2019 के महत्वपूर्ण लोकसभा चुनावों से ठीक पहले सोमवार को हुई मोदी कैबिनेट की बैठक में, मोदी सरकार ने सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण को मंजूरी देने का बड़ा फैसला लिया था। इसका मतलब है कि, गैर-दलित, गैर-अन्य पिछड़ा वर्ग और गैर-आदिवासी और उच्च जातियां भी अब आरक्षण के लिए पात्र होंगीं। मंगलवार को भाजपा की ओर से रखे गए इस बिल पर लोकसभा में करीब पांच घंटे तक जोरदार बहस हुई। उसके बाद सदन में 323 सांसदों ने बिल के समर्थन में मतदान किया जबकि 3 वोट विपक्ष में डाले गए और इस तरह विधेयक को लोकसभा की मंजूरी मिल गई। सामान्य वर्ग को यह लाभ पहले उपलब्ध नहीं था। मुस्लिम, ईसाई और दूसरे धर्म के लोग भी इस नए कोटा के लाभार्थी होंगे।
यह कदम हाल ही में संपन्न हुए राज्य विधानसभा चुनावों में तीन हिंदी बेल्ट के राज्यों- मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भाजपा की हार के बाद आया है। इन राज्यों में भाजपा की हार के पीछे का एक कारण एससी/एसटी अधिनियम पर उसका रुख रहा जिसने पार्टी के पारंपरिक उच्च जाति के वोट बैंक को नाराज कर दिया। इन असंतुष्ट उच्च जाति के मतदाताओं ने या तो अन्य दलों को वोट दिया या अधिकांश ने NOTA दबाया, जिसके कारण हिंदी के इन तीन राज्यों में भाजपा की हार हुई।
बता दें कि, मध्य प्रदेश में, कुल 11 सीटें ऐसी थीं जहां भाजपा की हार का अंतर NOTA के वोट शेयर से भी कम था। मध्य प्रदेश में कुल मतदाताओं का लगभग करीब 1.5 प्रतिशत वोट नोटा के लिए गया। वहीं राजस्थान विधानसभा चुनावों में, 15 विधानसभा सीटों पर नोटा को मिले वोट विजयी उम्मीद्वारों के जीत के अंतर से अधिक थे। यह तर्क देना व्यावहारिक नहीं होगा कि, सभी NOTA वोट भाजपा के विपक्ष में गए होंगे। हालांकि, यह स्पष्ट है कि, मतदान में विकल्प के रूप में NOTA का समर्थन करने वालों का एक बड़ा हिस्सा उन लोगों का था, जो भाजपा से नाराज थे लेकिन वे कांग्रेस को भी विकल्प नहीं मानते थे।
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राजनीतिक दलों के लिए उच्च जाति के मतदाता चुनावी रूप से बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। उच्च जातियों की राजनीति में बड़ी भूमिका रही है। हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार, उच्च जातियों का राजस्थान और मध्य प्रदेश से चुने जाने वाले विधायकों में एक असमान अनुपात चल रहा है। राजस्थान और मध्य प्रदेश की नव निर्वाचित विधानसभा में उच्च जाति के विधायकों की हिस्सेदारी क्रमशः 27% और 37% है। यहां राजपूतों ने अपने राजनीतिक प्रभुत्व को बढ़ाया है जो कि उच्च जातियों में आते हैं। इस तरह से एक मजबूत व राजनीतिक रूप से प्रभावी वर्ग की नाराजगी को नजरअंदाज करना किसी भी राजनीतिक दल के लिए आत्मघाती कदम है। राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, भाजपा इस समूह की चिंताओं को दूर करने में विफल रही, और उसने हिंदी बेल्ट के तीन राज्यों में चुनावी हार के साथ इसकी कीमत भी चुकाई।
