लोकतंत्र के सबसे बड़े पर्व आम चुनाव की रणभेरी बज चुकी है। इसी के साथ ही सियासी लिहाज से सबसे महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश पर सबकी नजरें आ टिकी हैं। कहते हैं कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता यूपी से होकर गुजरता है। इस राज्य को दिल्ली की राजनीति का दिल माना जाता है। यही कारण हैं कि इस सूबे की सियासी धड़कनें कुछ ज्यादा ही तेज होती हैं। इस बार के चुनाव में यूपी के चुनावी समीकरण कुछ अलग से हैं। इसके कई कारण भी हैं। आम चुनावों में पहली बार समाजवादी पार्टी और बहुजन समाजवादी पार्टी एक साथ आई हैं। वहीं कांग्रेस ने पहली बार प्रियंका गांधी के हाथ में कमान सौंपी है। दूसरी तरफ करीब बीस साल बाद केंद्र और राज्य में बीजेपी की सरकार है। ये सब समीकरण कुछ इस तरह हैं कि, इस आम चुनाव में राज्य में बीजेपी के सामने 2014 जैसी जीत दोहराने की चुनौती है, कांग्रेस के सामने अपना अस्तित्व बचाने की चुनौती है और सपा व बसपा के सामने यूपी की राजनीति में बने रहने की चुनौती बनी हुई है। सपा-बसपा गठबंधन के लिए तो यह चुनाव किसी लिटमस परीक्षण से कम नहीं होगा। जैसे-जैसे मौसम में गर्मी बढ़ती जाएगी और चुनाव की तारीखें नजदीक आती जाएगी वैसे ही आने वाले दिनों में यूपी का सियासी पारा भी तेज होता जाएगा।
देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस की बात करें तो यूपी की सियासी जमीन पर कांग्रेस ने इस बार अपना ब्रह्मास्त्र चलाया है। पार्टी ने इस बार अपनी नैया प्रियंका गांधी के हाथों में थमाई है लेकिन यूपी के चुनावी समीकरणों को साधने में यह पार्टी इतनी पीछे है कि प्रियंका गांधी द्वारा नैया पार लगाने की संभावना बहुत अल्प है।
अपमान के घूंट से बचने के लिए अकेली लड़ेगी कांग्रेस
विपक्षी पार्टियों की ओर से कांग्रेस पर एसपी-बीएसपी गठबंधन की मदद करने का दबाव बनाया जा रहा है लेकिन इस गठबंधन ने कांग्रेस के लिए सिर्फ दो सीटें छोड़ने की बात कह इस पार्टी को तगड़ा झटका दिया है। ये दो सीटें अमेठी और रायबरेली हैं। देश की सबसे पुरानी पार्टी इस अपमान से बचने के लिए अब अकेले ही यूपी के चुनावी रण में उतरने की तैयारी कर रही है। कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में अपनी 11 उम्मीद्वारों की पहली सूची जारी कर यह बता दिया था कि वह सपा-बसपा के गठबंधन में शामिल नहीं होने जा रही। कांग्रेस ने जिन 11 सीटों पर अपने उम्मीद्वार खड़े किये हैं, उनमें से 9 पर पहले से ही सपा और बसपा द्वारा अपने उम्मीद्वार खड़े किये जा चुके हैं। इन सीटों पर कांग्रेस द्वारा उतारे गए उम्मीद्वारों में अधिकांश ने पार्टी को 2009 के चुनाव में जीत दिलाई थी। इससे स्पष्ट है कि, कांग्रेस अपमान का घूंठ पीकर गठबंधन में शामिल होने के बजाय अकेले ही चुनाव में उतरना चाहती है।
अपने साथ-साथ गठबंधन की उम्मीदों पर भी पानी फेरेगी कांग्रेस
