वर्ष 1979 में जब केंद्र की सत्ता पर आसीन जनता पार्टी ने मंडल आयोग का गठन किया था तो इसका मकसद सामाजिक और शैक्षिक तौर पर पिछड़े वर्ग को उनकी पहचान दिलाना था। कई सालों के अनुसंधान और विरोध के बाद आखिर वीपी सिंह की सरकार के दौरान 1990 में मंडल आयोग को लागू कर दिया गया, जिसे बाद में सुप्रीम कोर्ट से भी मान्यता मिल गई थी। मंडल आयोग का उद्देश्य पिछड़े वर्ग के लोगों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण देकर सामाजिक और आर्थिक तौर पर उन्हें सशक्त बनाना था। मंडल आयोग के आने के बाद देश की राजनीति में अचानक जाति की महत्ता काफी बढ़ गई और जातिगत आधारित राजनीति करने वाली क्षेत्रीय पार्टियों का अभूतपूर्व तरीके से उदय हुआ। मंडल आयोग के बाद आए इस नए राजनीतिक युग को ‘पोस्ट मण्डल पॉलिटिक्स’ कहा जाने लगा। जहां एक तरफ तो राज्य स्तर पर क्षेत्रीय पार्टियों का उदय हो रहा था तो वहीं, केंद्र स्तर पर गठबंधन की सरकारें बनाई जा रही थी क्योंकि कोई भी पार्टी अपने दम पर अकेले लोकसभा में बहुमत लाने के काबिल नहीं थी और सरकार बनाने के लिए कई क्षेत्रीय पार्टियों का एक-साथ आना अनिवार्य हो गया था।
इस बात में कोई शक नहीं था कि मंडल आयोग ने लोगों को जातीय आधार पर बांट दिया था। लोगों की जाति ही उनकी सबसे बड़ी पहचान गई। पिछड़ी जाति के लोगों की राजनीतिक महत्वकाक्षाएँ बढ़ गई और वे सरकार द्वारा दिए गए इस अवसर को पूरी तरह भुनाना चाहते थे। यही कारण था कि कई राजनीतिक पार्टियां सिर्फ जाति आधारित वोटबैंक के बूते ही वजूद में आ सकीं और उन्होंने खुलकर एक विशेष जाति को समर्थन देना शुरू कर दिया।
प्रत्येक राज्य में जाति आधारित राजनीति करने वाली क्षेत्रीय पार्टियों का वर्चस्व काफी बढ़ गया और उत्तर प्रदेश में एसपी और बीएसपी, बिहार में आरजेडी, आंध्र प्रदेश में टीडीपी, ओड़ीशा में बीजेडी, तमिल नाडु में डीएमके जैसी पार्टियों को काफी राजनीतिक शक्ति हासिल हो गयी। यही कारण है कि इनमें से कुछ राजनीतिक पार्टियां तो आज तक राज्य में अपनी सरकार बनाने में सफल होती आई हैं। हालांकि, मंडल आयोग के बाद राष्ट्रीय स्तर पर लोगों के राजनीतिक विचारों में अलगाव पैदा हो गया लोकसभा चुनावों में मिला जुला जनादेश आना शुरू हो गया, और यही सबसे बड़ी वजह थी कि मंडल आयोग के दो दशकों बाद तक केंद्र में कोई मजबूत सरकार ना आ सकी और कुछ सरकारें तो मात्र कुछ महीनों तक ही चल सकीं। पीवी नरसिम्हा राव से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह जैसे नेता भी क्षेत्रीय पार्टियों के समर्थन के बूते ही प्रधानमंत्री बन सके क्योंकि इनकी अपनी पार्टियों को लोकसभा में बहुमत नहीं मिल सका था।
कुछ महीनों की अस्थिर सरकारें चलाने के बाद वर्ष 1999 में जब भाजपा दोबारा सत्ता में आई थी तो वह शिव सेना, जेडीयू, बीजेडी, डीएमके, टीएमसी, जेकेएनसी और आरएलडी जैसी क्षेत्रीय पार्टियों के समर्थन के दम पर ही पूरे पांच साल का कार्यकाल पूरा करने में सफल हो पाई थी। उस वक्त भाजपा को सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी होने के बावजूद लोकसभा में सिर्फ 182 सीटें ही मिली थीं। उसके बाद यूपीए सरकार के दो कार्यकाल भी गठबंधन के सहारे ही पूरे हो सके थे। वर्ष 2004 में जहां कांग्रेस को सिर्फ 145 सीटें मिली थी तो वहीं वर्ष 2009 के चुनावों में भी कांग्रेस सिर्फ 206 सीटें हासिल करने में कामयाब हो सकी थी। इसके बावजूद कांग्रेस के नेतृत्व में केंद्र में सरकार बनी, और पूरे 10 साल देश पर यूपीए ने राज किया।
