देश में नए बने राज्य तेलंगाना में सात दिसंबर को चुनाव होने हैं। इसी बीच सत्ताधारी पार्टी तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) को हराने के लिए राज्य में विपक्षी दलों में से 4 ने गठबंधन किया है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, तेलंगाना जन समिति, तेलूगू देशम पार्टी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने यहां महाकुटमी नाम से गठबंधन बनाया है। अब राज्य के विधानसभा चुनावों में महाकुटमी, बीजेपी और टीआरएस के बीच त्रिकोणीय मुकाबला हो गया है। इस समय यह महाकुटमी गठबंधन सिर्फ अवसरवाद की उपज ही कहा जा सकता है। वह इसलिए क्योंकि नायडू कांग्रेस पार्टी के सबसे बड़े आलोचकों में से एक थे और गठबंधन के नाम पर रातों रात उनका ह्दय परिवर्तन हो जाता है। वहीं टीडीपी और टीआरएस दोनों पहले आंध्रप्रदेश और तेलंगाना को अलग करने के आरोप कांग्रेस पर लगा रहे थे लेकिन अब टीडीपी ने कांग्रेस के साथ चुनाव साथ लड़ने का फैसला कर लिया।
भले ही तेलंगाना की वर्तमान हालात इस गठबंधन को आगे बढ़ाने में सहायक होते लेकिन महाकुटमी गठबंधन की राजनैतिक राय से वहां की जनता कंफ्यूज ही ज्यादा नजर आ रही है। यह राजनीती का एक सामान्य नियम है कि, जो क्षेत्रिय पार्टी किसी एक बड़े नेता पर टिकी होती है, वह किसी एक राज्य में ही अपना प्रभाव छोड़ पाती है। इस सिद्दांत के अनुसार एक बड़े नेता की पार्टी को किसी दूसरे राज्य में अपना प्रभाव बनाने में दिक्कतें आती हैं। उदाहरण के तौर पर हम आम आदमी पार्टी को भी ले सकते हैं। आम आदमी पार्टी भी एक बड़े नेता अरविंद केजरीवाल पर ही टिकी है, जो कि दिल्ली में तो चल पाई लेकिन पंजाब में ढेर हो गई। इसी तरह बीएसपी की बात करें, तो दलित वोटबैंक देश के सभी हिस्सों में है लेकिन उत्तर प्रदेश के बाहर बाकी जगह बीएसपी कुछ खास नहीं कर पाई है।
यहां यह भी दिलचस्प है कि, जब भी किसी राज्य के टुकड़े होते हैं, तो क्षेत्रीय दल पहले या दूसरे राज्य में उभर पाते हैं और किसी एक में गायब हो जाते हैं। बिहार और झारखंड के अलग होने से पहले, आरजेडी और जेडीयू लगभग पूरे संयुक्त बिहार में बड़ी पार्टियां थीं। विभाजन के बाद इन पार्टियों की तुलना में जेएमएम और जेपीपी जैसे स्थानीय दलों के पास अधिक वोटबैंक था। उत्तर प्रदेश से उत्तराखंड को अलग करने के बाद बसपा और एसपी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था
इस परिस्थिति में जनभावनाओं से जुड़े स्थानीय मुद्दे भी प्रभावी रहते हैं। ये मुद्दे शहरों व इसके आस-पास के क्षेत्रों में प्रभावी रहते हैं। हैदराबाद की बात करें यहां 15 सीटें (लगभग आधी) एआईएमआईएम की हैं और उन सीटों को बनाए रखने का इस पार्टी के पास अच्छा मौका भी है।
बीजेपी की बात करें, तो पांपरिक रूप से शहरी क्षेत्र में इस पार्टी का गढ़ रहा है इसलिए यह पार्टी कुछ सीटों को आसानी से जीत सकती है। सवाल तो यह बना हुआ है कि, तेलंगाना में चुनावों को क्या कहीं महाकुटमी के समर्थक प्रभावित कर भी पाएंगे या नहीं? या उनके लिए इस चुनावों में कुछ भी नहीं रह गया है।
यदि 2014 के चुनावों में अविभाजित आंध्रप्रदेश के समय ऐसा गठबंधन बन गया होता, तो उस समय पार्टियों का वोट शेयर क्या होता, आइए इस पर एक नजर डालते हैं। ऐसे में आईएनसी+टीडीपी को 40 पर्सेंट वोट मिलता है और टीआरएस को 34 पर्सेंट वोट मिल सकेगा। इस 40 पर्सेंट में से टीडीपी में 15 पर्सेंट और आईएनसी में 25 पर्सेंट बढ़ोत्तरी हुई। अभी आंध्रप्रदेश में सत्ताधारी पार्टी है। अब इस वोट शेयर का आधा करें तो हम देखेंगे कि, आईएनसी+टीडीपी अब टीआरएस से भी पीछे है। तेलंगाना चुनावों में सबसे बढ़िया गेम बीजेपी खेलती दिख रही है। वह पूरे घटनाक्रम पर नजर बनाकर अपनी चाल का इंतजार कर रही है। क्योंकि बीजेपी केसीआर की आसान जीत के बारे में निश्चिंत है। आंध्र मतदाताओं के बीच एंटी बीजेपी की भावना भी पूरी तरह नकली साबित हुई है। यह एक दुष्प्रचार से ज्यादा और कुछ नहीं लग रहा। इन सब समीकरणों से तो यह निश्चित है कि, महाकुटमी तेलंगाना में विफलता की ओर अग्रसर है।