सामान्य वर्ग के मतदाताओं के गुस्से के पीछे के मुख्य कारण एससी/एसटी एक्ट के लिए बीजेपी का रुख, और पदोन्नति में आरक्षण के लिए भाजपा का समर्थन था। इकोनॉमिक टाइम्स के हवाले से बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता ने कहा था, “मध्य प्रदेश के ग्वालियर में शिवराज सिंह चौहान की उस टिप्पणी ने सामान्य वर्ग के गुस्से को और भी बढ़ा दिया था जिसमें उन्होंने कहा था कि, कोई भी आरक्षण समाप्त नहीं कर सकता।” वहीं राजस्थान में राजपूत समुदाय के गुस्से का कारण फिल्म पद्मावत और आनंदपाल एनकाउंटर का मामला था। इन दोनों मुद्दों से भाजपा वोटर भाजपा से कट गए थे।…हालाँकि, अब सामान्य वर्ग की जातियों को आरक्षण देने के इस ऐतिहासिक कदम से भाजपा को नाराज उच्च जाति के मतदाताओं का विश्वास जीतने में मदद मिलेगी। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि, 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले विशेष रूप से हिंदी बेल्ट के राज्यों में भारतीय जनता पार्टी ने अपने पारंपरिक सामान्य वर्ग की जातियों के मतदाताओं को अपने पक्ष में कर लेगी। गौरतलब है कि, भाजपा ने 2014 के आम चुनावों में हिंदी बेल्ट के इन तीन राज्यों की 65 लोकसभा सीटों में से 62 पर जीत दर्ज की थी। जबकि इस बार सामान्य वर्ग की जातियों के मतदाताओं के नाराज तबके ने आगामी 2019 के आम चुनावों से पहले ही विधानसभा चुनावों में छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्य प्रदेश में भाजपा को बुरी तरह से नुकसान पहुँचाया है। अब सामान्य वर्ग से संबंधित आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण देने के कदम से निश्चित रूप से सामान्य वर्ग की जातियों के मतदाता एक बार फिर से भाजपा के पाले में लौट आएंगे। राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश ही नहीं, भाजपा ने अन्य सभी हिंदी राज्यों में भी अपना प्रभाव तेजी से बढ़ाया है। भाजपा ने विभिन्न राज्यों में कई आरक्षण आंदोलनों को समर्थन दिया है।
इस नए आरक्षण कोटा के तहत ठाकुरों, कापू, मराठों, भूमिहारों, जाटों, पटेलों, ब्राह्मणों, और बनियों जैसी उच्च जातियों को आर्थिक और वित्तीय आधार पर आरक्षण का लाभ मिलेगा। ये जातियां बहुत लंबे समय से आरक्षण की मांग कर रही थीं और सरकारी क्षेत्र में अवसरों की कमी के कारण बेचैन थीं। उन्होंने अपनी दुर्दशा के लिए “जाति आधारित आरक्षण” को दोषी ठहराया था। इसलिए पीएम मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के इस नवीनतम कदम से भाजपा ने सिर्फ उच्च जातियों में ही नहीं बल्कि जाटों, पटेलों और मराठों के बड़े हिस्से के बीच भी सफलतापूर्वक अपनी पैंठ बना ली है। हरियाणा (जाटों), गुजरात (पाटीदार) और महाराष्ट्र (मराठों) में भाजपा सरकारों ने इन प्रमुख जातियों के गुस्से का सामना किया है, जो अपने समुदायों के लिए आरक्षण की मांग कर रही हैं और भाजपा के नेतृत्व में एनडीए के सत्ता में आने के बाद से ही उन्होंने कई हिंसक आंदोलन भी किए हैं। वहीं विरोधी दल 2019 के लोकसभा चुनावों के लिए इन समुदायों के गुस्से को और बढ़ा रहे थे, लेकिन सिर्फ एक चाल से पीएम मोदी ने विपक्ष की पूरी चुनावी रणनीति को बिगाड़ दिया और इन प्रमुख जातियों का समर्थन प्राप्त कर लिया। मोदी सरकार को सवर्ण और उच्च जाति का विरोधी दिखाने का विपक्ष का षड़यत्र इस कदम से विफल हो गया है।
Huge setback for Mishra/Jha types mediapidis involved in the project to foment so called ‘Savarna’ hatred against Modi by projecting him as ‘anti- upper caste’. Tasted some success in MP by stoking UC anger. Plan was to break OBC-Non Jatav SC social coalition in UP https://t.co/D9ezcY2p29
— Prasanna Viswanathan (@prasannavishy) January 7, 2019