हालांकि, 2014 में राजनीतिक समीकरण पूरी तरह बदल गए। भाजपा को अपने दम पर लोकसभा में बहुमत हासिल हुआ और उसने 282 सीटों पर जीत हासिल की। इन चुनावों में क्षेत्रीय पार्टियों को सबसे बड़ा नुकसान हुआ और बीएसपी, डीएमके और आरएलडी जैसी क्षेत्रीय पार्टियों को तो एक भी सीट नहीं मिल पाई। मंडल आयोग के बाद ऐसा पहली बार हुआ था कि जाति आधारित राजनीति पूरी तरह फ्लॉप साबित हुई थी। भाजपा लोगों का ध्यान भ्रष्टाचार, महंगाई जैस बड़े राष्ट्रीय मुद्दों की तरफ केन्द्रित करने में सफल हुई और वोटर्स ने भाजपा को सबसे अच्छे विकल्प के तौर पर देखा और जाति से ऊपर उठकर भाजपा पर अपना भरोसा जताया। इसका नतीजा यह निकला कि देशभर में जातिगत राजनीति करने वाली पार्टियों के साथ-साथ वंशवाद की राजनीति करने वाली क्षेत्रीय पार्टियों का अस्तित्व खतरे में आ गया। राष्ट्रवाद और विकास के एजेंडे के सामने जातीय समीकरण पूरी तरह फीके पड़ गए।
इसके बाद वर्ष 2019 में यही सिलसिला जारी रहा और भाजपा को 303 सीटों पर जीत के रूप में प्रचंड बहुमत मिला। इन चुनावों में भी क्षेत्रीय पार्टियों को बुरा दौर जारी रहा और हिन्दी बेल्ट के राज्यों में भाजपा-विरोधी पार्टियों का अस्तित्व लगभग पूरी तरह खत्म हो गया। भाजपा को 16 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में सभी क्षेत्रीय पार्टियों को मिले वोट्स से ज़्यादा वोट्स मिले और टीएमसी जैसी मजबूत क्षेत्रीय पार्टी को भी भाजपा ने कड़ी टक्कर दी। पश्चिम बंगाल में टीएमसी को सिर्फ 22 सीटें मिल सकी और भाजपा ने 18 सीटों पर अपना परचम लहराया। उत्तर प्रदेश में भी एसपी-बीएसपी के महागठबंधन को लोगों ने पूरी तरह नकार दिया। इन चुनावों की खास बात तो यह रही कि वोटर्स ने वंशवाद की राजनीति को भी पूरी तरह नकार दिया और बड़े-बड़े राजनेताओं के परिवार-जनों को करारी हार का सामना करना पड़ा। उदाहरण के तौर पर टीआरएस के मुखिया केसीआर की बेटी, कल्वकुंतला कविता को इन लोकसभा चुनावों में करारी हार का सामना करना पड़ा। इसके अलावा एनसीपी के मुखिया शरद पवार के भतीजे अजीत पवार के बेटे, पार्थ पवार को भी लोगों ने खारिज कर दिया। दूसरी ओर, एचडी कुमारस्वामी के बेटे निखिल कुमारस्वामी को भी अपनी लोकसभा सीट पर जीत ना मिल सकी।
वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों से यह साफ हो गया है कि लोगों ने जातिगत राजनीति को परे रख राष्ट्रहित कि राजनीति को प्राथमिकता दी है। जात-पात से ऊपर उठकर सभी वोटर्स ने पीएम मोदी को अपना वोट दियाम जिसके कारण भाजपा को एकतरफा जनादेश हासिल हुआ। मंडल आयोग के बाद शुरू हुई जातिगत राजनीति का अस्तित्व अब पूरी तरह खत्म होता दिखाई दे रहा है जिसका पूरा श्रेय पीएम मोदी और भाजपा को ही जाता है। जनता पार्टी द्वारा शुरू किए गए ‘गठबंधन युग’ को अब भाजपा ने ही खत्म किया है जिसकी वजह से देश को एक मजबूत नेतृत्व मिलने में सफलता हासिल हो सकी है।