हमारे देश में दंगे फसाद होना कोई नयी बात अन्हीं है। आज़ादी के पहले और आज़ादी के बाद भी भारत बहुत से दंगों का गवाह रहा है लेकिन एक ऐसा दंगा भी है जहां रक्षक ही भक्षक बन जाए तो ऐसे दंगे को क्या कहेंगे? सच तो ये है की उसको दंगा कहना भी गलत ही होगा वास्तव में वो तो एक हत्याकांड था। एक सोची समझी साजिश थी। उस दुर्भाग्यपूर्ण घटना को लेकर काफी कुछ लिखा गया, न जाने कितनी जांच हुई है, न जाने कितने आरोप प्रत्यारोप लगे, सच्चे झूठे आंकड़े पेश किये गए. खैर मेरा काम उन सब की व्याख्या करना नहीं है। मैं तो केवल उतने ही बात करूंगी जो मैंने खुद देखा और जाना है। आज हम एक छोटे से शहर की किशोर लड़की की नज़र से उन दुर्भाग्यपूर्ण दिनों को देखेंगे। बड़े दुःख और शर्म से कहना पड़ रहा है कि दिल्ली के बाद जहां सबसे बड़े पैमाने पर दंगे हुए थे वह मेरा शहर कानपुर ही था। खैर, उस समय तो मुझे ये भी नहीं पता था। 1984 में संचार के इतने साधन नहीं थे की किसी घटना की खबर तुरंत हमारे घरों के तक पहुंचे। पहले जनता तक किसी खबर को जल्दी से पहुंचाने के दो ही तरीके होते थे, या तो कि कोई प्रत्यक्षदर्शी फ़ोन करके बताये या अखबार के दफ्तर जहां टेलीप्रिंटर खटखट करता ही रहता था। मेरे पिता लेखक और पत्रकार थे इसलिए ख़बरों तक हमारी पहुंच कुछ जल्दी ही हो जाती थी। एक और बात ये कि तब वहाट्सएप और फेसबुक नहीं होते थे फिर भी अफवाहों का बाजार गर्म होने में देर नहीं लगती थी।
31 अक्टूबर, 84 बुधवार का दिन था। हम 10 बजे स्कूल के लिए निकले ही थे। दैनिक जागरण के दफ्तर से हमारे घर फ़ोन आया कि प्रधानमंत्री निवास पर गोली चल गयी, कुछ देर में दूसरी खबर आई, शायद प्रधानमंत्री को भी लगी है। फिर खबर आई की प्रधानमंत्री पर हमला सिख आतंकवादियों ने किया है। दोपहर तक कुछ ख़ास पता नहीं चला। दूरदर्शन के शाम के बुलेटिन में ह्त्या की खबर आने के साथ ही अफवाहों पर विराम लग गया लेकिन ये तूफ़ान आने से पहले की शांति थी।
कुछ ही देर में ख़बरें आने लगीं कि शहर में दंगे हो रहे हैं। कोई कहता कि आज रात सिख घात लगा कर हमला करेंगे कोई कहता हमारे घर के पास के सिख बहुल इलाके गोविंदनगर में सिखों को मारा जा रहा है। हमारे पड़ोसी सेठी अंकल जो कि केशधारी सिख थे, अपने घर पर ताला लगा कर गायब हो गए। फिर फ़ोन आया पिताजी के एक नेता किस्म के परिचित का जिन्होंने कहा, “दादा ,इन सरदारों ने बड़ा आतंकवाद फैला रखा है आज इनको छोड़ना नहीं है।“ बेचारे पिताजी पूछते ही रह गए कि कानपूर में कहां आतंकवाद है और किसको तुम नहीं छोड़ोगे। हमारे परिचय के ज्यादा सिख नहीं थे जिनका घर में आना जाना हो। मैं ज्यादा चिंतित नहीं थी क्योंकि वो एक पड़ोस के सेठी अंकल ही तो थे वो भी समय रहते ही सुरक्षित जगह चले गए। मुझे नहीं पाता था की उस दिन शहर में कोई जगह ऐसी नहीं थी जहां सेठी अंकल सुरक्षित हों। जैसी भयानक घटनाओं की खबर मिल रही थी उनको आज मैं दोहराना भी नहीं चाहूंगी। दूसरी तरफ कॉलोनी पर हमले का भी डर था। क्या सच है और क्या झूठ समझना बड़ा मुश्किल था।
लगभग 12 घंटे से ज्यादा इसी डर और चिंता में बीते कि कहीं कोई हमारे घरों पर हमला ना कर दें। तब तक सबक सिखाने की घटनाएं इक्का दुक्का सामने आने लगी थीं। शाम से कॉलोनी में हलचल थी कि आज रात सिख आतंकवादी घात लगा कर कॉलोनी में हमला कर सकते हैं, जिसके पास जो हथियार हो ले कर तैयार रहे। मेरे पिताजी गांधीजी के सच्चे और कट्टर भक्त थे, घर में हथियार के नाम पर केवल दो फुट की एल्युमीनियम की पुरानी परदे टांगने वाली रॉड थी। कॉलोनी के पश्चिम की तरफ खटिकों और नटों बस्ती थी, उनके मुखिया घर आ कर आश्वासन दे गए, “पंडित जी घबड़ायौ ना, तुम्हरे घर तक पहुंचे से पहिले उनका हमार लास पार करैं का पड़ी“, लेकिन पिताजी अपनी गांधीवादी सोच के अनुरूप ही ना तो उनको अपने घर के बाहर रहने देने को तैयार हुए ना ही घर में कोई हथियार रखने को तैयार हुए। कोई भी समझ सकता है कि हमारा किशोर मन जो इतना परिपक्व था कि सब कुछ समझता था लेकिन पिताजी की तरह इतना भी परिपक्व नहीं था कि उस विषम परिस्थिति में भी संतुलन बनाये रखे ।
