इस साल सेक्युलर दलों ने इफ्तार कल्चर को क्यों भुला दिया है?

इफ्तार पार्टी

(PC: Scroll.in)

भारत वैसे तो एक लोकतान्त्रिक और धर्म निरपेक्ष है, लेकिन दुर्भाग्यवश यहां की राजनीतिक पार्टियां अपनी राजनीति चमकाने के लिए धर्म का सहारा लेने का कोई मौका नहीं छोड़ती। रमजान के दौरान दी जाने वाली इफ्तार पार्टी को भी कुछ राजनीतिक दलों द्वारा एक पॉलिटिकल टूल बना लिया गया था, लेकिन जैसे ही इस साल लोकसभा के चुनाव समाप्त हुए, ठीक वैसे ही सभी तथाकथित सेक्युलर राजनीतिक दलों ने इफ्तार के साथ-साथ मुस्लिमों के प्रति अपने स्नेह का दिखावा करना छोड़ दिया। बड़े-बड़े राजनीतिक दल बड़ी धूमधाम से ‘इफ्तार पार्टी’ का आयोजन करते थे ताकि कथित तौर पर देश में धर्म निरपेक्षता की भावना को जिंदा रखा जा सके। एक आरटीआई जवाब के मुताबिक दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने वर्ष 2015-16 में इफ्तार पार्टी पर लगभग 44 लाख रुपये खर्च कर दिये थे, जबकि वर्ष 2016-17 में यह खर्च 1 करोड़ 14 लाख के ऊपर पहुंच गया था। हालांकि, इस साल सभी राजनीतिक दलों द्वारा इफ्तार को पूरी तरह नकार देने कई गंभीर सवाल खड़ा करता है।

इस साल चूंकि लोकसभा चुनाव समाप्त हो चुके हैं, और लोग अपने मताधिकार का इस्तेमाल कर चुके हैं, तो भला कौन अपनी तुष्टीकरण की राजनीति पर करोड़ों खर्च करना चाहेगा? कुछ राजनीतिक पार्टियां अपने आप को मुस्लिमों का हितैषी साबित करने के लिए ‘इफ्तार’ को एक बढ़िया जरिया बना लिया था। टैक्सपेयर्स के पैसे का दुरुपयोग कर इफ्तार पार्टी पर करोड़ों खर्च किए जाते थे, लेकिन इस साल किसी राजनीतिक दल ने मुस्लिमों के प्रति अपने इस सम्मान को जाहिर करने की जहमत नहीं उठाई। हालांकि, लेफ्ट लिबरल गैंग इस बात को पचाने में असहज महसूस कर रहा है। राजनीतिक पार्टियों की इस चुनावी ठगी का बचाव करने के लिए अब यह पूरा गैंग एक्टिव होकर यह बहाने बना रहा है कि सिर्फ इफ्तार पार्टी के आयोजन से कोई अपने आप को मुस्लिमों का हितैषी कैसे साबित कर सकता है।

लिबरल गैंग का यह रुख इसलिए भी हैरान करने वाला है क्योंकि पिछले वर्ष जब राष्ट्रपति भवन ने इफ्तार पार्टी के आयोजन करने पर पाबंदी लगा दी थी, तो इस लिबरल गैंग ने अपनी असहिष्णुता का परिचय देते हुए धर्मनिरपेक्षता का रोना रोना शुरू कर दिया था। हालांकि, इस पाबंदी का धर्म से कोई लेना देना नहीं था क्योंकि इफ्तार के साथ-साथ भवन में दिवाली मनाने पर भी रोक लगा दी गई थी।

हालांकि, देश की राजनीति में इफ्तार का राजनीतिकरण कोई नई बात नहीं है। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने इफ्तार पार्टी कल्चर को देश पर थोपा था। उसके बाद आने वाली कांग्रेस की सरकारों ने भी इसी कल्चर को आगे बढ़ाया ताकि अपनी धर्मनिरपेक्षता को साबित किया जा सके। लेकिन इस साल एकदम इस कल्चर को भुला दिया जाना वाकई हैरान करने वाला है।

गौर करने वाली बात यह है कि पिछले कुछ वर्षों से राजनीतिक दलों द्वारा इफ्तार कल्चर को नकारा जा रहा है, ताकि ये सभी दल मुस्लिम तुष्टीकरण के आरोपों से बच सकें। पिछले वर्ष कांग्रेस ने बाद में जाकर इफ्तार पार्टी तो दी थी, लेकिन वह भी सिर्फ महागठबंधन के शक्तिप्रदर्शन का मंच बनकर रह गई थी। यह वाकई हास्यास्पद है कि जिस इफ्तार पार्टी को पूरी लिबरल ब्रिगेड कई सालों से धर्मनिरपेक्षता का सबसे बड़ा उदाहरण बताते थे।  इफ्तार कल्चर को उनके आकाओं द्वारा भुलाया जा रहा है। इन राजनीतिक दलों की इस पलटू पॉलिटिक्स से यह स्पष्ट हो गया है कि यह इफ्तार पार्टी आयोजन करने का ढोंग सिर्फ अपनी तुष्टीकरण की राजनीति को साधने के लिए किया था।

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