा को 4 और 2 सीटों का ऑफर मिला है जिससे उपेंद्र कुशवाहा नाराज नजर आ रहे हैं। 

पिछले लोकसभा चुनाव में रालोसपा को 3 सीटें मिली थी तब जदयू एनडीए का हिस्सा नहीं था। उपेंद्र कुशवाहा ने खुलकर अपनी नाराजगी का इजहार नहीं किया है लेकिन संकेतों की राजनीति के माध्यम से वो अपनी मांग को पूरा करवाना चाहते हैं। कुशवाहा की पार्टी रालोसपा का कहना है कि उनकी पार्टी का लगातार विस्तार हुआ है और उपेंद्र कुशवाहा गरीब और पिछड़ों की पहचान बन चुके हैं इसलिए उन्हें सम्मानजनक सीटें मिलनी चाहिए।  तेजस्वी यादव से लगातार मुलाकात कर कुशवाहा यही संकेत देना चाह रहे हैं कि वो विपक्ष के महागठबंधन का हिस्सा बन सकते हैं। 

राजद का आंतरिक कलह और कांग्रेस के अस्तित्वहीन गठबंधन में शामिल होकर कुशवाहा को क्या फायदा होगा? जाहिर सी बात है जब जदयू और भाजपा दो मजबूत दल हैं तो राज्य में लोकसभा की सीटों पर ज्यादा से ज्यादा कब्जा करने के लिए उनका ज्यादा सीटों पर लड़ना लाजिमी है। मोदी सरकार में राज्य मंत्री के पद का आनंद उठा रहे कुशवाहा को ये पता है कि बिहार की राजनीति में और खासकर लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी की क्या पकड़ है और उन्हें कितना मिल रहा है ?इन सभी बिंदुओं पर उन्हें गंभीरता से विचार करना चाहिए। 

उपेंद्र कुशवाहा को इस बात से ज्यादा परेशानी है कि नीतीश कुमार को सीट शेयरिंग में इतनी सीटें क्यों मिल रही है ? यहां नीतीश कुमार और उपेंद्र कुशवाहा की राजनीतिक रस्साकस्सी साफ़ नजर आ रही है। नीतीश ने भाजपा के साथ मिलकर लालू यादव की 15 साल पुरानी सत्ता को उखाड़ फेंका था लेकिन तब कुशवाहा प्रदर्शन ख़ास नहीं रहा था। नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने लेकिन उपेंद्र कुशवाहा को मंत्री पद नहीं दिया गया जिस कारण कुछ वक्त के बाद उन्होंने पार्टी छोड़ दी। बता दें कि साल 2005 विधानसभा चुनाव के दौरान कुशवाहा जदयू के ही नेता थे लेकिन 2007 में उपेंद्र कुशवाहा ने जदयू छोड़कर एनसीपी का हाथ थाम लिया लेकिन वो इस पार्टी में भी ज्यादा दिनों तक नहीं टिक पाए। उन्होंने अपनी एक नयी पार्टी का गठन किया। नीतीश कुमार कुर्मी समुदाय से हैं तो कुशवाहा कोईरी। अब देखना ये होगा कि उपेंद्र कुशवाहा अपनी राजनीतिक सूझबूझ का कैसे उपयोग करते है। पॉलिटिकल कैलकुलेशन के माहिर कुशवाहा समझदारी भरा फैसला ही लें तो उन्हीं की पार्टी के लिए अच्छा होगा क्योंकि रामविलास पासवान सीटों के बंटवारे पर अपनी मुहर लगा चुके हैं और लोग उन्हें मौसम वैज्ञानिक भी कहते हैं। यदि वो राजद का हाथ थामते भी हैं तो उन्हें ज्यादा फायदा नहीं होने वाला है क्योंकि राजद पार्टी पहले ही राज्य में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है और कांग्रेस के वो पुरजोर विरोधी हैं। ऐसे में वो अगर राजद के साथ जाते भी हैं उन्हें कोई फायदा नहीं होने वाला है।

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