सवाल यह है कि कांग्रेस के अकेले लड़ने के निर्णय से पार्टी को कितना कुछ हासिल हो सकता है। इसका जवाब है कि, इससे सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस अपमान का घूंट पीने से बच जाएगी जो उसको सपा-बसपा गठबंधन से मिल रहा था। इसके अलावा अगर कांग्रेस अपनी पूरी ताकत भी झोंक दे तब भी वह उत्तर प्रदेश में कुछ खास हासिल नहीं कर पाएगी। अलग से चुनाव लड़ने पर कांग्रेस अपने साथ-साथ गठबंधन की उम्मीदों पर भी पानी फेर सकती है। वह इसलिए क्योंकि कांग्रेस को अगर पिछड़ी जातियों के अच्छे-खासे वोट मिल जाते हैं तो पिछड़ी जातियों के वोटों की कमी के कारण गठबंधन बेजान रहेगा और कांग्रेस फ़िलहाल इतनी मज़बूत नहीं हैं कि वह अपने दम पर चुनाव जीत सके। गठबंधन के वोट कटने से सीधे-सीधे बीजेपी को ही फायदा होगा। अगर कांग्रेस अगड़ी जातियों को लुभाने में कामयाब रहती हैं तो वह बीजेपी के लिए नुकसानदायक हो सकती थी लेकिन यूपी में योगी के रहते यह मुमकिन नहीं लग रहा।
सपा और बसपा दोनों को ही चुकानी पड़ रही गठबंधन की कीमत
दूसरी तरफ यह लोकसभा चुनाव सपा और बसपा गठबंधन के भविष्य को भी तय करने वाला है। कभी घोर प्रतिद्वंद्वी रही समाजवादी पार्टी और बहुजन समाजवादी पार्टी ने भाजपा को हराने के लिए अपने तमाम गिले-शिकवे भुलाकर हाथ मिलाया है। साथ आने के बावजूद भी इन दोनों पार्टियों में अंदरूनी लड़ाई अभी भी जिंदा है। दरअसल, सीट बंटवारे के बाद दोनों पार्टियों से वो नेता, जिनके खाते में कोई सीट नहीं आई है, पार्टी से किनारा कर रहे हैं। उदाहरण के तौर पर महागठबंधन में सीट न मिलने से समाजवादी पार्टी के पूर्व सांसद राकेश सचान कांग्रेस में शामिल हो गए हैं। उन्होंने अखिलेश सिंह पर हमला बोलते हुए कहा कि सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने एक साल पहले उन्हें फतेहपुर सीट से लोकसभा का प्रत्याशी घोषित किया गया था, बाद में उन्हें धोखे में रखकर यह सीट सपा-बसपा के गठबंधन में बसपा को दे दी गई। इसके अलावा भी दोनों पार्टियों के बड़े नेता गठबंधन में अपने आप को नकारा हुआ महसूस कर रहे हैं। बस्ती लोकसभा सीट से समाजवादी पार्टी के एक और नेता ब्रज किशोर सिंह भी टिकट न मिलने से आहत होकर भाजपा के कईं नेताओं के संपर्क में हैं। जनवरी में एसपी के नेता शिवकुमार बेरिया पहले ही शिवपाल सिंह यादव की पार्टी प्रगतिशील समाजवादी पार्टी से जुड़ चुके हैं।
उधर बीएसपी से भी नेताओं का पलायन जारी है। सीतापुर से बसपा के पूर्व सांसद कैसर जहां ने कांग्रेस का हाथ थाम लिया है। टिकट न मिलने की वजह से जलाऊं से बसपा के पूर्व सांसद घनश्याम अनुरागी भी भाजपा के साथ संपर्क में हैं। अनुरागी ने अपने बयान में कहा ‘मैं आगामी चुनाव जरूर लडूंगा, पार्टी आपको बाद में स्वयं पता चल जाएगा।’ कुल मिलाकर दोनों पार्टियों से बागी नेता कांग्रेस और भाजपा में शामिल हो रहे हैं जिसका सबसे ज्यादा फायदा कोई उठाएगा तो वो है भाजपा।
सपा बसपा गठबंधन के लिए एक बड़ी समस्या मुलायम सिंह यादव और शिवपाल सिंह यादव की पार्टी प्रगतिशील समाजवादी पार्टी भी है। आज भी मुलायम के चाहने वालों की समाजवादी पार्टी में कमी नहीं हैं। ये लोग बसपा के साथ गठबंधन के खिलाफ रहे हैं। इनकी नाराजगी भी अखिलेश यादव पर समय-समय पर भारी पड़ती रही है।
2014 जैसी जीत दोहराना ही है बीजेपी का लक्ष्य