बता दें कि, इस नए कोटा का SC, ST, और OBC को मिलने वाले आरक्षण पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से पिछड़े ’कमजोर वर्ग को 10 प्रतिशत आरक्षण देने का मोदी सरकार का निर्णय देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्देशित 50 प्रतिशत कोटा कैप के अंतर्गत नहीं आता है। इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार, एससी वर्ग, जो भारत में पूरी आबादी का 20 प्रतिशत हिस्सा है, को सरकारी क्षेत्र में 15 प्रतिशत आरक्षण मिलता है। अनुसूचित जनजाति, जिसमें 9 प्रतिशत आबादी शामिल है, को 7.5 प्रतिशत आरक्षण मिलता है जबकि ओबीसी से संबंधित समुदायों को 27 प्रतिशत आरक्षण प्रदान किया गया है। इन सभी वर्गों को मिलाकर, लगभग 70 प्रतिशत जनसंख्या कवर होती है जिसको अभी सरकारी क्षेत्र में 49.5 प्रतिशत आरक्षण मिल रहा है। बाकी बची 30 प्रतिशत यानी 39 करोड़ की आबादी सामान्य वर्ग से संबंधित हैं जिन्हें मोदी सरकार द्वारा घोषित नए कोटा श्रेणी का लाभ मिलेगा।
इस प्रकार अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों को नाराज करे बिना ही मोदी सरकार सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को आरक्षण देने में कामयाब रही है। विपक्षी राजनीतिक दलों ने शुरुआत में इस कदम को ‘राजनीतिक नौटंकी’ करार दिया था। लेकिन आम चुनावों के नजदीक आते देख विपक्ष इस विधेयक का खुलकर विरोध भी नहीं कर पा रही। अंतत: विपक्ष ने लोकसभा में विधेयक को अच्छा खासा समर्थन दिया है। देखा जाए तो विपक्ष के इस समर्थन का क्रेडिट भी भाजपा को ही जाता है। इस तरह भाजपा ने एक ही तीर से कई शिकार कर लिए हैं। .. उच्च जातियों को आरक्षण देने का यह फैसला आगामी लोकसभा चुनावों के समीकरणों को बदल कर रख देगा। यह उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के चुनावी गणित को भी बिगाड़ देगा। बता दें कि, इन दोनों पार्टियों ने राज्य में भाजपा से मुकाबला करने और 85% वोट बैंक को अपने कब्जे में करने के उद्देश्य से महागठबंधन बनाया है। इस वोट बैंक में दलित, ओबीसी और मुस्लिम शामिल हैं। दरअसल, उत्तर प्रदेश के लोकसभा चुनावों में 90 के दशक से ही जातिगत राजनीति चलती है। यहां दलित वर्ग बसपा, यादव और मुस्लिम सपा और सवर्ण जाति के लोग भाजपा का समर्थन करते हैं। उत्तर प्रदेश 90 के दशक में जाति की राजनीति के अपराधियों में से एक बन गया। दलितों ने बसपा, यादवों और मुसलमानों के प्रति सपा और सावर्ण जाति के मतदाताओं को भाजपा के प्रति अपनी वफादारी दी। 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में जाति का प्रतिशत इस प्रकार था:
ओबीसी – 29%
मुस्लिम – 20%
दलित– 14%
यादव – 10%
ब्राह्मण – 10%
राजपूत – 8%
अन्य एससी – 7%
जाट – 2%
इस समय उत्तर प्रदेश में, इन जाति समूहों में, यादव, मुस्लिम और दलित दो मजबूत स्थानीय नेताओं, अखिलेश यादव और बसपा सुप्रीमो मायावती का समर्थन करते हैं। हालांकि, राजनीति में 2 + 2 हमेशा 4 के बराबर नहीं होता है, जिसका सबसे अच्छा उदाहरण 2017 का यूपी विधानसभा चुनाव है। भाजपा का मुख्य वोट बैंक सवर्ण जाति (ब्राह्मण, बनिया, और क्षत्रिय) और गैर-जाटव दलित मतदाता हैं जिन्होंने 2017 के यूपी विधानसभा चुनावों में भाजपा को वोट दिया था। गैर-यादव ओबीसी ने भी 2017 के चुनावों में बड़ी संख्या में भाजपा को वोट दिया। यूपी में ओबीसी को किंग मेकर माना जाता है। ओबीसी आरक्षण में बदलाव की रिपोर्ट के बाद लगभग हर गैर-यादव ओबीसी वर्ग का मतदाता भाजपा का समर्थन कर रहा है। अब उच्च जातियों को आरक्षण देने का यह नया कदम बीजेपी के मूल वोटबैंक सवर्णों को और ज्यादा बीजेपी के पक्ष में करेगा।
