कांग्रेस व लुटियंस मीडिया के तानों से तंग आकर जस्टिस ए के सीकरी ने CSAT में जाने से किया इंकार

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PC: Jagran

जस्टिस ए के सीकरी ने काफी विवादों के बाद लंदन स्थित राष्ट्रमंडल सचिवालय मध्यस्थता न्यायाधिकरण (सीएसएटी) में अध्यक्ष/सदस्य के तौर काम करने को लेकर दी गई अपनी सहमती वापस ले ली है। ये प्रस्ताव केंद्र सरकार ने साल 2018 में दिसंबर के माह में दिया था तब उन्होंने इसपर अपनी मौखिक स्वीकृती दी थी। ये फैसला उन्होंने उन आरोपों की वजह से लिया है जिसमें आलोक वर्मा को सीबीआई निदेशक पद से हटाए जाने में उनकी भागीदारी को सीएसएटी में उनके काम से जोड़ा गया। इस तरह के आक्षेप के बाद उन्होंने विवादों से दूर रहने के लिए ये फैसला लिया। इस फैसले से कांग्रेस और लेफ्ट लिबरल गैंग को अपने मकसद में जरुर कामयाबी मिल गयी है जो न्यायपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप करने से पीछे नहीं हटते। इसके साथ ही वो न्यायपालिका में डर को बैठाने में भी सफल हुए हैं। 

बता दें कि कुछ दिनों पहले ही प्रधानमंत्री मोदी की अगुवाई वाली और कांग्रेस सांसद मल्लिकार्जुन खड़गे व सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस एके सीकरी की सदस्यता वाली हाई-पावर्ड कमिटी ने केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) जांच रिपोर्ट के आधार पर आलोक वर्मा को सीबीआई डायरेक्टर पद से हटाया था। कमिटी ने 2:1 से ये निर्णय लिया था। हालांकि, आलोक वर्मा को महानिदेशक, अग्निशमन सेवा, नागरिक सुरक्षा और होमगार्ड के रूप में तैनात किया गया है। इसके बाद विपक्षी दलों खासकर कांग्रेस और लुटियंस मीडिया ने जस्टिस सीकरी पर पीएम मोदी के पक्ष में फैसला लेने को सीएसटी में उनके काम से जोड़कर पेश किया जाने लगा जिससे जस्टिस सीकरी आहत थे। वास्तव में जस्टिस एके सीकरी ने सीवीसी की रिपोर्ट और तथ्यों के आधार पर आलोक वर्मा को सीबीआई पद से हटाया था। दरअसल, रिपोर्ट में कुछ ऐसे गंभीर आरोप आलोक वर्मा पर लगाये गये थे जिनकी जांच जरुरी है।

दरअसल, केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) की रिपोर्ट में तथ्यों के आधार पर लगे गंभीर आरोपों में आलोक वर्मा दोषी पाए गये थे। इन आरोपों पर आलोक वर्मा को अपना पक्ष रखने का मौका भी दिया गया था जिसके लिए उन्हें सीवीसी की रिपोर्ट की एक प्रति भी दी गयी थी लेकिन वो इसपर कोई सफाई नहीं दे पाए। इसके बाद सीवीसी की रिपोर्ट के आधार पर आलोक वर्मा को सीबीआई के निदेशक जैसे महत्वपूर्ण पद से हटाये जाने का फैसला लिया गया। प्रधानमंत्री और जस्टिस सीकरी ने वर्मा को हटाना ही उचित समझा क्योंकि जब तक वो निर्दोष करार नहीं होते तब तक उन्हें सीबीआई के पद पर नहीं होना चाहिए। वहीं कांग्रेस सांसद मल्लिकार्जुन खड़गे इसके वर्मा को हटाए जाने के पक्ष में नहीं थे जिन्होंने कभी आलोक वर्मा की नियुक्ति का विरोध किया था। आज आरोपों के समाने होने के बाद भी वर्मा के पक्ष में नजर आये ताकि मोदी सरकार को विपक्ष घेरने में कामयाब हो सके और जनता के सामने ये दिखा सकें कि केंद्र सरकार न्यायपालिका के कार्यों पर दबाव बनाती है।

आलोक वर्मा के हटाए जाने के बाद विपक्ष ने जस्टिस सीकरी पर ही हमले शुरू कर दिए। लुटियंस मीडिया ने भी इसे न्यायपालिका से छेड़छाड़ करार दिया और केंद्र की मोदी सरकार पर एक जस्टिस पर दबाव बनाने की बात कही। एक ईमानदार जस्टिस पर इस तरह के आरोपों से खुद सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस मार्कंडेय काटजू इतने आहत हुए कि उन्हें सफाई देनी पड़ी कि जिस तरह की अफवाहें फैलाई जा रही हैं वास्तव में उनमें कोई सच्चाई नहीं है। उन्होंने एक फेसबुक पोस्ट में लिखा, “जब कमेटी ने आलोक वर्मा को हटा दिया तो मेरे रिश्तेदारों और दोस्तों के फोन मेरे पास आने लगे उनका पूछना था कि क्या सीकरी द्वारा आलोक वर्मा को सीबीआई के निदेशक पद से हटाए जाने का फैसला सही था? इसके बाद मैंने जस्टिस सीकरी से फोन पर बातचीत की। उन्होंने मुझे वो कारण बताये कि आखिर क्यों आलोक वर्मा को सीबीआई के पद से हटाया गया।” इसके बाद उन्होंने अपने पोस्ट में उन कारणों का भी उल्लेख किया है जो जस्टिस एके सीकरी ने उन्हें बताये थे। उन्होंने ये भी लिखा कि ”मैं जस्टिस सीकरी को बहुत अच्छी तरह से जानता हूं। जब मैं दिल्ली हाई कोर्ट का चीफ जस्टिस था तब वो मेरे साथ जज थे। अगर उनके पास कोई ठोस आधार नहीं होता तो उन्होंने आलोक वर्मा को हटाने का फैसला नहीं लिया होता।” इसके अलावा पूर्व जस्टिस ने ये भी कहा कि “न ही आलोक वर्मा को उनके पद से हटाया गया है और न ही उन्हे निलंबित किया गया है बल्कि उन्हें उसी रैंक के किसी दूसरे पद पर स्थानांतरित कर दिया गया। जस्टिस मार्कंडेय काटजू के सफाई के देने के बावजूद जस्टिस सीकरी के फैसले पर विपक्ष और लुटियंस मीडिया ने आरोप लगाये कि उन्होंने सीएसएटी के पद के लिए ही ऐसा किया है।

