क्या मायावती ने लोकसभा चुनावों में फायदे के लिए किया अखिलेश का इस्तेमाल?

अखिलेश यादव मायावती सपा बसपा

PC: .Jagran

भाजपा ने वर्ष 2014 की तरह ही इस बार भी उत्तर प्रदेश में शानदार प्रदर्शन किया। पार्टी को पिछली बार की तुलना में 9 सीटें बेशक कम मिलीं, लेकिन महागठबंधन रूपी बड़ी चुनौती के बावजूद भाजपा का राज्य की 62 सीटों पर कब्जा करना किसी करिश्मे से कम नहीं है। पार्टी के वोट शेयर में इस बार जबरदस्त उछाल देखने को मिला है। पिछली बार पार्टी को 42 प्रतिशत वोट्स मिले थे, तो वहीं इस बार यह आंकड़ा 50 तक जा पहुंचा। सपा-बसपा के महागठबंधन को सिर्फ 15 सीटें मिली जबकि कांग्रेस मुश्किल से अपनी 1 सीट ही बचा पाई। मोदी वेव इतनी जोरदार थी कि राहुल गांधी अपनी अमेठी सीट से हाथ धो बैठे और उन्हें स्मृति ईरानी के हाथों करारी हार का सामना करना पड़ा। चुनावी नतीजों में मायावती को सबसे बड़े गेनर के तौर पर देखा जा रहा है जिनकी पार्टी को इस बार 10 सीटों पर जीत मिली, जबकि पिछली बार उनको 1 भी सीट नसीब नहीं हुई थी।  

इस साल जनवरी में जब सपा और बसपा ने इन चुनावों में साथ आने का फैसला लिया था, तो यह माना जा रहा था कि महागठबंधन भाजपा के लिए बड़ी मुश्किलें खड़ा कर सकता है। जातीय समीकरण भी महागठबंधन के पक्ष में जाते दिखाई दे रहे थे। हालांकि, चुनावी नतीजों का विश्लेषण करने से यह साफ होता है कि महागठबंधन का यह फॉर्मूला सिर्फ चंद सीटों पर चल पाया। बसपा का वोटबैंक मुस्लिम बहुल और अन्य सुरक्षित सीटों पर तो ट्रांसफर हुआ, लेकिन बाकी सीटों पर गठबंधन का जातीय समीकरण काम नहीं कर पाया। यह भी देखने को मिला कि जिन सीटों पर जिस जाति का वर्चस्व था, उन सीटों पर उसी जाति का उम्मीदवार हार गया और भाजपा को जीत मिली। यानि स्पष्ट हो गया कि इन चुनावों में सपा-बसपा का वोटबैंक ट्रांसफर नहीं हुआ, जैसे कि हमें गोरखपुर, कैराना और फूलपुर के उप-चुनावों में देखने को मिला था। यही कारण था कि यादव लैंड मानी जाने वाली कन्नौज, फ़िरोज़ाबाद, एटा, इटावा और बदायूं जैसी सीटों पर समाजवादी पार्टी को करारी हार का सामना करना पड़ा और यादव परिवार के तीन सदस्य भी चुनाव हार गए। यदि अखिलेश यादव को छोड़ दिया जाए, तो समाजवादी पार्टी के उम्मीदवारों की जीत भी फीकी ही रही। मैनपुरी से चुनाव जीतने वाले मुलायम की रिकॉर्ड मतों से जीत का दावा किया जा रहा था, लेकिन वो 94389 वोटों से ही जीत हासिल कर सके और ये तब हुआ जब इस बार सपा और बसपा गठबंधन कर साथ चुनाव लड़ रहे थे। कुल मिलाकर इन चुनावों में जहां एक तरफ समाजवादी पार्टी को खासा नुकसान हुआ तो वहीं बहुजन समाज पार्टी ने गठबंधन से सबसे ज़्यादा फायदा उठाया, क्योंकि रामपुर, संभल, मुरादाबाद, सहारनपुर, गाजीपुर, मऊ, जौनपुर, लालगंज और आजमगढ़ जैसी सीटों पर मायावती का जातीय समीकरण काम करता दिखा। जातिगत राजनीति के फेल होने के अलावा समाजवादी पार्टी को चाचा शिवपाल ने भी अच्छा–खासा नुकसान पहुंचाया। इस बार के लोकसभा चुनाव में प्रगतिशील समाजवादी पार्टी बनाकर मैदान में कूदे शिवपाल खुद तो फिरोजाबाद से हार गए, लेकिन सपा के राष्ट्रीय महासचिव रामगोपाल यादव के बेटे अक्षय यादव की नैया डुबाने में भी उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी।

लेकिन दूसरी तरफ मायावती ने इन चुनावी नतीजों में सबसे ज़्यादा फायदा उठाया। इसका फायदा उन्हें वर्ष 2022 के विधानसभा चुनावों में भी देखने को मिल सकता है। उत्तर प्रदेश की राजनीति में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी को एक दूसरे का धूर विरोधी समझा जाता है। वर्ष 1995 के गेस्ट हाउस कांड के बाद समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी एक दूसरे को फूटी आँख भी नहीं सुहाते थे। अब इस बात की पूरी संभावना है कि बहुजन समाज पार्टी, सपा के साथ अपने गठबंधन को अलविदा कहकर आगामी विधानसभा चुनावों में अकेले चुनाव लड़े, जो कि समाजवादी पार्टी के भविष्य के लिए बड़ा खतरा साबित होगा। खैर, इन लोकसभा चुनावों के नतीजों से बसपा सपा के जरिये प्रदेश में अपनी स्थिति को मजबूत करने में कामयाब रही हैं. इस बात का अंदाजा पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव पहले ही लगा चुके थे तभी तो वो नहीं चाहते थे सपा बसपा से हाथ मिलाये।अगर ये बात अखिलेश यादव ने पहले ही समझ ली होती तो शायद सपा के समक्ष अस्तित्व बचाने का खतरा न इस तरह से सामने नहीं आई होती ।

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