सपा-बसपा का गठबंधन नेतृत्व के स्तर पर अच्छा लग सकता है लेकिन कैडर के स्तर पर, यह अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी है। वह इसलिए क्योंकि, बिहार और उत्तर प्रदेश की राजनीतिक परिस्थितियां थोड़ी अलग है। दूसरी तरफ यह बात भी सभी के सामने हैं कि, दलितों और यादवों के बीच सब कुछ ठीक नहीं है। दोनों समुदायों के बीच एक पारंपरिक प्रतिद्वंदिता मौजूद है इसलिए 2019 में एक निर्बाध वोट हस्तांतरण की संभावना बहुत कम है वहीं बड़े पैमाने पर क्रॉस वोटिंग की संभावना बहुत अधिक है जो केवल भाजपा के ही पक्ष में जाएगी।
पिछले कुछ महीनों से, ऐसा देखा जा रहा था कि, कांग्रेस खुद को उच्च जातियों की पक्षधर बताने की कोशिश कर रही थी। उसने एससी/एसटी अधिनियम अध्यादेश को लेकर भाजपा पर निशाना साधा तो वहीं पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी ने उच्च जाति के मतदाताओं को खुश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कांग्रेस पार्टी ने उन्हें जनेऊधारी हिंदू के रूप में भी चित्रित किया। लेकिन भाजपा के ताजा कदम ने कांग्रेस को स्तब्ध कर दिया है, अब भाजपा अपनी चुनावी रैलियों में यह जरूर पूछेगी कि, अगर कांग्रेस उच्च जाति के कल्याण के लिए बहुत चिंतित थी तो उसने सामान्य वर्ग के कमजोर वर्ग को आर्थिक आधार पर कोटा क्यों नहीं दिया? किसी भी राजनीतिक दल के लिए सामान्य वर्ग की जातियों का समर्थन आवश्यक रहा है, यहां तक कि, 2007 में उच्च जातियों को खुश करने के लिए बसपा ने अपनी राजनीतिक रणनीति बदल दी थी। वह सर्व समाज के साथ आई थी। तथाकथित दलित नेताओं के लिए सिर्फ दलित वोटबैंक ही पर्ताप्त नहीं होता, उन्हें सत्ता में आने के लिए अन्य उच्च जातियों के समर्थन की भी आवश्यकता होती है।
जहां तक मायावती की बात है, 2017 के विधानसभा चुनाव में यूपी में गैर-जाटव दलित वोटरों को अपने पाले में लाकर भाजपा ने पहले ही अपने दलित वोट बैंक में महत्वपूर्ण सेंध लगा ली है। उसने राज्य की 85 आरक्षित सीटों में से 69 को जीत लिया। राहुल पंडिता ने ‘बहनजी किस रास्ते जाएगी’ शीर्षक वाले एक आर्टिकल में लिखा है, “ नेशनल इलेक्शन स्टडीज के आंकड़ों के अनुसार मायावती ने 2009 की तुलना में 2014 में अपने दलित वोटबैंक का एक हिस्सा खो दिया है। इसमें 16 प्रतिशत जाटव जाति के और 35 प्रतिशत अन्य दलित मतदाता शामिल हैं। में, आंकड़ों के अनुसार नेशनल इलेक्शन स्टडीज द्वारा डाला गया।” चंद्रशेखर जैसे नए दलित नेता भी राज्य में उभरकर आए हैं। वहीं, बसपा के उपाध्यक्ष और राष्ट्रीय समन्वयक, जय प्रकाश सिंह भी भीम सेना में शामिल हुए हैं। …सपा में भी सब ठीक नहीं चल रहा है। बीते सितंबर महीने में ही सपा के कद्दावर नेता, शिवपाल यादव ने अपना खुद का ‘सेक्यूलर मोर्चा’ बनाया है। उन्होंने इसमें उन बड़े चेहरों को जगह दी है जो कभी अखिलेश के मंत्रिमंडल का हिस्सा थे। इसमें शादाब फातिमा और शारदा प्रताप शुक्ला के नाम शामिल हैं। शिवपाल यादव ने मुलायम सिंह यादव के पुराने निष्ठावान सदस्यों से भी अपने गुट में शामिल होने की गुहार की थी। शिवपाल यादव को सपा के कुछ वरिष्ठ और मजबूत सदस्यों का समर्थन प्राप्त है जो कि, अखिलेश के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं। इन नेताओं के बाहर निकलने से सपा कुछ हद तक कमजोर हो गई है। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि, अखिलेश पिछले 6 वर्षों से पार्टी का चेहरा हैं, लेकिन शिवपाल यादव के पास कैडर और संगठनात्मक ताकत है। शिवपाल को पार्टी के पुराने वफादारों के साथ अच्छा तालमेल हासिल है। ..