भारत में आज़ादी के बाद वामपंथ की विचारधारा को एक मजबूत बल मिला। वामपंथी ताकतों द्वारा जहां एक तरफ योजनाबद्ध तरीके से दक्षिणपंथी विचारकों की आवाज़ दबाई गई, तो वहीं दूसरी तरफ देश के बुद्धिजीवी वर्ग में सिर्फ वामपंथी विचारधारा का ही बोलबाला था। आलम यह था कि वर्ष 1990 से पहले तो साहित्य जगत में दक्षिणपंथी विचारधारा पूरी तरह गायब थी। हालांकि, पिछले कुछ सालों में देश में इस विचारधारा को गहरा झटका पहुंचा है। राजनीति की बात करें तो केरल को छोड़कर लेफ्ट अब कहीं बचा नहीं है। इसके अलावा मीडिया, सिनेमा और साहित्य जगत में भी लेफ्ट विचारधारा का प्रभाव पूरे तरीके से खात्मे की ओर है। विकास विरोधी मानसिकता और नक्सलवाद का समर्थन करने की वजह से इस विचारधारा ने लगातार अपना जनाधार खोया है, जिसके कारण आज यह विचारधारा भारत में इतिहास बनने की ओर अग्रसर है।
लोकसभा चुनाव में मिले वोटों पर नजर डालें तो लेफ्ट का जनाधार वर्ष 2004 से 2014 तक आते आते खत्म होने के कगार पर पहुंच चुका है। जहां 2004 में लेफ्ट पार्टियों का वोट शेयर 7 प्रतिशत हुआ करता था, वो 2014 तक दस सालों में केवल 2.5 प्रतिशत पर आकर सिमट गया। इस औसत के अनुसार 2019 के लोकसभा चुनाव में लेफ्ट का वोटर शेयर 1 प्रतिशत से भी कम होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है। त्रिपुरा में बीजेपी की जीत के बाद अब सिर्फ केरल में ही लेफ्ट पार्टी की सरकार बची है। इन राजनीतिक पार्टियों के कम होते जनाधार का सबसे बड़ा कारण वामपंथी विचारधारा में बढ़ता हिंसावाद रहा है। वामपंथी राजनीतिक पार्टियों ने अपने हितों को साधने के लिए अकेले पश्चिम बंगाल में वर्ष 1977 से लेकर वर्ष 2009 तक कुल 55 हज़ार राजनीतिक हत्याएँ की।
गौर करने वाली बात यह है कि देश की राजनीति के साथ-साथ मुख्यधारा मीडिया और सिनेमा में भी वामपंथी विचारधारा को मानने वाले पत्रकारों और कलाकारों की संख्या लगातार घटी है। ऐसा इसलिए क्योंकि देश के लोगों को वामपंथी विचार अब बिल्कुल नहीं भाते। सिनेमा क्षेत्र में पिछले कुछ समय में दक्षिणपंथी विचारधारा को एक बढ़ावा मिला है। हालांकि, ऐतिहासिक तौर पर बॉलीवुड वामपंथी विचारधारा को मानने वाले लोगों का गढ़ माना जाता रहा है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में कई बड़ी राजनीतिक हस्तियों ने अपने दक्षिणपंथी विचार आगे रखे हैं, और लोगों की ओर से उन्हें खूब सकारात्मक प्रतिक्रिया भी मिली है।
साहित्य और शैक्षणिक संस्थानों में भी वामपंथी बुद्धिजीवियों की संख्या बड़ी तेजी से घटी है। ऐसा इसलिए क्योंकि वामपंथी विचारधारा को पालने-पोसने वाले जेएनयू जैसे संस्थानों में लेफ्ट विंग को मानने वाले लोगों का प्रभाव बड़ी तेजी से कम हुआ है। आतंकियों के समर्थन करने से लेकर भारत विरोधी नारे लगाने तक, जेएनयू के लेफ़्टिस्ट छात्रों ने पिछले सालों में कई विवादों को जन्म दिया। इसके अलावा देश में एकता की जड़ों को कमजोर करने के कोशिशों में लगे ‘अर्बन नक्सल गैंग’ का भी भंडाफोड़ हुआ जिसके बाद इस विचारधारा का कोई जनाधार नहीं बचा।
वामपंथी विचारधारा चाहे किसी भी क्षेत्र में हो, लोगों ने इसका अनुसरण करने वाले लोगों के दोहरे मापदण्डों को बड़ी गौर से देखा है। देश में असहिष्णुता बढ़ने का ढोंग रचकर केंद्र सरकार के खिलाफ एजेंडा चलाने वाली ‘अवार्ड वापसी गैंग’ के अधिकतर सदस्य भी इसी विचारधारा को मानने वाले थे। कभी यह गैंग अवार्ड वापसी का ढोंग कर सुर्खियों में आया तो कभी एजेंडा फैलाने के लिए उसने इंटोलरैंस का राग अलापा, और ऐसा ठीक चुनावों से पहले किया गया। मोदी सरकार आने के बाद से देश के वामपंथी विचारकों को अपना एजेंडा आगे बढ़ाने के लिए वो सहूलियत प्राप्त नहीं हुई, जो इससे पहले कांग्रेस सरकारों के दौरान होती थी। इसके अलावा देश के युवाओं के बीच जागरूकता बढ़ने से उनके लिए यह समझना आसान हो पाया है कि देश के विकास को आगे बढ़ाने के लिए कौन-सी विचारधारा अहम योगदान निभा सकती है। वामपंथ विचारधारा को आमतौर पर विकास-विरोधी माना जाता रहा है जिसके कारण लोगों ने दक्षिणपंथी विचारधारा के प्रति अपना सकारात्मक रुख दिखाया है।