दूसरी तरफ योगी आदित्यनाथ शासित यूपी में भाजपा इस समय सबसे मजबूत है। बीजेपी यहां 2014 की जीत दोहराने की रणनीति पर काम कर रही है। साल 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा ने यहां 71 सीटें और उसके सहयोगी अपना दल ने दो सीटें जीती थीं। इस बार भी भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने 73 से ज्यादा सीटें जीतने का लक्ष्य तय किया है। 2014 के चुनाव में उत्तर प्रदेश में मोदी लहर थी लेकिन इस बार मोदी के साथ योगी भी हैं जिससे पार्टी सूबे में और मजबूत हुई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी पिछले कुछ महीनों से उत्तर प्रदेश और अपने संसदीय निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी की तरफ खास ध्यान दे रहे हैं। बीजेपी का विशेष जोर युवा मतदाताओं को भी आकर्षित करने पर है। इसके लिए बीजेपी राज्य में ‘मेरा पहला वोट मोदी को’ अभियान चला रही है। भाजपा को उम्मीद है कि युवा मतदाता 2014 की जीत को दोहराने में उसकी मदद करेंगे।
तो देश में 300 से ज्यादा सीटें जीतेगी एनडीए
आईएएनएस के लिए सी-वोटर द्वारा किए गए ताजा सर्वे के मुताबिक यूपी में जीत के आधार पर ही अगली लोकसभा का रूपरेखा निर्धारित होगी। इस सर्वे के मुताबिक अगर उत्तर प्रदेश में महागठबंधन नहीं होता है, तो एनडीए को फायदा होगा और बीजेपी 2014 के नतीजों को दोहरा सकती है व 72 सीटों पर कब्जा कर सकती है। अब जबकि कांग्रेस यूपी में अपने उम्मीद्वारों को उतार चुकी है तो ऐसे में यह सर्वे बीजेपी के लिए बड़ी खुशखबरी है। सर्वे के अनुसार महागठंधन नहीं होने की सूरत में एनडीए 300 से अधिक सीटों पर जीत दर्ज करेगा।
जब बहती है पश्चिम से पूर्व की ओर चुनावी बयार तो होता है बीजेपी को फायदा
वहीं मतदान की तारीखों की घोषणा के बाद एक और समीकरण बीजेपी के पक्ष में आ गया है। उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों के लिए सात चरणों में चुनाव होंगे। ये चुनाव पश्चिमी उत्तर प्रदेश से शुरू होकर पूर्वी उत्तर प्रदेश में खत्म होंगे। दिल्ली की सीमा से लगे निर्वाचन क्षेत्रों में सबसे पहले वोट डाले जाएंगे, वहीं बिहार की सीमा से लगे निर्वाचन क्षेत्रों के वोट अंतिम चरण में डाले जाएंगे। अब पिछले 15 सालों के चुनावी नतीजों पर गौर करें तो यह बात निकलकर सामने आती है कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव के परिणाम (अन्य कारकों के साथ) इस पर भी निर्भर करते हैं कि राज्य में वोट पश्चिम से पूर्व की तरफ डाले जाते हैं या इसके विपरीत डलते हैं। ऐसा देखा गया है कि, जब उत्तर प्रदेश में चुनावी बयार पश्चिम से पूर्व की ओर बहती है तो उत्तर प्रदेश में बीजेपी ही जीतती है। वहीं सवर्ण आरक्षण लागू होने के बाद एक बार फिर से यूपी में बीजेपी की लहर बनने लगी थी जिसने एयर स्ट्राइक के बाद तेजी से गति पकड़ी है। ये सब समीकरण बताते हैं कि, उत्तर प्रदेश में एक बार फिर बीजेपी भारी संख्या में लोकसभा सीटें जीतने की ओर आगे बढ़ रही है और अगर बीजेपी यूपी में 2014 जैसी जीत दोहराती है तो एनडीए को देश में 300 से ज्यादा सीटें लाने से कोई नहीं रोक सकता।