वहीं ‘समाजवादी सेक्युलर मोर्चा’ बीजेपी के लिए एक आशीर्वाद से कम नहीं है। आने वाले दिनों में सपा-बसपा के बीच सीट बंटवारे को लेकर विवाद भी सामने आ सकता है। यह देखना भी दिलचस्प होगा कि, सपा की ताकत के केवल आधे हिस्से के लिए महागठबंधन कितनी सीटें आवंटित करेगा?शिवपाल के नेतृत्व वाले सेक्युलर मोर्चा और अखिलेश यादव के नेतृत्व वाले सपा के बीच यादव वोटों के यूपी में बंटने की संभावना है। ऐसे समय में जब सपा और बसपा जैसे जाति-आधारित राजनीतिक दलों के वोट बंट जाएंगे, भाजपा अपने मूल- सवर्ण वोट बैंक को मजबूत करने के लिए तो काम कर रही है, वह यादव ओबीसी और गैर-जाटव दलित वोट बैंक को भी अपने पक्ष में करने की कोशिश में लगी है।
बिहार की बात करें तो यहां चुनावी समीकरण पूरी तरह से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाले एनडीए के पक्ष में हैं। उच्च जातियों को आरक्षण देने के फैसले से पहले ही वे भाजपा के पक्ष में थे। एनडीए के सभी साझेदार मजबूत और कद्दावर नेतृत्व रखते हैं। सुशील मोदी जहां बिहार भाजपा इकाई के निर्विवाद नेता हैं, वहीं लोजपा के पास रामविलास पासवान के रूप में मजबूत नेतृत्व है। ऐसे मजबूत नेतृत्व के साथ, राज्य में एनडीए एक दमदार चुनाव लड़कर विरोधियों को हराने में कामयाब हो जाएगी। एनडीए के पास यहां मजबूत सोशल इंजीनियरिंग भी है, जो इसके पक्ष में जाएगी। उच्च जातियों के बीच भाजपा का मतदाता आधार है। इसी तरह बिहार में नीतीश कुमार के पास कुर्मी और ईबीसी वोट हैं। नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में भी लोकप्रिय हैं और बिहार में राजग के लिए अधिक से अधिक वोट शेयर लाने के लिए बाध्य हैं। इसी तरह, रामविलास पासवान ने बिहार राज्य में दलितों और महादलितों के लिए काम किया है। मुख्य विपक्षी दल, राजद का यादव मतदाताओं पर प्रभुत्न है, लेकिन राजद को बिहार में भी नुकसान झेलना पड़ रहा है। लालू के जेल में होने के कारण पार्टी के पास शक्तिशाली नेतृत्व का अभाव है। दूसरी ओर तेजस्वी यादव और तेजप्रताप यादव पार्टी में नेतृत्व की लड़ाई लड़ रहे हैं।
यूपी और बिहार से 120 सांसद लोकसभा में जाते हैं और कहा जाता है कि, दिल्ली की राजगद्दी का रास्ता इन दोनों राज्यों से होकर गुजरता है। बीजेपी भी इस बात को अच्छी तरह से जानती है और सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर तबके के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण देने के इस मास्टरस्ट्रोक से उसने अपने सवर्ण वोट को बरकरार तो रखा ही है, गैर-यादव ओबीसी और गैर-जाटव दलितों को भी उसने अपने पक्ष में किया है। कुल मिलाकर यह अब इन दोनों राज्यों में एक अजेय वोटबैंक बन गया है।बीजेपी का यह कदम आंध्र प्रदेश (कापस) और महाराष्ट्र (मराठा) जैसे हिंदी राज्यों में भी बीजेपी को फायदा पहुंचाएगा।
नए सामान्य कोटा कदम से आरक्षण प्रणाली के आसपास की कहानी भी बदल जाएगी। एक बार आर्थिक आधारित आरक्षण प्रणाली को सामान्य वर्ग के कमजोर कमजोर तबके के लिए लागू किया जाता है तो ओबीसी, एससी, और एसटी के लिए आर्थिक आधार पर आरक्षण लागू करने की मांग निश्चित रूप से उठेगी। सामान्य वर्ग के लोग बहुत लंबे समय से आर्थिक आधार पर आरक्षण लागू करने की मांग कर रहे थे और अब मोदी सरकार ने उनकी लंबे समय से लंबित मांग को पूरा करने के लिए एक मजबूत और निर्णायक कदम उठाया है। कुल मिलाकर, यह कदम राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण है क्योंकि यह 2019 के लोकसभा चुनावों के लिए भाजपा के चुनाव अभियान की शुरुआत करता है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि, यह कदम किसी राजनीतिक सर्जिकल स्ट्राइक से कम नहीं है।