जबसे भाजपा ने अपने घोषणापत्र में जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 और अनुच्छेद 35ए को हटाने की बात कही है, तबसे कश्मीर के अलगाववादी नेताओं की रातों की नींद उड़ी हुई है। महबूबा मुफ़्ती तो इतनी व्याकुल हैं कि भारत देश को लगातार धमकी दिए जा रही हैं। अपनी धमकियों में वे कभी कश्मीर में अलग झण्डा फहराने कि बात कह चुकी हैं, तो कभी हिंदुस्तान के मिट जाने के सपने भी देख चुकी हैं। दुर्भाग्य की बात तो यह है कि इसी अलगाववादी नेता के लिए भारत ने पिछले कई वर्षों से ना जाने कितने बलिदान दिए हैं, जिनको भूलकर अब महबूबा पाकिस्तान-परस्ती की सारी सीमाएं लांघ रही है। देशभर से अब यह आवाज उठ रही है कि, देश को तोड़ने वाले बयान देेने वाले इन नेताओं को अब बख्शने की जरूरत नहीं है। पहले भी जम्मू कश्मीर में एक अलगाववादी नेता आसिया आन्द्राबी ने देश को तोड़ने वाली हरकतें की थीं, आज वह जेल की हवा खा रही हैं।
आज भारत को कोसने वाली महबूबा मुफ़्ती इसी देश के संविधान ने तहत जम्मू कश्मीर में सत्ता का स्वाद चख चुकी हैं। उनके पिता मुफ़्ती मोहम्मद सईद भी दो बार जम्मू-कश्मीर से मुख्यमंत्री रह चुके हैं। मुफ़्ती मोहम्मद सईद साल 2002 से 2005 और साल 2015 से 2016 में उनके देहांत तक राज्य के मुख्यमंत्री पद पर रहे हैं। इतना ही नहीं, वे वीपी सिंह की सरकार के समय देश के गृह मंत्री भी रह चुके हैं। खुद महबूबा मुफ़्ती भी साल 2016 से 2018 तक प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। उन्हें जीवन भर सत्ता का सुख इसी देश के संविधान से मिला। अब वे सत्ता से दूर हैं और निकट भविष्य में उन्हें सत्ता में लौट आने के कोई अवसर भी नज़र नहीं आते, इसलिए वे अब उसी देश को गाली देकर अपने आप को प्रचारित करने के मौके ढूंढ रही है।
बेशक आज वे चंद कट्टरपंथियों के दम पर हिंदुस्तान को मिट जाने की गाली दे रहीं हों, लेकिन इसी हिंदुस्तान ने उनकी बहन रुबैया सईद को उनके अपहरणकर्ताओं से बचाने के लिए 5 खूंखार आतंकियों को रिहा करने का काम किया था। बात 1989 की है, दो दिसंबर को नेशनल कॉन्फ्रेंस की सरकार के गठन के पांच दिन बाद ही रुबैया सईद का अपहरण कर लिया गया था और इस अपहरण में जेकेएलएफ के कमांडर यासीन मलिक का हाथ था।
ये वही यासीन मालिक है जिसके संगठन जेकेएलएफ पर प्रतिबंध के बाद राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने केंद्र सरकार की आलोचना की थी। उस यासीन मलिक के लिए केंद्र सरकार की आलोचना कर रही थीं जिसने उनकी बहन का अपहरण किया था। रूबिया के पिता उस वक्त देश के गृहमंत्री थे। घाटी में आतंकवाद ने सिर उठाना ही शुरू किया था। यह वही दौर था जब 1990 में वादियों से कश्मीरी पंडितों के विस्थापन की कुख्यात कहानी शुरू हुई। तभी रूबैया को आतंकियों से छुड़ाने के लिए सरकार ने आतंकियों की मांग मान ली थीं। कहा जाता है कि अगर उस वक्त आतंकियों के आगे घुटने नहीं टेके होते तो कश्मीर में ऐसे हालात नहीं होते। ऐसा लगता है महबूबा मुफ़्ती ये सभी घटनाक्रम भूल गयीं हैं कि किस तरह से उनकी बहन और पिता को किस हालात से गुजरना पड़ा था। खैर, यहां ये कहना गलत भी नहीं होगा कि जो अपने परिवार की नहीं हुई वो देश की क्या होगी और कश्मीर तो दूर की बात है। वास्तव में उन्हें सिर्फ अपना राजनीतिक हित साधना है और इसके लिए वो निम्न स्तर की राजनीति कर रही हैं। वो शर्मनाक तरीके से देश के खिलाफ बोल बोल रही हैं।
महबूबा मुफ़्ती इस देश में रहकर अपनी अभिव्यक्ति की आज़ादी का भरपूर इस्तेमाल कर इसी देश के खिलाफ जमकर प्रोपेगैंडा फैलाती आयी हैं। उनकी सुरक्षा में तैनात जवान भी इसी देश के होते हैं लेकिन अब उनका यह देशविरोधी रुख भारत में किसी को भा नहीं रहा है। उनको यह बिल्कुल नहीं भूलना चाहिए कि वे देश के कानून से ऊपर बिल्कुल नहीं हैं। उन्हें अन्य अलगाववादी नेताओं के खिलाफ उठाये गये सख्त कदम पर भी नजर डालनी चाहिए कि देश के खिलाफ जाने पर क्या उनके खिलाफ कार्रवाई भी जा सकती है।
ऐसा लगता है की वो ये भूल रही हैं कि कुछ इसी तरह के देशविरोधी बोल बोलने वाली कश्मीर की एक अन्य अलगाववादी नेता आसिया आन्द्राबी आज जेल में बंद हैं। आन्द्राबी भारत के खिलाफ बगावत के लिए भड़काने, नफरत भरे संदेश फैलाने और देश को तोड़ने वाले भाषण देने में संलिप्त थीं। अंद्राबी धर्म के आधार पर देश के समुदायों में नफरत पैदा कर रही थीं। आज उसी तरह का काम महबूबा मुफ्ती भी करती नजर आ रही हैं। महबूबा मुफ़्ती का अगर यह आतंक-प्रेम बंद नहीं होता है, तो देश की सुरक्षा अथवा जांच एजेंसियों को उनके खिलाफ भी कार्रवाई करने से परहेज नहीं करना चाहिए।