शायद इतना सदमा बहुत नहीं था। दो नवम्बर की दोपहर को वो हुआ जिसकी हमने हमने जीवन में कभी कल्पना नहीं की थी और ना ही कभी देखना चाहेंगे। ऐसा दृश्य जिसे यद् करके आज भी मन सिहर जाता है। हमारे घर से करीब 500 मीटर की दूरी पर एक बहुत बड़ी और मज़बूत कोठी थी। सुनते थे कोई पेट्रोल पंप के मालिक सिख थे जिनकी वो कोठी थी। पहली नवम्बर को इलाके का थानेदार उनको सचेत भी करने गया था। लेकिन जो लोग उत्तर प्रदेश से परिचित हैं वो जानते होंगे कि उस तरफ पेट्रोल पंप दबंगों का बिजनेस है। उनके पास कुछ हथियार भी थे। वो निश्चिन्त हो कर अपने मज़बूत घर में सुरक्षित बैठे थे। अचानक सुनने में आया किसी विधायक (शायद कानपूर देहात से कांग्रेस के विधायक और तत्कालीन मुख्यमंत्री एन डी तिवारी के मुंह लगे ) का बेटा राघवेंद्र प्रताप अपने कुछ लोगों को लेकर उस घर पर हमला करने आ रहा है। हो सकता है मैं नाम याद करने में गलती भी कर रही हूँ। हम भाई बहन झटपट छत पर चढ़ गए देखने के लिए। हमारे घर पर एक पुरानी जापानी दूरबीन भी थी। बारी बारी से उसका भरपूर उपयोग हम कर रहे थे। देखा लगभग पचास लोगों की भीड़ ने उस घर को घेर लिया था और शायद उनसे बाहर आने को कह रहे थे । उस घर के लोग छत पर आ गए और गोली चलाने लगे। गोलियां चलने से भीड़ पगला गयी और नीचे से पत्थर, गुम्मे और इक्का दुक्का गोलियां चलीं। वो लोग भी शायद भीड़ की तादाद और उन्माद देख कर डर गए और अंदर चले गए। प्रभावशाली व्यक्ति तो थे ही, उन्होंने इधर उधर पुलिस और नेताओं को फ़ोन लगाने की कोशिश भी की लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुयी। बाद में शायद भीड़ ने फ़ोन के तार भी काट दिए। अचानक भीड़ ने नया पैतरा सोचा। न जाने कहां से बांस और लकड़ी के लट्ठे लाने शुरू कर दिए। और मकान के चारो तरफ चिता जैसी चुननी शुरू करदी। कुछ ही देर लकड़ी और बांस धूधू करके जलने लगे। घर के अंदर के लोग घबरा गए। उसके बाद मैंने जो देखा वह अगर ना ही देखा होता तो अच्छा होता। एक एक कर उस घर के लोग जलते हुए घर से बाहर कूदने लगे।बाहर जलती हुयी लकडियां और उन्मादी भीड़ उनका इंतज़ार कर रही थी। सुनने में आया उस दिन उस घर का कोई भी बाशिंदा ज़िंदा नहीं बचा था। अब समझ में आता है कि आतंकवादी हमले की अफवाह भी जानबूझ कर फैलाई गयी थी जिस से लोग अपने घरों में ही बंद रहें। इसी वजह से जब इस कांड की जांच हुई तो जनता में से शायद ही कोई गवाह मिला था।
मैं बहुत दिनों तक सोचती रहती थी कि वो कौन होंगे जिनके साथ ऐसा बुरा हुआ, उनके परिवार जन क्या सोचते और अनुभव करते होंगे। लेकिन उस से भी बड़ा सवाल जो मेरी नींद उड़ा देता था वो अभी कुछ दिन तक अनुत्तरित ही था। मैं सोचती थी कि उस भीड़ में शामिल लोग कौन थे, उनकी उस परिवार से क्या दुश्मनी थी, उनको ऐसा करके क्या मिला, क्या उनका भी मेरे जैसा ही परिवार होगा? फिर समझ में आया भीड़ का मनोविज्ञान अलग होता है लेकिन तब एक उस से भी बड़ा सवाल उठता है कि उस भीड़ को उन्माद तक पहुंचाने वाले कौन थे और उन्हें क्या करना है उसे बताने वाला कौन था?
अब मुझे लगता है कि शायद टुकड़े-टुकड़े गैंग उस समय भी सक्रिय था। जिस तरह से सिख आतंकवाद के माध्यम से हिंदुओं और सिखों के बीच एक न भरने वाली खाई खोदने की कोशिश हुई थी उसी का अगला कदम ये प्रायोजित घटनाक्रम था जिसे हिन्दू सिख दंगों का नाम देने की कोशिश थी। इसको दंगा तो कहना भी गलत होगा ये तो एक सुनियोजित नृशंस हत्याकांड था जिसके कर्ता – धर्ता किसी भी तरह से क्षमा के पात्र नहीं हैं।