एससी-एसटी एक्ट में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद देश में दलित संगठनों ने केंद्र सरकार का खूब विरोध किया था जिसके बाद केंद्र सरकार को अध्यादेश लाना पड़ा था। केंद्र के इस फैसले से सवर्ण समाज नाराज बताये जा रहे थे इस बीच इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले से सवर्ण समज में खुशी की लहर दौड़ गयी है। दरअसल, इलाहाबाद हाई कोर्ट ने साफ़ कर दिया है कि अब एससी-एसटी एक्ट की धारा में मामला तभी दर्ज होगा जब मजबूत आधार होगा।
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अपने फैसले में उत्तर प्रदेश के डीजीपी को निर्देश देते हुए कहा है कि यूपी के थानों में किसी भी मामले में एससी-एसटी एक्ट की धारा तभी लगाई जाए जब ठोस सबूत हो अन्यथा मामले को सामान्य व संबंधित अपराध की धाराओं में ही दर्ज किया जाए। इसका मतलब साफ़ है कि अब इस धारा का इस्तेमाल व्यक्तिगत दुश्मनी निकालने के लिए दुरूपयोग नहीं कर सकेंगे। पुलिस मामला तभी दर्ज करेगी जब मामले में आरोप लगाने वाले व्यक्ति के पास ठोस सबूत होंगे। हाई कोर्ट ने फैसला तब लिया जब उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर के रहने वाले नीरज कुमार मिश्रा के खिलाफ कुछ दिनों पहले चरथावल थाने में एससी-एसटी एक्ट की धारा में मुकदमा दर्ज किया गया था लेकिन जांच में ये सामने आया कि ये मामला दलित उत्पीड़न का था ही नहीं। नीरज मिश्रा ने इस मामले को हाई कोर्ट में चैलेंज दिया था जिसके बाद कोर्ट ने मामले की सुनवाई की। इस मामले में याचिकाकर्ता ने जो सबूत और दलील पेश किये उससे सच सामने आ गया। इसके बाद भविष्य में फिर से कोई ऐसी घटना न हो कोर्ट ने एससी-एसटी एक्ट को लेकर निर्देश जारी किया।
वैसे ये कोई पहला मामला नहीं था इससे पहले भी कई ऐसे मामले सामने आये हैं जिससे साबित होता है कि एक्ट का दुरुपयोग बड़े पैमाने पर होता रहा है। उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में एक परिवार को जानबुझकर एससी/एसटी एक्ट के करीब दर्जन भर मामलों में फंसाया गया था जबकि सारा विवाद जमीन से जुड़ा हुआ था। यही नहीं मथुरा के भैरई गांव के एक ब्राह्मण परिवार को तो एससी/एसटी एक्ट का दोहरा दंश झेलना पड़ा था। गांव की एससी महिला ने पहले पति की हत्या में इस परिवार के युवक को जेल भिजवाया और मुआवजे में साढ़े आठ लाख मिलने के बाद लालची महिला ने अपने बेटे की हत्या करवाई और ब्राह्मण परिवार के 6 लोगों को फंसा दिया। जब इस मामले की जांच हुई तब जाकर मामले की सच्चाई सामने आ सकी लेकिन उस समय में इस परिवार पर जो बीता वो उनके लिए किसी भयावह सपने से कम नहीं है। सिर्फ उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि देश के कई हिस्सों में ऐसे कई मामले सामने आये हैं जो साबित करते हैं कि निजी हित के लिए एससी-एसटी एक्ट का दुरूपयोग किया जा रहा है।
मध्यप्रदेश हाईकोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष आदर्श मुनि त्रिवेदी ने एक सर्वेक्षण के आधार पर दावा किया था कि 2015-2016 में जिन लोगों के खिलाफ अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) कानून के तहत मामले दर्ज किए गए उनमें से 75 प्रतिशत बरी हो गये थे जो साबित करते हैं कि एससी/एसटी कानून का दुरुपयोग किया गया था।
यही नहीं एसी-एसटी आयोग ने भी माना था कि आयोग में आने वाली फरियादों में 10 फीसद से अधिक मामले झूठे होते हैं। सौ आरोपी भले ही छूट जाए, परंतु एक निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए, ये न्यायपालिका का एक स्थापित सिद्धांत है। इस सिद्धांत का तात्पर्य यही है कि भूलवश भी किसी निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए लेकिन जिस तरह से एसी-एसटी एक्ट का गलत इस्तेमाल किया जा रहा है एक छोड़िये कई निर्दोष उस अपराध की सजा भुगत रहे हैं जो उन्होंने किया ही नहीं है। इससे उस व्यक्ति से जुड़ा परिवार भी प्रभावित होता है और इससे न्यायपालिका और सरकार की कार्यप्रणाली से आम जनता का भरोसा डगमगा सकता है।
ऐसे में इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला सराहनीय है इससे भविष्य में कोई निर्दोष किसी के गलत मंसूबों का शिकार नहीं हो सकेगा साथ ही अपराध करने वाले को उसके किये की सजा मिलेगी।