द प्रिंट के शेखर गुप्ता ने तो ये तक लिखा कि जस्टिस सीकरी को सरकार के पक्ष में फैसला लेने पर ये पद मिला है। उन्होंने लिखा कि, “आलोक वर्मा को हटाने वाले पैनल में रहे जस्टिस सीकरी कॉमलवेल्थ ट्रिब्यूनल में नियुक्त होंगे।”

अब सीकरी की सहमती वापस लेने पर द प्रिंट में खुशी की लहर है।

इसके बाद सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने भी कहा कि ‘झूठे, अप्रमाणित और बेहद हल्के’ आरोपों को आधार पर वर्मा को हटाया गया है। यही नहीं उन्होंने तो ये भी कहा कि आलोक वर्मा को जल्दबाजी को दूसरी बार हटाए जाने के पीछे  सुप्रीम कोर्ट की भूमिका कई सवाल खड़े करती है।”

इन आरोपों से परेशान होकर जस्टिस एके सीकरी ने अपने राष्ट्रमंडल सचिवालय मध्यस्थता न्यायाधिकरण (सीएसएटी) से अपनी सहमती वापस ले ली। चीफ जस्टिस के बाद देश के दूसरे सबसे वरिष्ठ जस्टिस के एक करीबी सूत्र से मिली जानकारी के अनुसार जस्टिस ने रविवार शाम को विधि मंत्रालय को लिखकर सहमति वापस ले ली। सूत्रों ने कहा, “क्योंकि ये सहमति दिसंबर 2018 के पहले हफ्ते में ली गई थी, इसका सीबीआई मामले से कोई संबंध नहीं था जिसके लिये वो जनवरी 2019 में चीफ जस्टिस की तरफ से नामित किये गए।” उन्होंने ये भी कहा कि “दोनों मामलों को जोड़ते हुए “एक पूरी तरह से अन्यायपूर्ण विवाद” खड़ा किया गया।”

सूत्रों ने अनुसार, “असल तथ्य ये है कि दिसंबर 2018 के पहले हफ्ते में सीएसएटी में पद के लिये जस्टिस की मौखिक स्वीकृति ली गई थी।” ये शर्मनाक है कि सुप्रीम कोर्ट के एक जस्टिस के फैसले पर इस तरह के आरोप मढ़े गए जबकि उन्होंने स्वतंत्र रूप से आरोपों पर गंभीरता से विचार करने के बाद वर्मा को हटाने का फैसला लिया था। सूत्रों ने ये भी बताया कि “सीएसटी कोई नियमित आधार पर जिम्मेदारी नहीं है। इसके लिये कोई मासिक पारिश्रमिक भी नहीं है। इस पद पर रहते हुए प्रतिवर्ष दो से तीन सुनवाई के लिए वहां जाना होता और लंदन या कहीं और रहने का सवाल ही नहीं था।”

सूत्रों से मिली जानकारी पर गौर करें तो कांग्रेस और लुटियंस मीडिया द्वारा लगाये गये आरोप न सिर्फ निराधार साबित होते हैं बल्कि इससे न्यायपालिका के कार्यों में उसके हस्तक्षेप का सच एक बार फिर से सामने आ गया है। कांग्रेस ने एक बार फिर से न्यायपालिका में डर की व लकीर खींचने में कामयाब रही जिसके लिए वो जानी जाती है। अगर फैसला पक्ष में न हो तो बेमतलब का विवाद खड़ा करो और मुख्यधारा की मीडिया हो या न्यायपालिका उन्हें कटघरे में खड़ा कर दो।

पिछले साल कांग्रेस पूर्व चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा पर भी कुछ इसी तरह के आरोप लगाकर उनके खिलाफ महाभियोग का प्रस्ताव लेकर आई थी। हालांकि, उसे अपने इस मकसद में कामयाबी नहीं मिली थी। उस समय भी कांग्रेस पार्टी और लुटियंस मीडिया ने ‘लोकतंत्र खतरे में है’ का झूठा राग अलापा था। जबकि सच ये है कि लोकतंत्र खतरे में सिर्फ उसकी इस निम्न स्तर की हरकतों की वजह से है जो बार-बार न्यायपालिका के फैसलों पर संदेह उत्पन्न करने का प्रयास करती है। ऐसा करके वो आम जनता को भ्रमित करने का भी प्रयास कर रही है। ये शर्मनाक है कि कांग्रेस की गंदी राजनीति में कुछ मीडिया हाउस भी शामिल हैं।

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